कुरबान अली
‘सर-जमीन-ए-हिंद पर अक्वाम-ए-आलम के फिराक काफिले बसते गए हिन्दोस्तां बनता गया‘ उर्दू के मशहूर शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी का ये शेर पिछले एक हजार साल की तारीख बयां करता है. ये तारीख मुसलमानों के इस मुल्क में आने और यहीं का होकर रहने का इतिहास है.
यूं तो हिंदोस्तान में मुसलमानों के आने की शुरुआत 720ईसवी में मुहम्मद बिन कासिम के सिंध हमले से शुरू हुई, लेकिन वह बहुत थोड़े अरसे के लिए हिंदुस्तान में रुके . जल्द ही वापस चले गए. लेकिन मुसलमानों के बाकायदा हिंदुस्तान आने का सिलसिला सन 1001में महमूद गजनवी के आने के साथ शुरू होता है. वह एक हमलावर और विशुद्ध रूप से लुटेरा था. इसका मकसद लूटपाट करना था. भारत पर 17बार हमला करने के बाद वो यहां नहीं रुका. लूटपाट कर वापस चला गया.
इसी तरह उसके बाद कई बड़े हमलावर जैसे शहाबुद्दीन गौरी, तैमूरलंग, नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली भी हिंदुस्तान आए. लूटपाट करके चले गए. मगर इन हमलावरों के साथ आए बहुत से मुसलमान और फारस व अरब से आए कई सूफी संत. पर वे यहां आकर यहीं के हो कर रह गए. वापस लौट कर नहीं गए.
उनमें सबसे बड़ा नाम चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े संत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी का है, जो करीब साढ़े 800 बरस पहले हिंदुस्तान आए. अजमेर में चिश्तिया सिलसिले की स्थापना की. पूरे भारतीय उपमहाद्वीप(भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश) में शायद ही कोई ऐसा जिला या राज्य होगा जहां चिश्तिया सिलसिले के किसी सूफी संत की मजार न हो.
महमूद गजनवी के साथ आए मशहूर इतिहासकार अलबरूनी ने ‘किताबुल हिन्द‘ नाम से जो किताब लिखी उसे ‘आईडिया ऑफ इंडिया’ का पहला दस्तावेज कहा जा सकता है. इसमें उन्होंने भारत की सभ्यता, संस्कृति वहां के रहन- सहन और लोगों की बहुत तारीफ की है.
इसके अलावा मशहूर सूफी संत हजरत अमीर खुसरो को अगर ‘हिन्दुस्तानियत’ का जनक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. पिछले 800 बरसों के हिंदुस्तान के इतिहास में अगर किसी एक शख्स ने व्यक्तिगत तौर पर हमारी तहजीब, सभ्यता और संस्कृति को सबसे ज्यादा मालामाल किया और जीनत बख़्शी, तो बिला शुबह, उस शख्सियत का नाम हजरत अबुल हसन यमीनुद्दीन खुसरो है.
उन्हें लोग प्यार से अमीर खुसरो देहलवी और तूती-ए-हिंद के नाम से पुकारते हैं. वो खुद अपने बारे में लिखते हैं- ‘ तुर्क’ हिंदुस्तानियम हिंदवी गोयल जबाब ‘ यानि ‘मैं तुर्क हिंदुस्तानी हूं और हिंदी बोलता और जानता हूं.’ अमीर खुसरो ने इस उपमहाद्वीप को एक नया और बहुत ही खूबसूरत नाम दिया- हिंदोस्तान.शहरियत दी- हिंदी और बहुत ही खूबसूरत जुबान दी- हिंदवी. जो आगे चल कर हिंदी और उर्दू जुबान के नाम से मशहूर हुई.
उर्दू के अजीम शायर जां निसार अख्तर ने 1970में उर्दू शायरी का एक संग्रह ‘हिन्दोस्तां हमारा’ संपादित किया था.इस किताब की भूमिका में वे लिखते हैं- ‘अमीर खुसरो ने खड़ी बोली में अरबी, फारसी और तुर्की के शब्दों की मिलावट का जो सिलसिला शुरू किया, जो पहले रेख््ता कहलाया और फिर एक नई हिन्दोस्तानी जबान को जन्म देने में कामयाब हुआ, जिसे शुरू में हिंदी या हिन्दवी कहा गया और बाद में उर्दू.’ (हिन्दोस्तां हमारा)
अमीर खुसरो ने इस जबान को नया रंग-रूप दिया.एक तरफ जहां वो अपनी शायरी मैं फारसी का इस्तेमाल करते हुए लिखते हैं- ‘जेहाले मिस्कीं मकुन तगाफुल दुराए नैना बनाए बतियां, सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां.” दूसरी तरफ उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा का इस्तेमाल करते हुए ‘छाप तिलक सब ले ली री मोसे नैना मिलाई के’ और ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की’ जैसी शायरी की.
अमीर खुसरो ने मौसीकी को दो ऐसे नायाब तोहफे दिए जिन्हें सितार और तबला कहा जाता है.अमीर खुसरो ने फारसी और हिंदी में शायरी की. ख्याल को तरतीब किया. गजल, मसनवी, कता, रुबाई, दोबैतीऔर तरक्की बंद में अपनी शायरी की. इसके अलावा उन्होंने अनगिनत दोहे , गीत ,कहमुकरियां, दो-सुखने,पहेलियां, तराना और न जाने क्या क्या लिखा. हजरत अमीर खुसरो -‘बाबा-ए-कव्वाली’ भी कहे जाते हैं. उन्होंने मौसीकी के इस सूफी फन को नया अंदाज दिया.
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अमीर खुसरो ने हिन्दोस्तान ख़ुसूसन राजधानी देहली की बहुत तारीफ की है. अमीर खुसरो अवध के बारे में लिखते हैं- ‘वाह क्या शादाब सरजमीं ये अवध की. दुनिया जहान के फल-फूल मौजूद . कैसे अच्छे मीठी बोली के लोग . मीठी व रंगीन तबीयत के इंसान. धरती खुशहाल जमींदार मालामाल. अवध से जुदा होने को जी तो नहीं चाहता मगर देहली मेरा वतन, मेरा शहर,दुनिया का अलबेला शहर.’
मध्य एशिया, तुर्की, अफगान और मंगोल हमलावरों के अलावा जो भी मुसलमान हिंदुस्तान आए. अपनी हुकूमत कायम कीं. मसलन खिलजी वंश, गुलाम वंश, सैयद वंश, तुर्क, अफगान या मुगल सब यहीं के होकर रह गए. उन्होंने इस देश की सभ्यता और संस्कृति को अलग अलग ढंग से बढ़ाया.कपड़े-लत्ते, खानपान, भाषा और रहन सहन के अलावा कुतुबमीनार, लाल किला, ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, जरनैली सड़क (पेशावर से कलकत्ते तक ग्रांड ट्रंक रोड) और बेशुमार मकबरे, सराय और ना जाने क्या क्या दिए.
मुगल बादशाह जहीरुद्दीन बाबर ने इस देश में मुगलिया सल्तनत की स्थापना की. उसके पोते जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर को अकबर-ए-आजम (अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है. अकबर के शासन के अंत में (1605) मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकांश भाग शामिल थे.
उन्हें उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक माना जाता था. अकबर एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू-मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला. उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की.
उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था. उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे. उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था. इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर उन्हांेने बतौर सम्राट शासन किया.अकबर शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा.
उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफी रुचि दिखाइ. उसके किले की भित्तियां सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी हैं. मुगल चित्रकला का विकास करने के साथ उन्होंने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया. अकबर को साहित्य में भी रुचि थी. अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद करवाया.
अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर बनवाया. बाद में पड़पोते दारा शिकोह ने उपनिषदों और कई अन्य धार्मिक ग्रंथों का फारसी में अनुवाद कराया. दारा के भाई औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य की सीमाएं बढ़ाईं. हालांकि, उसकी धार्मिक नीति की काफी आलोचना होती है.
इस तरह हम देखें तो मुगलों के लगभग सवा तीन सौ बरस के कार्यकाल में भारत ने बेइंतहा तरक्की की. पूरी दुनिया में सोने की चिड़िया से मशहूर हुआ. इसी दौरान मीर तकी मीर, गालिब और मीर अनीस जैसे शायर हुए, जिन्हें दुनिया भर में सम्मान के साथ याद किया जाता है. ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ लिखने वाले अल्लामा इकबाल ने अपने इस वतन के लिए लिखा-’ खाक-ए-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता लगता है.’
19 वीं सदी के महान समाज सुधारक और शिक्षा विद सर सय्यद अहमद खां ने एक बार कहा था-‘ भारत एक खूबसूरत दुल्हन की तरह है और हिंदू, मुसलमान उसकी दो आंखें हैं. अगर एक आख भी खराब हो गई तो दुल्हन बदसूरत हो जाएगी. आधुनिक भारत में सय्यद अहमद खां ने मुसलमानों में राष्ट्रीयता का जो भाव पैदा किया उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं.
मुसलमानों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था- क्या तुम यहां का पानी नहीं पीते. यहां पैदा नहीं हुए. यहां का अन्न नहीं खाते और यहां की मिट्टी में दफन नहीं होगा ? क्या तुम किसी और देश के वासी हो ? सैयद अहमद खां ने अलीगढ़ में जिस एमएओ कॉलेज(1875) की स्थापना की. जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के रूप में विकसित हुआ.
उसने मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना शौकत अली(अली बंधु), खान अब्दुल गफ्फार खां, मौलाना हसरत मोहानी, राजा महेंद्र प्रताप, सैफुद्दीन किचलू, जाकिर हुसैन, रफी अहमद किदवई, शेख अब्दुल्ला जैसे राष्ट्रवादी नेता दिए. इसने अली सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी, ख्वाजा अहमद अब्बास, राही मासूम रजा और जावेद अख्तर जैसे शायर और अदीब दिए.
हिंदुस्तानी मुसलमानों को अपने भारतीय होने पर फक्र कोई फैशन स्टेटमेंट नहीं. दरअसल, हिंदुस्तानी मुसलमान देश के अन्य नागरिकों की तरह यहां की हर अच्छाई-बुराई चादर की तरह ओढ़ते हैं. देश के अन्य नागरिकों की तरह वह भी जाति व्यवस्था का हिस्सा हैं.
उनमें भी अन्य धर्मों की तरह अगड़ी और पिछड़ी जातियां हैं. मसलन अशराफ(तथाकथित आला खानदान), अज्लाफ(पिछड़े-पसमांदा) और अरजाल(दलित), लेकिन इतिहास गवाह है कि देश की खातिर अपनी जान की कुर्बानी देने में मुसलमान का कोई भी तबका कभी पीछे नहीं रहा. चाहे वह 1857 का मुक्ति संग्राम हो या आजादी की पहली लड़ाई. महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन हो या आजाद हिंदुस्तान में देश का नवनिर्माण मुसलमान कभी किसी से पीछे नहीं रहा.
पाकिस्तान के निर्माण के समय देश के मुसलमानों के बहुमत ने अपने वतन में रहना तय किया. हालांकि उसके पास वहां जाने का विकल्प था. यही कारण है कि आज दुनिया भर में इंडोनेशिया के बाद मुसलमानों की सब बड़ी तादाद भारत में रहती है.
अपने देश की आन-बान शान, सीमा की हिफाजत, गीत-संगीत, फिल्म, ड्रामा, आर्ट, पेंटिंग, खेल, उद्योग, खेती किसानी या अन्य कोई हुनर का काम हो या देश का मिसाइल और परमाणु कार्यक्रम, हर जगह आपको मुसलमान प्रमुखता के साथ नजर आएंगे.दूसरी ओर अल कायदा, आईएसआईएस जैसे आतंकवादी संगठनों में भारतीय मुसलमानों की तादाद बहुत कम और ना के बराबर है. यही वजह है कि हर भारतीय मुसलमान को अपने हिंदुस्तानी होने पर फक्र है.
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय तक बीबीसी तक जुड़े रहे.)
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