क्या अब अल्पसंख्यकों के अनुभव बदलेंगे

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 09-06-2024
Will the experiences of minorities change now?
Will the experiences of minorities change now?

 

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अब जब नई संसद आकार ले चुकी है. इन आंकड़ों को गिनने का कोई मतलब नहीं है कि इस संसद में कितने मुस्लिम सांसद होंगे या कितने ने चुनाव लड़ा और कितने जीते. इन सबकी पिछले चुनावों से तुलना भी की जा सकती है, लेकिन अब इसका ज्यादा अर्थ नहीं है.

 इस तरह के आंकड़ें हमें बहुत कुछ बताते जरूर है, मगर एक बार जब संसद गठित हो जाती है तो वह कैसी भी हो देश को उसी से काम चलाना होता है.इस बीच कुछ और आंकड़े भी आए हैं जो लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच रहे हैं.

 सेंटर फाॅर स्टडी आॅफ डेवलपिंग सोसायटी यानी सीएसडीएस ने अपने सर्वे के जरिये जो नतीजे निकाले हैं वे भी एक महत्वपूर्ण कहानी कहते हैं. इसके हिसाब से ज्यादातर मुस्लिम वोटरों ने इंडिया गंठबंधन को वोट दिया, जबकि भारतीय जनता पार्टी को सिर्फ आठ फीसदी मुसलमानों के वोट ही मिले. यह सिर्फ संस्था द्वारा किए गए सर्वे के नतीजे हैं. हकीकत की जमीन पर इस वोटिंग का पैटर्न क्या था हम कभी नहीं जान पाएंगे.

इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि सीएसडीएस एक प्रतिष्ठित संस्था है. उसके सर्वे को टीवी चैनलों के एक्ज़िट पोल की तरह हल्के में भी नहीं लिया जा सकता.इस सर्वे को भले ही पूरी तरह भरोसेमंद न माना जाए फिर भी चुनाव बाद के ज्यादतर विश्लेषण इसी आधार पर हुए हैं.

ज्यादातर विश्लेषकों ने यही कहा है कि उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में अगर भारतीय जनता पार्टी हारी तो इसका एक कारण मुसलमानों के बड़े हिस्से का एक तरफा वोट करना भी था. इस तरह की बातें चुनाव से पहले से ही की जा रहीं थीं.

हालांकि यह भी सच है कि सिर्फ मुस्लिम मतदाताओं की वजह से इतना बड़ा बदलाव आ गया ऐसा नहीं कहा जा सकता. उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान की तमाम रिपोर्ट देखें तो यह साफ हो जाता है कि बहुत सारे तबके किसी न किसी वजह से उस व्यवस्था के खिलाफ हो गए थे जिसे डबल इंजन की सरकार कहा जाता है. इन्हीं में प्रदेश के मुसलमान भी शामिल थे.

आमतौर पर माना जाता है कि लोग अपनी उम्मीदों और अपने अनुभवों के आधार पर वोट देते हैं. दुनिया भर के तमाम अल्पसंख्यकों की तरह ही भारतीय मुसलमानों के पिछले एक दशक के अनुभव कोई बहुत अच्छे नहीं रहे. यही वह समय है जब नफरत बहुत ज्यादा बढ़ी है और इसकी वजह से समाज में एक तरह की आक्रामकता भी आई है.

 समाज में एक डर का माहौल भी बना है. चुनाव प्रचार के दौरान तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें अपने चरम पर नजर आने लगी थीं. जब हम अल्पसंख्यकों के वोटिंग पैटर्न को देखते हैं तो इन सब चीजों का नजरंदाज नहीं कर सकते.

अच्छी बात यह है कि चुनाव नतीजों के बाद इन हालात से मुक्ति की एक उम्मीद भी बनी है. अब जो गंठबंधन सरकार बनी है उसमें दो महत्वपूर्ण घटक आंध्र प्रदेश की तेलुगू देशम पार्टी यानी टीडीपी और बिहार का जनता दल यूनाईटेड यानी जेडीयू हैं.

 जब सरकार बनाने की प्रक्रिया चल रही थी तो जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी ने बयान दिया कि केंद्र की नई सरकार में किसी का मुस्लिम विरोधी एजेंडा नहीं चलने दिया जाएगा.जिस समय केसी त्यागी यह बात कह रहे थे तकरीबन उसी समय एक दूसरा महत्वपूर्ण बयान आया टीडीपी की तरफ से. यह बयान दिया टीडीपी के सर्वेसर्वा चंद्राबाबू नायडू के बेटे और पार्टी के दूसरे महत्वपूर्ण नेता नर लोकेश नायडू ने.

याद कीजिए चुनाव प्रचार के दौरान किस तरह मुस्लिम रिजर्वेशन का मसला विवाद में घसीटा गया था. इसे तुष्टिकरण की मिसाल बताकर कसमें खाईं गईं थीं कि इसे लागू नहीं होने देंगे.  नर लोकेश नायडू ने साफ तौर पर कहा है कि यह किसी तरह का कोई तुष्टिकरण नहीं है.

यह सामाजिक न्याय की उनकी नीति का हिस्सा है . इसे जारी रखा जाएगा.अगर ये राजनेता अपने कमिटमेंट पर कायम रहे तो देश के अल्पसंख्यकों के अनुभव बदल भी सकते हैं.

 (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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