गांव में अब क्यों नहीं दिखता पुस्तकालय

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 24-10-2024
Why is the library no longer visible in the village?
Why is the library no longer visible in the village?

 

rinkuरिंकू कुमारी

भारत सदियों से शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है. दुनिया भर से विद्यार्थी यहां पढ़ने आते रहे हैं. इसमें पुस्तकालय यानि लाइब्रेरी की ख़ास पहचान रही है. ज्ञान-विज्ञान, शोध-अध्ययन व दर्शन की परंपरा को आगे बढ़ाने में पुस्तकालय ने अहम भूमिका निभाई है. यहां केवल किताबों का भंडार नहीं होता है बल्कि यह देश-दुनिया के इतिहास को खुद में समेट कर भावी पीढ़ी के लिए उपयोगी सामग्री, ऐतिहासिक तथ्यों व जानकारियों को भी सुरक्षित रखता है.

कोई देश, प्रदेश या फिर हमारा समाज कितना बौद्धिक, कितना तर्कसंगत और वैज्ञानिक है, इसका आकलन वहां संचालित पुस्तकालयों, उसमें मौजूद पुस्तकों और पुस्तक प्रेमियों की संख्या से होती है. लेकिन अफसोस है कि वर्तमान समय में बिहार में पुस्तकालयों की संख्या उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिए. बिहार में एक समय पुस्तकालयों की संख्या अच्छी-खासी थी.

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कई लाइब्रेरी काफी चर्चित रही हैं, मगर आज इनमें से कई मरणासन्न स्थिति में हैं, तो कई बंद हो चुकी हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में तो इसकी संकल्पना लगभग ख़त्म हो चुकी है.राज्य के बड़े शहरों में एक मुजफ्फरपुर इसका उदाहरण है.

जहां शहरों से लेकर गांवों तक लोगों में लाइब्रेरी के प्रति रूचि खत्म होती जा रही है. शहर स्थित नगर निगम की लाइब्रेरी अब पुस्तक प्रेमियों के लिए नहीं, सिर्फ छात्र-छात्राओं के पठन-पाठन का केंद्र बन कर रह गया है. इतने बड़े शहर में एक भी ढंग का पुस्तकालय सह वाचनालय नहीं है,

जहां जाकर पुस्तक प्रेमी अपनी पसंद की किताबें पढ़ सकें, ताकि साहित्य, संस्कृति व वैश्विक इतिहास, दर्शन से संबंधित किताबें सहज उपलब्ध हो सके. गांधी पुस्तकालय और विभूति पुस्तकालय जैसे छोटे-मोटे इक्के-दुक्के पुस्तकालय जरूर हैं, लेकिन इन्हें समृद्ध पुस्तकालय नहीं कहा जा सकता है.

जबकि ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो स्थिति और अधिक चिंताजनक होती जा रही है. जिला के पारू प्रखंड स्थित चांदकेवारी गांव में एक दशक पहले कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं और पढ़े-लिखे युवा किसानों ने मिलकर ‘किसान लाइब्रेरी सह अध्ययन केंद्र’ खोला था.

इसके लिए घर-घर से अलग-अलग तरह की किताबें दान में लेकर लाइब्रेरी की अलमारी को भरा गया था, लेकिन यह लाइब्रेरी भी अधिक दिन नहीं चली और अंततः बंद हो गयी. इसका एक प्रमुख ग्रामीण लोगों, युवाओं व किसानों में पढ़ने को लेकर कोई खास ललक नहीं दिखी. साथ ही, देखरेख का अभाव संचालन के प्रति उदासीनता भी एक प्रमुख कारण रहा.

वहीं शहर से सटे मुशहरी प्रखंड के रोहुआ राजाराम पंचायत में वैद्यनाथ प्रसाद सिंह पुस्तकालय करीब दो दशकों से चल रहा था. आज यह पुस्तकालय लगभग वीरान हो चुका है. इसे स्थानीय निवासी योगा सिंह ने अपने पिता स्व. वैद्यनाथ प्रसाद सिंह की याद में खोला था.

इस संबंध में स्थानीय निवासी 28 वर्षीय उज्जवल कहते हैं कि "शुरू में हम जब स्कूल आते थे, तो इस लाइब्रेरी में जाकर तरह-तरह की किताबें पढ़ते थे. तब यहां बहुत सारे लोग किताब पढ़ते हुए दिख जाते थे, लेकिन अब यह लाइब्रेरी वीरान पड़ी हुई दिखती है.

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कभी-कभी मुश्किल से यहां कोई दिख जाता है. वह कहते हैं कि लाइब्रेरी का महत्व कम होने के पीछे एक बड़ी वजह मोबाइल है. जिसके कारण किताबों और लाइब्रेरी के प्रति लोगों की रुचि घटी है. युवा दिनभर सोशल मीडिया पर लगे रहते हैं. इसलिए इतनी अच्छी बिल्डिंग व तमाम सुविधाओं के बावजूद लोग लाइब्रेरी में नहीं आते हैं.

इसी लाइब्रेरी के ठीक पीछ रहने वाले देवेंद्र पासवान कहते हैं कि उन्हें पता ही नहीं है कि इसमें कोई पुस्तकें पढ़ने आता भी है या नहीं? पूरे राज्य में ऐसे कितने ही उदाहरण मिल जाएंगे कि अच्छी-खासी चल रही लाइब्रेरी विभिन्न कारणों से अब बंद हो गयी है.

हालांकि मुजफ्फरपुर से सटे वैशाली जिला के लालगंज ब्लॉक स्थित ग्रामीण बाजार में संचालित पुस्तकालय उत्तर बिहार में अपनी एक प्रमुख पहचान बनाये हुए है, जहां किताबों की संख्या काफी है और आसपास के पुस्तक प्रेमी भी यहां आते रहते हैं. लेकिन ऐसी लाइब्रेरी कुछ ही रह गए हैं.

 मार्च 2022 में बिहार विधानसभा पुस्तकालय समिति के अध्यक्ष सह विधायक सुदामा प्रसाद ने राज्य में लाइब्रेरी की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा था कि पचास के दशक में सूबे में 540 सार्वजनिक पुस्तकालय थे.

इनमें से अब सिर्फ 51 ही शेष बचे हैं. रिपोर्ट के अनुसार राज्य के छह जिलों - अरवल, कैमूर, बांका शिवहर, किशनगंज और शेखपुरा के ग्रामीण ही नहीं, बल्कि शहर में भी कोई पुस्तकालय संचालित नहीं है. राजधानी पटना स्थित खुदाबख्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी आज भी राजधानी की शान बनी हुई है और राज्य स्तर पर खासा चर्चित है.

प्रदेश के विश्वविद्यालयों एवं कालेजों की लाइब्रेरी को छोड़ दें, तो राज्य के 38 जिलों और 434 प्रखंडों में सार्वजनिक पुस्तकालयों का अभाव पुस्तक प्रेमियों, साहित्य प्रेमियों और पढ़ाकू लोगों को बहुत चिंतित करता है.

इस संबंध में स्थानीय समाजसेवी विनय कहते हैं कि 'मुजफ्फरपुर शहर में गांधी स्मृति पुस्तकालय, नवयुवक समिति ट्रस्ट पुस्तकालय जैसे दो-तीन पुस्तकालय हैं, लेकिन इसे हम समृद्ध लाइब्रेरी नहीं कह सकते हैं. इनमें कुछ पुरानी किताबें अवश्य हैं, जो या तो संदूक-अलमारी में बंद पड़ी हैं या फिर कुछ किताबों को दीमक चाट गए हैं.

इन्हें अब पढ़ने वाला कोई नहीं है. इसकी देखरेख से लेकर संचालित करने वाला संगठन भी उदासीन है. नगर भवन में भी एक पुस्तकालय है, जिनमें छात्र पढ़ने आते हैं. इस बड़े शहर में एक भी ढंग का पुस्तकालय सह वाचनालय नहीं है. ऐसे में हम ग्रामीण क्षेत्र से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?

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इसका अर्थ यह नहीं है कि लाइब्रेरी खोली ही नहीं जाए, बल्कि इसे पढ़ने वालों से जोड़ने के लिए अब लाइब्रेरी को पुराने ढर्रे से निकालकर नये जमाने के हिसाब से स्मार्ट बनाना होगा. उसे कंप्यूटर व इंटरनेट से जोड़ कर नया कलेवर देना होगा.

वहां कैरियर काउंसलिंग जैसे कार्यक्रम चलाने होंगे. किताबों की दुनिया से कटकर आभासी दुनिया में अपने सपने खोजने वाले युवाओं को इससे जोड़ने की ज़रूरत है. इसके अतिरिक्त हर पंचायत में एक लाइब्रेरी स्थापित की जाए, इसके लिए पंचायत प्रतिनिधियों के साथ साथ गांव के बुद्धिजीवियों को भी आगे आना होगा. तभी हम अपनी नई पीढ़ी को इस समृद्ध विरासत से फिर से जोड़ सकेंगे. (चरखा फीचर्स)