Abdul Rehman Dar has been making blankets for six decades and said hard work never goes waste
ओनिका माहेश्वरी/ नई दिल्ली
अब्दुल रहमान डार, एक 76 वर्षीय कारीगर, पिछले छह दशकों से कंबल और हाल ही में चावल कुकर कवर बनाने के काम में लगे हुए हैं, जो उनकी पुश्तैनी दुकान की विरासत को जारी रखते हैं.
हालाँकि वह और उसका भाई मिलकर इस व्यवसाय को संभालते थे, लेकिन अब अब्दुल अपने भाई के निधन के बाद से इसे अकेले ही चला रहे हैं. चुनौतियों के बावजूद, अब्दुल को अपने भाई की मौजूदगी का एहसास होता है, क्योंकि वह अपने भाई की सिलाई मशीन को सावधानी से संभाल कर रखता है, जो उनके साझा सफ़र की एक ठोस याद दिलाती है. अपने परिवार का समर्थन करने के लिए दृढ़ संकल्पित, अब्दुल इस सिद्धांत का पालन करता है कि “मेहनत कभी ज़ाया नहीं होती”.
अब्दुल की यात्रा तब शुरू हुई जब उनके पिता का निधन हो गया. फिर उन्होंने अपने भाई के साथ मिलकर बच्चों के लिए कंबल बनाने की अपनी पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ाया. पहले, कंबल जानवरों के फर से बनाए जाते थे. लेकिन जब जानवरों के फर पर प्रतिबंध लगा दिया गया, तो इन कंबलों पर काम करने वाले कारीगर धीरे-धीरे व्यवसाय से बाहर हो गए.
अब्दुल कहते हैं, "आज मुश्किल से 3 या 4 वर्कशॉप बची हैं जो बच्चों के लिए हाथ से कंबल बनाती हैं." अपने भाई की मृत्यु के बाद अब्दुल ने अपनी पैतृक विरासत को बचाने के दृढ़ संकल्प से प्रेरित होकर अकेले ही साहसपूर्वक इस शिल्प को जारी रखा. कश्मीर की शून्य से नीचे की सर्दियों में, जब कई लोग घर के अंदर शरण लेते हैं, अब्दुल दृढ़ निश्चयी हैं और दिन-ब-दिन अपनी दुकान खोलते रहते हैं.
सुबह से शाम तक वह एक परंपरा को बचाने के लिए अथक परिश्रम करते हैं जो समय के साथ धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. वह मुश्किल से हर दिन 100 से 200 रुपये कमा पाते हैं क्योंकि हाथ से बने कंबल इन दिनों मशीन से बने सामानों का मुकाबला नहीं कर सकते. समय बीतने और आधुनिकता के अतिक्रमण के बावजूद, अब्दुल का अटूट समर्पण भविष्य की पीढ़ियों के लिए मार्ग प्रशस्त करता है, जो हमें अपनी विरासत और परंपरा को संरक्षित करने के महत्व की याद दिलाता है.