किंवदंतियों का दूसरा नाम था गामा पहलवान!

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 29-01-2023
गामा पहलवान
गामा पहलवान

 

अमरीक सिंह / जालंधर

अपने जीवन काल में सबने यह कहावत कभी न कभी जरूर सुनी होगी कि,  ‘‘तुम क्या गामा पहलवान हो!’’ प्रांत कोई भी हो और भाषा-बोली भी कोई और. मगर चिरकाल से यह कहावत भारतीय जनमानस का अमिट हिस्सा है. खुद ‘गामा पहलवान’ एक जिंदा किवदंती बन चुके हैं. जिनकी जिंदगी का पूरा सफर किस्से-कहानियों से अलहदा नहीं.

भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, बल्कि दुनिया के कोने-कोने में उनका नाम है. कई जगह बाकायदा उन्हें पूजा जाता है. गामा पहलवान को दुनिया से रुखसत हुए दशकों बीत गए, लेकिन दुनिया भर में लाखों पहलवान उन्हें अपना आदर्श समझते-मानते हैं.
 
बेशक इतने विशाल जगत में फिर कोई दूसरा गामा पहलवान नहीं हुआ और रुझान बताते हैं कि निकट भविष्य में होगा भी नहीं! जैसे ताजमहल एक है, कुतुब मीनार एक है और लाल किला भी कहीं कोई दूसरा नहीं, ऐसे ही गामा पहलवान बस एक ही शख्स हुए. कोशिश करने वालों की तादाद न पहले कम थी और न आज यानी (जनवरी 2023 तक) कम है. अलबत्ता तादाद में इजाफा ही दर्ज हुआ है.
 

खेल जगत में आधुनिक दौर की कई चीजें इजाद हुई अथवा जुड़ीं, लेकिन परंपरागत मैदानी खेल कुश्ती का दबदबा बरकरार है और आज भी उसके दीवानों की संख्या करोड़ों में है. यह क्रीड़ा संभवतः हजारों साल पुरानी है. माना जाता है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ इसका जन्म हुआ होगा और बाद में यह परवान चढ़ती गई. खुंखार जंगली जानवरों से मुकाबिल होने के लिए जो दांवपेच अतिरिक्त शारीरिक सामर्थ्य वाले लोग इस्तेमाल करते थे, उन्हें बाद में ‘पहलवान’ कहा जाने लगा, बेशुमार खेल-इतिहासकार और खोजकार इस पर एकमत हैं.        
 
बहरहाल, बात गामा पहलवान की हो रही है, जिन पर बाकायदा शोध प्रबंध तक लिखे गए और इतिहास के सुनहरी पन्नों में उनका नाम तो खैर दर्ज है ही. 22 मई, 1878 वह तारीख है, जब ब्रिटिश काल के शासन वाले पूर्वी पंजाब के अमृतसर जिले के जब्बोवाल गांव में कश्मीरी पहलवानों के परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ. परिवार वालों ने उस बच्चे का नाम गुलाम मोहम्मद बख्श बट रखा, जो आगे चलकर गामा पहलवान कहलाया.
 

                  

चूंकि गुलाब मोहम्मद बख्श बट के पुरखे पहलवान थे और पहलवानी की घुट्टी उन्हें जन्म के वक्त ही दे दी गई थी. इसलिए वे बचपन से ही अखाड़ों को देखते हुए बड़े हुए. रिवायती कुश्ती के मौलिक दांवपेंच उन्होंने बचपन की सहज बुद्धि से खुद ही सीख लिए. थोड़ा बड़े हुए, तो मामा ने उन्हें बाकायदा प्रशिक्षण दिया और कुश्ती के पारंपरिक गुण बतौर गुरु सिखाए-बताए. बेहद सख्त अनुशासन में उनका प्रशिक्षण हुआ.
 
गुलाम मोहम्मद को बचपन में ही गामा पहलवान कहा जाने लगा. इसलिए कुश्ती के कुछ गुर उन्होंने खुद इजाद किए. इन्हीं की बदौलत गुलाम मोहम्मद बख्श बट उर्फ गामा पहलवान ने बचपन में ही अखाड़ों की मिट्टी चूमना शुरू कर दिया और स्थानीय स्तर के खुद से बड़े-बड़े पहलवानों को टक्कर देते हुए मैदान में उन्हें चित्त कर दिया.
 
ज्ञात इतिहास के मुताबिक पहली कुश्ती उन्होंने अमृतसर के एक अखाड़े में 1887 में लड़ी और विजय की झंडी लहराई. मुकाबिल पहलवान नासर खान ने उनके मैदान में उतरने को पहले मजाक समझा, लेकिन जल्द ही समझ में आ गया कि वह भविष्य के एक बड़े पहलवान से टक्कर ले रहे हैं. गामा पहलवान ने उन्हें मिनटों में चित्त कर दिया और उनकी वाहवाही चौतरफा हुई. बाद की पीढ़ियों को उनके कारनामे अविश्वसनीय लग सकते हैं, लेकिन गामा पहलवान का समूचा जीवन अविश्वसनीय वृत्त ही है.
 
सन 1888 में राजस्थान की जोधपुर रियासत में एक बड़ा कुश्ती मेला आयोजित किया गया था, जिसमें 400 से भी ज्यादा पहलवानों ने हिस्सा लिया था. सब के सब अपने-अपने देश और इलाके के नामी पहलवान थे. राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर! गामा की उम्र तब 10 साल थी. इसलिए कुश्ती के अखाड़े को देखतीं तमाम निगाहें नन्हें गामा पहलवान पर टिकीं थीं. यहां गामा पहलवान ने कमाल के जोहर दिखाए.
 
मुतवातर चले मुकाबले में गामा का नाम आला 15 पहलवानों में आ गया. उनकी कम उम्र से रोमांचित अथवा प्रभावित जोधपुर के महाराजा ने उन्हें विजेता घोषित कर दिया. यह खबर दूर-दराज तक फैल गई और महाराजा पटियाला तथा महाराजा दतिया ने उन्हें ‘दरबारी पहलवान’ बना लिया और खुराक का सारा खर्च वहन करने की विधिवत घोषणा की.            
 
जानते हैं गामा पहलवान की खुराक अथवा डाइट क्या थी? कुश्ती के इतिहास में दर्ज है कि गामा पहलवान रोजाना 15 लीटर दूध, 3 किलोग्राम शुद्ध मक्खन, 9 किलोग्राम बादाम, तीन टोकरी फल तथा 10 किलो मटन का सेवन किया करते थे.
 
गामा पहलवान के रिश्ते में लगते एक पोते नासिर भोलू, जो खुद बाद में एक बड़े पहलवान बने, ने इस खुराक की पुष्टि की है. अपनी दैनिक कसरत में वह 40 के करीब पहलवानों के साथ 5,000 बैठकें (उठक-बैठक) और 3,000 दंड (दंडवत होकर) बैठकें किया करते थे. इसके अलावा विभिन्न पहलवानों के साथ कुश्ती करना भी शामिल था.                                   
 
कुश्ती कला के एक नामवर लेखक जॉन लिटिल ने मार्शल आर्ट के सुपरस्टार ब्रूस ली पर एक किताब लिखी है, ‘ब्रूस लीः द आर्ट ऑफ एक्सप्रेसिंग द ह्यूमन बॉडी’. इसमें जॉन लिटल ने एक अध्याय में लिखा है कि ब्रूस ली ने बाद में गामा पहलवान की शिक्षण प्रक्रिया से बाकायदा कई सबक लिए और उनकी कई चीजों को अपने आहार में शामिल किया.
 

बता दें कि यह किताब ब्रूस ली के आईकॉन के अपने नोट्स और रिकॉर्ड पर आधारित है, जिसमें किसी भी किस्म के एक खिलाड़ी के शारीरिक कौशल के निर्माण के दृष्टिकोण का विस्तृत जिक्र किया गया है.                                             

युवावस्था तक आते-आते गामा पहलवान ने हिंदुस्तान के हर नामी पहलवान को शिकस्त दी. अंग्रेज हुकमरान भी उनके कुश्ती कौशल के प्रशंसक अथवा कायल थे और अखाड़ों में उन्हें देखने जाया करते थे. एक अन्य कश्मीरी पहलवान और तब रुस्तम-ए-हिंद का आधिकारिक किताब रखने वाले रहीम बख्श सुल्तानी को भी गामा पहलवान ने धूल चटा दी थी. 

सुल्तानी निर्विवाद भारतीय कुश्ती चैंपियन थे. 7 फुट लंबे रहीम बख्श सुल्तानी मैदान के मामले में 17 साल के गामा से जब अखाड़े में भिड़े, तो लाखों की भीड़ यह नजारा देख रही थी.

गामा पर सुल्तानी ने अपना हर दांवपेंच इस्तेमाल किया. गामा के नाक और कान से खून का फव्वारा फूट पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने बहुचर्चित प्रतिद्वंदी रहीम बख्श सुल्तानी का डटकर मुकाबला किया. उक्त मुकाबला बेशक बेनतीजा रहा, लेकिन तब हिंदुस्तान में गामा पहलवान को किवदंती-सा मान लिया गया और उनके नाम पर कहावतें बननी शुरू हुईं, जो आज तल्क सुनी- सुनाई जातीं हैं.       

गामा पहलवान अल्पायु में ही रहीम बख्श सुल्तानी के अलावा लगभग तमाम नामवर हिंदुस्तानी पहलवानों के मुकाबिल हो चुके थे. हालांकि अभी तक उन्हें रुस्तम-ए-हिंद का खिताब बाकायदागी से नहीं हासिल हुआ था.                       

1910 के बाद गामा ने एक अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में हिस्सेदारी के लिए लंदन यात्रा की. उनके छोटे कद और कम उम्र की वजह से उन्हें हिस्सेदारी करने से रोक लिया गया. वहां उन्होंने खुली चुनौती दी कि वह किसी भी आयु, कद और वजन वर्ग के किन्हीं तीन पहलवानों को महज 30 मिनट में हरा सकते हैं.
 
लंबे इंतजार के बाद आखिरकार गामा पहलवान को एक अति लोकप्रिय अमेरिकी पहलवान डॉक्टर बेंजामिन रोलर से चुनौती मिली. रोलर की पहचान एक दक्ष फुटबॉलर के तौर पर भी थी. गामा पहलवान ने डॉक्टर बेंजामिन रोलर को अखाड़े में दो बार चित किया. पहले बाउट में एक मिनट 40 सेकंड और दूसरे तथा निर्णायक बाउट में 9 मिनट और 10 सेकंड का वक्त लिया. इसके बाद गामा पहलवान को शिरकत के लिए स्वीकृति मिल गई.
 
अगले दिन उन्होंने एक के बाद एक 12 पहलवानों को हराया. जिक्रेखास है कि गामा के समक्ष उस दौरे में सबसे बड़ी चुनौती पोलैंड के विश्व स्तरीय पहलवान और विश्व चैंपियन स्टेनिस्लास जबीस्ज्को थे. इतिहास में दर्ज है कि 10 सितंबर 1910 को दोनों पहलवानों का अखाड़े में आमना-सामना हुआ. मैच में 1 मिनट बीतने के बाद ही गामा ने जबीज्स्को को अपने अनूठे दांवपेंचों से शिकस्त दे दी.
 
ठीक 7 दिन के बाद दोनों पहलवान एक बार फिर आमने-सामने थे. इस मुकाबले में भी जीत का सेहरा भारतीय पहलवान गामा के सिर बांधा गया और उन्हें जॉन बुल बेल्ट और विश्व चैंपियन का टैग दिया गया.                
 
स्टेनिस्लास ताउम्र गामा पहलवान से मिली मात को भूल नहीं पाए. 1927 में पटियाला में वह गामा से फिर भिड़े, लेकिन एक मिनट से भी कम समय में हार गए. इस बहुचर्चित भिड़ंत के बाद गामा पहलवान को ‘टाइगर’ का नाम दिया गया.
 

 
स्विट्जरलैंड के विश्व विख्यात पहलवानों मॉरिस डेरीयाज और जोहान लेंम, जापानी कुश्ती सितारे तारों मियाके, रूसी पहलवान जॉर्ज हैकेन्सचिमिड्स, अमेरिकी पहलवान फ्रैंक गोच ऐसे पहलवान हुए, जिन्होंने अखाड़े में दिग्गज पहलवान गामा का मुकाबला करने का निमंत्रण देने हिम्मत की।तब तक गुलाम मोहम्मद बख्श बट उर्फ गामा पहलवान दुनिया भर में मान्यता हासिल कर चुके थे कि उनकी टक्कर का दूसरा कोई ऐसा पहलवान नहीं था और न ही हुआ!                                   
 
फरवरी 1929 में गामा पहलवान ने जेसी पीटरसन को शिकस्त दी और फिर कुश्ती के अपने सफर को विराम दे दिया. जानकार बताते हैं कि अंतिम मुकाबले के वक्त उनकी उम्र करीब 52 साल की थी. उनकी जबरदस्त शोहरत के मद्देनजर कोई अन्य पहलवान अखाड़े में उनका सामना नहीं करना चाहता था. दूसरे शब्दों में कहें, तो उनका कोई प्रतिद्वंदी ही नहीं था.
 
जब लड़ने के लिए कोई सामने ही नहीं तो लड़ें किससे? कुश्ती की दुनिया में गामा पहलवान जैसा ने कोई पहले था और न आगे जाकर हुआ! सन 1947 में हिंदुस्तान दो मुल्कों भारत और पाकिस्तान में विभाजित हो गया. गामा पहलवान ने पाकिस्तानी पंजाब के लाहौर शहर जाने का फैसला किया. इसलिए भी कि लाहौर और अमृतसर में बेतहाशा समानता है. दोनों की संस्कृति एक सरीखी है. 1947 की बात छोड़िए, 2023 में भी यही आलम है.                              
 
गामा पहलवान ने लाहौर के मोहनी रोड पर अपना ठीया-ठिकाना बनाया. मोहनी रोड एक हिंदू- सिख बहुसंख्या वाला इलाका था, लेकिन विभाजनकारी दंगों की आग में यह इलाका भी बेतहाशा सुलगने लगा, तो गामा पहलवान ने बेशुमार हिंदू- सिखों को आतताइयों से बचाया.
  

 
ऐतिहासिक तथ्य है कि गामा पहलवान और उनके साथी (पहलवान) दिन-रात गश्त करते थे. उस दौरान कई बार वे सशस्त्र भीड़ के मुकाबिल भी हुए. गामा पहलवान को हर कोई जानता था और उन्हें सामने देखकर दंगाई खुद भाग जाते थे. हालात जब ज्यादा संगीन हुए, तब गामा पहलवान ने पाया कि अब लाहौर के मोहनी रोड इलाके में रहने वाले (चंद दिनों में अल्पसंख्यक कर दिए गए) हिंदू-सिखों की हिफाजत वह अपने तईं नहीं कर पाएंगे.
 
उन्होंने स्थानीय हिंदू--सिखों के कई काफिलों को महफूज भारतीय सरहद पर पहुंचाया और सारा खर्च भी खुद वहन किया. हिजरत करने वाले तमाम लोगों को धन के अलावा एक हफ्ते का राशन तथा सामान ढोने के लिए वाहन उपलब्ध कराए. खुद को वह एक सच्चा मुसलमान मानते थे और कुरान शरीफ बेहद अकीदत के साथ पढ़ा करते थे.                           
 
खैर, सदियों से चली आ रही रिवायती कहावत है कि पहलवान का बुढ़ापा बहुत तकलीफदेह होता है. गामा भी इसके अपवाद नहीं थे. उनके पांच बेटों की उनसे पहले मौत हो गई थी और चार बेटियां निकाह के बाद अपने-अपने घर चली गईं. आखरी दिनों में गामा पहलवान को लंबी बीमारी से जबरदस्त मुकाबला करना पड़ा और अंततः इस महान तथा जीवित रहते किवदंती बन चुके पहलवान ने 23 मई 1960 को देह त्याग दी.                                           
 
अब तो आलम बदल गया है, लेकिन पहले गूगल उनके जन्मदिवस पर बाकायदा डूडल बनाकर उन्हें याद किया करता था और दुनिया को याद करवाता था कि इसी धरती पर सचमुच गामा पहलवान हुए हैं!                                 
 
तो यह थी गुलाम मोहम्मद बख्श बट उर्फ गामा पहलवान की कहानी, जिसका जिस्मानी कद महज 5 फुट 7 इंच था और वजन लगभग 150 किलो. मगर उन्होंने कुश्ती की दुनिया पर ऐसा राज किया, जैसा फिर कोई नहीं कर पाया. भारतीय और पाकिस्तानी पंजाब में उनके नाम पर मेले लगते हैं और दुनिया भर के पहलवान उन्हें सजदा करते हैं.