हरजिंदर
कुछ घटनाएं इतनी आम हो गई हैं कि अब अखबारों में उन्हें लेकर सुर्खियां भी नहीं बनतीं.ताजा घटना पश्चिम उत्तर प्रदेश के बरेली की है. अभी कुछ दिन पहले इस शहर के पंजाबी पुरा मुहल्ले में एक शख्स ने अपना मकान बेचा. जिसने खरीदा वह एक मुस्लिम परिवार था. एक सामान्य सी बात पर खासा हंगामा हो गया.
यह कहा गया कि इस मुहल्ले में मुस्लिम परिवार को नहीं रहने दिया जाएगा. लोगों ने प्रदर्शन किए और वे स्थानीय अधिकारियों के पास पहंुच गए. जहां उनकी मांग थी कि इस मकान की रजिस्ट्री को रद्द कर दिया जाए.
इन विरोध करने वालों का नजला उस शख्स पर भी गिरा जिसने वह मकान बेचा था. वह मकान बेच चुका है, उसका सामान घर के अंदर है और उसे निकालने नहीं दिया जा रहा. दूसरी ओर मकान खरीदने वाले अब इतने परेशान हो गए हैं कि इसे जल्द ही वे इस मकान को किसी ऐसे शख्स को बेच देना चाहते हैं जिस पर इस मुहल्ले के लोगां को कोई आपत्ति न हो.
बस वे इतना चाहते हैं कि उन्हें मकान की वाजिब कीमत मिले. परेशानी में फंसे हुए मकान की वाजिब कीमत भला कौन देता है.लगभग ऐसी ही एक घटना दो महीने पहले गुजरात के बड़ोदरा में हुई थी.
वहां एक सरकारी आवास योजना के 462 फ्लैटों का आवंटन लाटरी से हुआ था. इनमें से एक फ्लैट एक मुस्लिम महिला के नाम निकला. इसे लेकर भी खासा हंगामा हुआ था. विरोध प्रदर्शन भी हुए थे.
ये कुछ घटनाएं हैं जो अखबारों में थोड़ी सी जगह पा गईं. देश भर में ऐसी घटनाएं आए दिन हो रही हैं. उनकी फेहरिस्त बनाई जाए तो शायद बहुत लंबी होगी.यही चलता रहा तो जल्द ही हमारा देश ऐसी बस्तियों का मुल्क बना जाएगा जहां हर बस्ती की अपनी धार्मिक, सांप्रदायिक या जातीय पहचान होगी.
बाकी लोगों के लिए इनमें से हर बस्ती वर्जित होगी. समाजशास्त्री ऐसी जगहों को घैटो कहते हैं. ऐसी जगह जहां एक ही संस्कृति के लोग अपने आप तक ही सीमित रहते हैं. बाकी नगर से उनका संपर्क बहुत कम हो जाता है. वे बाहरी लोगों को न जानते हैं, न समझते हैं, और अपने जैसा तो खैर नहीं ही मानते हैं.
समुदाय जब अलग-अलग रहते हैं तो एक दूसरे के बारे में उनके पूर्वाग्रह भी काफी ज्यादा होते हैं. इससे ऐसे नगर सामने आते हैं जहां नफरत लगातार बढ़ती जाती है जिसके कभी भी दंगों या वैमनस्य में बदल जाने का खतरा होता है.
समाजशास्त्री मानते हैं कि इससे निपटने का यही तरीका है कि ऐसी बस्तियां बसाई जाएं जहां मिलीजुली आबादी हो. आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने तो यह कानून ही बना दिए हैं कि कालोनियों में एक निश्चित प्रतिशत घर अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित करने होंगे. हमने इस बारे में कभी क्यों नहीं सोचा?
यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो हम यह चाहते हैं कि अल्पसंख्यक, पिछड़े, दलित और जनजाति वगैरह देश की मुख्यधारा में शामिल हों लेकिन दूसरी तरफ हम उनका अपने मुहल्लों और बस्तियों में रहना बर्दाश्त नहीं कर पाते. अगर नफरत से बाहर निकलना है तो इन हालात से बाहर निकलना ही होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)