शहताज खान/ पुणे
डॉ. अब्दुल मूइज शम्स 78 साल के हो चुके हैं. मधुमेह और ब्लड प्रेशर को काबू में रखते हुए एक बार लकवे के वार को भी झेल चुके हैं. लेकिन कमाल की बात है कि इस उम्र में भी सक्रिय हैं. वह कहते हैं, "अगर काम न करता रहता तो बिस्तर पर लेटा मलकुल मौत ( मौत का फरिश्ता) का इंतज़ार करता."
हिंदुस्तान में साठ साल की उम्र पूरी होते ही इंसान को तकनीकी तौर पर बूढ़ा घोषित कर दिया जाता है. रिटायर होते लोगों का सक्रिय जीवन से दूरी बनाना, केवल घर-परिवार ही नहीं बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं है.
कुछ समय पहले मुइज़ शम्स ने एक कम्युनिटी सेंटर स्थापित किया है जिसमे मस्जिद के अलावा लाइब्रेरी, रीडिंग रूम, क्लास रूम, कोचिंग क्लासेस, हेल्थ सेंटर इत्यादि की सुविधा है.
स्वयं को रिटायर्ड मानकर आराम से बैठ जाने वाले बड़ी संख्या में लोगों के बीच ऐसे लोग भी कम नहीं, जो सक्रिय और व्यस्त जीवन जी रहे हैं. यही लोग आशा के दीप हैं जो वृद्धावस्था के अंधकार को प्रज्वलित कर रहे हैं और उनके जीवन के अमृत काल में उनका अनुभव-अमृत समजा को मिल रहा है.
अभी तो पार्टी शुरू हुई है...
डॉ. अब्दुल मूइज शम्स उन्हीं कुछ लोगों में शुमार हैं जो अपने अनुभव से समाज को समृद्ध कर रहे हैं. हिंदी फिल्म के एक लोकप्रिय गीत अभी तो पार्टी शुरू हुई है की तर्ज पर वह बेहद सक्रिय हैं.
वह कहते हैं, "आमतौर पर लोग रिटायरमेंट के बाद आराम के आदी हो जाते हैं. वो सोचते हैं कि चलो काम से दूर होंगे तो समय बहुत होगा. पोते-पोती, नवासे-नवासी के साथ अच्छा समय गुजरेगा. मस्जिद भी पाबंदी से जा सकूंगा. हज भी हो जाएगा. अल्लाहु-अल्लाहु करते हुए समय गुजर जाएगा. यह आम रवैया होता है. परन्तु मेरी राय में ज़िंदगी तो अब शुरू होती है."
हालांकि, कड़वा सच यह भी है कि कि समय के साथ समाज में आ रहे बदलाव ने बुजुर्गों की परिवार में अहमियत कम कर दी है.
लेकिन डॉ. अब्दुल मूइज शम्स ने उम्र बढ़ने के साथ सीखने की रफ्तार भी बढ़ा दी. वह कहते हैं, "पेशे से डॉक्टर हूं, मेरा काफ़ी समय देश से बाहर गुज़रा. 6 वर्ष ईरान और 17 वर्ष सऊदी अरब में गुज़ारकर जब 2008 में अलीगढ़ पहुंचा तो एक बार फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने 9 साल तक पढ़ाने का अवसर मिला. अब जब की उम्र की इस मंज़िल पर पहुंचा तो रिटायर होना ही था, तो सुकून का अनुभव हुआ कि अब मुझ पर कोई पाबंदी नहीं और अब ज़िंदगी मेरी पाबंद होगी."
कुछ समय पहले मुइज़ शम्स ने एक कम्युनिटी सेंटर स्थापित किया है जिसमे मस्जिद के अलावा लाइब्रेरी, रीडिंग रूम, क्लास रूम, कोचिंग क्लासेस, हेल्थ सेंटर इत्यादि की सुविधा है.
आंखों के डॉक्टर मुइज़ कहते हैं, "मैं लगातार मुफ़्त आई कैंप आयोजित करता हूं. न केवल देश बल्कि विदेशों में भी तकरीबन 22 देशों में एनजीओ के साथ मिल कर फ़्री कैटरेक्ट ऑपरेशन करता रहा हूं. समाज कल्याण के कामों से मन को शांति मिलती है."
मुइज शम्स आगे कहते हैं, "आखरी सांस तक लोगों की खिदमत करता रहूंगा.”
पढ़ना है दीवानगी
मुइज शम्स दीवानगी की हद तक पढ़ते हैं. वह बताते हैं, "मेडिकल साइंस में वही सफल हो सकता है जो सारी उम्र पढ़ता रहे. नए-नए आविष्कारों से लाभ उठाता रहे. अपडेट रहना सफ़लता की कुंजी है."
हर रोज़ सीखने की चाहत ही है जो हौसले और जोश में कभी कोई कमी नहीं आने देती. अब्दुल मूइज शम्स शायर नहीं हैं लेकिन अच्छी शायरी पर दाद देते हैं. वह उर्दू और फ़ारसी में लिखना पसंद करते हैं परन्तु न अफसानानिगार हैं न नोवेलनिगार. लेकिन साइंस को उर्दू में लिखने का शौक़ है इसलिए अभी तक उनकी 7 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.
मुइज शम्स रिटायर हुए लोगों को आग में तप कर आया हुआ सोना बताते हैं. वह कहते हैं, "रिटायर लोगों की आधी से अधिक आयु काम करते हुए बीती होती है. वह सोना होते हैं जो तपकर तैयार हुए होते हैं. उनके पास बहुत अनुभव होता है. जिसका उपयोग होना चाहिए.”
मुइज शम्स रिटायर लोगों को सुझाव देते हैं कि वह लोग अनुभवों की रोशनी में कोई प्लान बनाएं. छोटे से शुरू करें और धीरे-धीरे उसे बढ़ाते जाएं. रिटायरमेंट से कुछ समय पूर्व ही तैयारी शुरू कर दें और रिटायर होते ही बिना रुके अपनी योजना पर काम ज़रूर शुरू कर दें क्योंकि रुकने के बाद दुबारा शुरू करने में मुश्किल हो सकती है.
उनका कहना है कि बढ़ती आयु में आत्मनिर्भर बने रहना आज के समय में अत्यधिक आवश्यक हो गया है. अपने लिए, घर परिवार के लिए, समाज के लिए और अपने देश की उन्नति के लिए भी. बिना रुके बिना थमे हर व्यक्ति को चलते रहना है.
"कर्मठता, सक्रियता और काम करते रहने की इच्छा बनी रहेगी तो कई समस्याएं तो स्वयं हल हो जाएंगी." डॉक्टर साहब की यह सलाह हर व्यक्ति के लिए ध्यान देने योग्य है.
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