हरजिंदर
अमेरिका पर नफरत की राजनीति शुरू होने का खतरा एक बार फिर मंडरा रहा है. वहां जब 2015 के आम चुनाव हुए थे तो डोनाल्ड ट्रंप ने इसी दांव से रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी हासिल की थी. तब उन्होंने कहा था कि वे अमेरिका में मुसलमानों के आने पर पूरी तरह रोक लगा देंगे। कुछ पाबंदियां उन्होंने लगाई भी थीं.
लेकिन जो बिडेन ने राष्ट्रपति बनते ही उनमें से ज्यादातर पाबंदियों को हटा लिया. लोगों को उम्मीद थी कि इससे नफरत की राजनीति खत्म होने लगेगी. पर यह उम्मीद गलत साबित होती दिख रही है.
अब अगले साल आम चुनाव है और डोनाल्ड ट्रंप फिर से राष्ट्रपति बनने के लिए ताल ठोंक रहे हैं. वे फिर से यह कहने लगे हैं कि मुसलमानों के अमेरिका प्रवेश पर रोक लगा दी जाएगी.
ट्रंप जब सत्ता में आए थे तो उन्होंने कुछ समय के लिए ईरान, इराक, लीबिया, सोमालिया, सूडान, सीरिया और यमन से लोगों के अमेरिका प्रवेश पर पूरी पाबंदी लगा दी थी. तब यह माना गया था कि पाबंदी उन देशों पर लागू की गई है जिनसे अमेरिका के रिश्ते खासे खराब है.
बाद में अमेरिकी अदालत ने इस पाबंदी में कुछ ढील दे दी थी। हालांकि इसके बावजूद यही देखने में आया कि दुनिया भर के मुसलमानों के लिए अमेरिकी आव्रजन अधिकारियों का रवैया काफी खराब हो गया.
जो लोग इसका शिकार बने उनमें सबसे बड़ा नाम भारत के पूर्व राष्ट्रपति डाॅक्टर अब्दुल कलाम का है. वे जब विमान पर चढ़ने लगे तो उनकी तलाशी ली गई. जबकि प्रोटोकाल के हिसाब से यह पूरी तरह गलत और आपत्तिजनक था. भारत सरकार ने इस पर अपना विरोध भी दर्ज कराया था.
इससे भी बुरा बर्ताव साफ्टवेयर कंपनी विप्रो के सर्वेसर्वा अजीम प्रेमजी के साथ किया गया. हालांकि प्रेमजी ने उस समय तो इसे कड़वे घूंट की तरह बर्दाश्त कर लिया और बहुत बाद में यह बात लोगों को बताई.
अजीम प्रेमजी के साथ यह बर्ताव इसलिए भी परेशान करने वाला है कि विप्रो के कारोबार का सबसे बड़ा हिस्सा अमेरिका में ही है. उन्होंने वहां अरबों डाॅलर का निवेश किया हुआ है। इस समय विप्रो की अमेरिका में 40 इकाइयां हैं, जो वहां के 23 प्रदेशों में फैली हैं. इनमें हजारों अमेरिकियों को रोजगार मिला हुआ है.
विप्रो का मामला तो संभल गया, लेकिन अगर यह सिलसिला फिर शुरू होता है तो अमेरिका बहुत से मोर्चों पर खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारता ही दिखेगा.समस्या सिर्फ इतनी ही नहीं है. सोशल मीडिया के आज के दौर में नफरत जब एक जगह से शुरू होती है तो वह पूरी दुनिया में फैलती है और आखिर में सबको नुकसान पहंुचाती है.
यहां फ्रांस के उदाहरण को याद करना जरूरी है. कुछ साल पहले फ्रांस ने एक कानून बनाया कि स्कूल काॅलेजों में छात्र, छात्राएं कोई भी धार्मिक चिन्ह पहन कर नहीं आएंगे. देखने सुनने में यह नियम काफी धर्मनिरपेक्ष लग सकता है,
लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर उन मुस्लिम लड़कियों पर पड़ा जो परंपरागत परिवारों की होने के बावजूद घर से निकल कर आधुनिक शिक्षा ग्रहण करना चाहती थीं. वहां दूसरे धार्मिक प्रतीकों के बजाए ज्यादा हंगामा हिजाब पर हुआ.
फिर यह मामला सिर्फ फ्रांस तक ही नहीं रुका, दुनिया भर में फैला. भारत में तो इसकी गूंज आज भी सुनाई देती है। इस समय जब कर्नाटक में राज्यसभा चुनाव चल रहे हैं तो वहां भी हिजाब पर पाबंदी लगाने का मुद्दा रह-रह कर उठाया जा रहा है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )