अहमद नदीम कासमी स्मृति दिवस: ‘मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा’

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 11-07-2024
Ahmad Nadeem Qasmi
Ahmad Nadeem Qasmi

 

जाहिद खान

अहमद नदीम कासमी एक हरफनमौला अदीब थे. उनके चाहे अफसाने देख लीजिए, चाहे गजल हों या नज्में, इनमें पंजाब की देहातों की सुंदर अक्कासी दिखलाई देती है. उन्होंने शुरुआत में रूमानी गजलें लिखीं, लेकिन बाद में जिंदगी की तल्ख़ सच्चाईयों को अपने अदब का मौजू़ बना लिया. उनकी शायरी जहां इंसानी दोस्ती का जज्बा जगाती है, तो वहीं उसमें आने वाले कल की खू़बसूरत तस्वीर भी है. अफसाना-निगारी में वे प्रेमचंद के बाद एक बड़े अफसाना-निगार के तौर पर उभरे. वहीं शायरी में उनका अहम कारनामा उर्दू अदब की रिवायत को काइम रखते हुए, उसमें तरक्कीपसंद नजरिया लाना था. वे अपनी रिवायत और मिट्टी से हमेशा जुड़े रहे.

उर्दू अदब की कदीम रिवायत के अलावा उन्होंने जदीद गजल को भी अपनाया, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाया. अहमद नदीम कासमी ने हर अंदाज की नज्में लिखीं. उनके अदबी सरमाये में एक से बढ़कर एक नज्में हैं. अविभाजित भारत में पंजाब प्रांत के अंगह तहसील, जिला खोशाब में 20 नवम्बर, 1916 को एक सूफी परिवार में पैदा हुए अहमद नदीम कासमी ने छोटी उम्र से ही शे’र कहना शुरू कर दिया था. अल्लामा इकबाल, अल्लामा शिबली, मौलाना जफर अली ख़ान, जोश मलीहाबादी के अदबी कारनामों ने उन्हें काफी मुतअसिर किया. अहमद नदीम कासमी ने आगे चलकर गजलें, नज्में लिखना शुरू कर दीं. उनकी ये रचनाएं मुख्तलिफ रिसालों में शाया होने लगीं.

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गजल-नज्म लिखते-लिखते उनकी दिलचस्पी अफसाने में भी पैदा हुई. उनका पहला अफसाना ‘बुत तराश’ साल 1934 में उस जमाने के मशहूर रिसाले ‘हुमायूं’ में शाया हुआ. ये अफसाना काफी पसंद किया गया. सआदत हसन मंटो भी इस अफसाने की तारीफ करने से अपने आप को नहीं रोक पाए. एक-दूसरे के अदब के जानिब यह एहतेराम और तारीफ का जज्बा आगे चलकर दोस्ती में तब्दील हो गया. यह दोस्ती, मंटो की मौत तक बरकरार रही. अफसाना निगारी में मिली इस कामयाबी के बाद अहमद नदीम कासमी ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. थोड़े से ही अरसे में अहमद नदीम कासमी की पहचान तरक्कीपसंद अफसाना निगार के तौर पर बन गई. वे सआदत हसन मंटो, राजिंदर सिंह बेदी और कृष्ण चंदर की सफ में खड़े हो गए. उनकी शुरुआती अफसानों में रूमानियत दिखलाई देती है. एक अलग तरह का रोमांटिसिज्म है.

अपने बगावती और समझौताविहीन तेवरों के चलते अहमद नदीम कासमी को कई मर्तबा जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने इंकलाबी तेवर नहीं बदले. मुल्क के बंटवारे के बाद अहमद नदीम कासमी पाकिस्तान में ही रहे. साल 1948 में लाहौर से उन्होंने ‘नुकूश’ निकाला. आजाद मुल्क में भी अहमद नदीम कासमी की मुश्किलें ख़त्म नहीं हुईं. वामपंथी ख़याल के चलते साल 1951 में पाकिस्तानी हुकूमत ने उन्हें पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत नजरबंद कर दिया. लेकिन हुकूमत का जोर-ओ-जु़ल्म और टेढ़ी निगाह भी उनकी कलम को रोक नहीं पाई. कभी अदब, तो कभी सहाफत के जरिए वे अपना काम, उसी मुस्तैदी से करते रहे.

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सहाफत में अहमद नदीम कासमी की शुरुआत कॉलम निगारी से हुई थी, कुछ अरसे के बाद ही उन्हें ‘इमरोज’ की इदारत मिल गई. उन्होंने छह साल तक इस अख़बार का कामयाबी से संपादन किया. अपने अख़बार में वे पाकिस्तानी हुकूमत की बेख़ौफ होकर सख्त तंकीद किया करते थे. बाद में वे दीगर अख़बारों से भी कॉलम निगार की हैसियत से जुड़े रहे. अहमद नदीम कासमी ने अदबी रिसाले ‘अदब-ए-लतीफ’, ‘सबेरा’, ‘नुकूश’ और ‘फनून’ की एडीटिंग भी की. अपने इन अख़बारों और पत्रिकाओं से उन्होंने अदब को कई बेहतरीन अदीब दिए. उनकी रहनुमाई की. उर्दू अदब में अहमद नदीम कासमी का यह एक बड़ा कारनामा है, जिसे फरामोश नहीं किया जा सकता.

अहमद नदीम कासमी के अफसानों का पहला मजमुआ साल 1939 में, तो गजलों-नज्मों का पहला मजमुआ साल 1942 में प्रकाशित हुआ. उनके ज्यादातर अफसाने देहात के मौजू और किरदारों पर मब्नी हैं. प्रेमचंद ने जहां अपने अदब में उत्तर प्रदेश के ग्राम्य जीवन, किसानों के दुःख-दर्द, आशा-निराशा, अत्याचार, शोषण, उत्पीड़न को विषय बनाया, तो अहमद नदीम कासमी भी पंजाब के किसानों के दुःख-दर्द को अपनी आवाज देते रहे.

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अंग्रेजी साम्राज्यवाद और सामंतवादी निजाम में किसानों का किस तरह से शोषण हो रहा है?, उन्होंने इसे अपने अफसानों के जरिए बतलाया. भारत-पाक बंटवारे का खूनी मंजर और दूसरी आलमी जंग में फौजियों के परिवारों की दुर्दशा अहमद नदीम कासमी ने अपनी आंखों से देखी थी. लिहाजा इन मसलों को जब उन्होंने अपनी कहानियों का मौजू बनाया, तो एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज अफसाने सामने निकलकर आए. यही नहीं हिंदुस्तान से अलग हुए नये मुल्क पाकिस्तान में मुहाजिरों के साथ किस तरह का बर्ताव हुआ, इसे मौजू़ बनाकर भी उन्होंने कई बेहतरीन कहानियां लिखीं. ‘अलहम्द-लिल्लाह’, ‘गंडासा’, ‘परमेश्वर सिंह’, ‘हिरोशिमा के पहले और बाद’ उनकी बेमिसाल कहानियां हैं. अफसाना ‘हिरोशिमा के पहले और बाद’ जंग के खिलाफ लिखा उनका एक अजीमतरीन दस्तावेज है. अफसाने के बैकग्राउंड में दूसरी आलमी जंग के हालात हैं. ‘‘भूख भी तो जंग होती है, गुलामी की भी जंग होती है, इंतजार की भी एक जंग होती है, जंग हर जगह हो रही है, रंगून में भी हो रही है, हमारे गांव में भी हो रही है, यह नित्य और अनादिकालीन जंग.’’

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अहमद नदीम कासमी ने बंटवारे, इक़्ितसादी मसाइल पर बहुत अच्छी कहानियां लिखीं. बंटवारे पर ‘परमेशर सिंह’ उनका बेहतरीन अफसाना है. बंटवारे के पसमंजर में जब सरहद के इस तरफ और उस तरफ लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे थे. ऐसे माहौल में भी परमेशर सिंह इंसानियत का दामन नहीं छोड़ता. अपनी जान की परवाह किए बिना, वह उस बच्चे को पाकिस्तान की सीमा में छोड़ने जाता है, जो बंटवारे की भगदड़ में अपने परिवार से बिछड़ कर, हिंदुस्तान जा पहुंचता है. परमेशर सिंह को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. दूसरी आलमी जंग का दुनिया के कई हिस्सों में असर पड़ा, ख़ास तौर पर भारत पर. हजारों हिंदुस्तानी इस जंग में मारे गए और उनके परिवार तबाह हो गए. अहमद नदीम कासमी उर्दू अदब में अकेले ऐसे अफसाना निगार हैं, जिन्होंने इस मौजू पर अनेक संवेदनशील कहानियां लिखीं. ‘सिपाही बेटा’, ‘बाबा नूर’, ‘आतिशे गुल’ और ‘ममता’ वगैरह जंग के बाद इंसान की जिंदगी में आई अनेक तरह की जंग के बेजोड़ अफसाने हैं.

अहमद नदीम कासमी जितने आला अफसाना निगार थे, उतने ही बेहतरीन शायर भी थे. शायरी में भी उनका कोई जवाब नहीं. अहमद नदीम कासमी इंसान दोस्त शायर थे. उनकी शायरी में इंसानियत और भाईचारे का पैगाम है. ‘‘दावरे-हश्र ! मुझे तेरी कसम/उम्र भर मैंने इबादत की है/तू मेरा नामा-ए-आमाल तो देख/मैंने इंसां से मुहब्बत की है.’’ वहीं नज्म ‘रज्अत परस्ती का नारा’ की शुरुआती लाइनें अहमद नदीम कासमी की शायरी के अंदाज, उनके शालीन लहजे और सोच की बेहतरीन मिसाल है, ‘‘अंधियारे में रहने वालो, अंधियारे के राज न खोलो / कांच से सपने टूट न जाएं, आहिस्ता-आहिस्ता बोलो.’’

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अहमद नदीम कासमी गुलाम मुल्क में अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ अवाम को बराबर बेदार करते रहे. शायरी में कभी मुख़र होकर, तो कभी इशारों में उन्होंने अपनी बात कही. ‘‘हुक्मरानों ने उकावों का भरा है बहुरूप / भोली चिड़ियों को जगाना भी तो फनकारी है / खेत आबाद हैं, देहात हैं उजड़े-उजड़े / इस तफाबुत को मिटाना भी तो फनकारी है.’’ मुल्क का बंटवारा एक बड़ी ट्रेजडी थी. जिससे लाखों लोग प्रभावित हुए. फिरकावाराना दंगों में हजारों लोग मारे गए. इंसानियत और सदियों का भाईचारा शर्मसार हुआ. पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में जब फिरकावाराना दंगे फैले, तो अहमद नदीम कासमी तमाशाई नहीं बने रहे. उन्होंने अपनी नज्मों में इंसानियत मुख़ालिफ इन वहशी हरकतों की सख्त मजम्मत की. नज्म ‘आजादी के बाद’ में उनका दर्द कुछ इस तरह से जबान पर आया, ‘‘रोटियां बोटियों से तुलती हैं, इस्मतों से सजी दुकानों पर / पेट भरने के बाद नाचता है ख़ून का जायका जबानों पर.’’

अहमद नदीम कासमी ने गजल और नज्म दोनों ही अधिकार के साथ लिखीं. उनकी गजलें अपने जमाने में तो मशहूर हुईं, आज भी ये गजल उसी तरह पसंद की जाती हैं. अहमद नदीम कासमी की गजल की मकबूलियत के पीछे सादा अंदाज था. बिना किसी भारी भरकम अल्फाज का इस्तेमाल किए बिना, वे ऐसी बातें कह जाते थे, जो सीधे दिल में उतर जाती हैं. ‘‘कौन कहता है, मौत आएगी तो मर जाऊंगा / मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊंगा.’’

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अहमद नदीम कासमी ने बेशुमार लिखा. नज्म, गजल, रुबाई, कतआ, अफसाने, ड्रामें, मजाहिया कॉलम और सैकड़ों मजामीन. उनकी किताबों की तादाद तकरीबन पचास के आस-पास होगी. ‘चौपाल’, ‘बगोले’, ‘तुलू व गुरुब’, ‘सैलाब’, ‘गरदाब’, ‘आंचल’, ‘आसपास’, ‘कपास के फूल’, ‘दरो-दीवारी’, ‘सन्नाटा’, ‘बाजारे हयात’, ‘बर्गे हिना’, ‘घर से घर तक’, ‘नीला पत्थर’, ‘कोहे पैमा’, ‘पतझड़’ समेत उनके अफसानों की सतरह किताबें और गजलों-नज्मों की ‘रिमझिम’, ‘धड़कनें’ ‘जलाल-ओ-जमाल’, ‘शोला-ए-गुल’, ‘दश्ते वफा’, ‘अर्ज-ओ-समा’, ‘लौह ख़ाक’ समेत आठ किताबें शाया हुई हैं. अहमद नदीम कासमी की कहानियों और शायरी के तजुर्मे देशी जबानों हिंदी, पंजाबी, बंगाली, मराठी, गुजराती, सिंधी के अलावा दुनिया भर की जबानों अंग्रेजी, रूसी, चीनी, जापानी वगैरह में भी हुए हैं. पाकिस्तान के शिखर सम्मान ‘इम्तियाजे पाकिस्तान’ के अलावा उन्हें तमाम अदबी सम्मानों से नवाजा गया. 10 जुलाई, साल 2006 को लाहौर में नब्बे साल की उम्र में अहमद नदीम कासमी ने यह कहकर, इस जहान-ए-फानी से अपनी आखिरी रुख़्सती ली, ‘‘जिंदगी शम्अ की मानिंद जलाता हूँ ‘नदीम’ / बुझ तो जाऊँगा मगर सुबह तो कर जाऊँगा.’’