उइगर के बारे में कोई कुछ क्यों नहीं कहता ?

Story by  क़ुरबान अली | Published by  [email protected] | Date 04-09-2021
उइगर
उइगर

 

आखिर क्या वजह है कि चीन के उइगर मुसलमानों के बारे में कोई देश नहीं बोलता ? मुस्लिम देश भी इस मसले पर चुप्पी साधे हैं. हाल में अलकायदा का एक बयान आया है, इसमें फलस्तीन, कश्मीर का जिक्र तो है, पर उइगर मुसलमानों को  गोल कर गए, जबकि यह आतंकवादी संगठन खुद को मुसलमानों का ठेकेदार मानता है. आखिर उइगर के बारे में कोई कुछ क्यों नहीं कहता ? इसकी वजह क्या है ? आइए, वरिष्ठ पत्रकार कुरबान अली के इस लेख से समझने की कोशिश करते हैं इन कारणों के पीछे का सच.

 

qurbanकुरबान अली

पहले जानते हैं उइगर या वीगर कौन हैं ? उइगर मुख्य रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यक तुर्क जातीय समूह हैं, जिसकी उत्पत्ति मध्य एवं पूर्वी एशिया से मानी जाती है.उइगर अपनी स्वयं की भाषा बोलते हैं, जो कि काफी हद तक तुर्की भाषा की तरह है.

वे अपने आप को सांस्कृतिक एवं जातीय रूप से मध्य एशियाई देशों के ज्यादा करीब पाते है. उइगर मुस्लिमों को चीन में आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त 55जातीय अल्पसंख्यक समुदायों में से एक माना जाता है.

चीन के  सरकारी आंकड़े बताते हैं कि उसके शिनजियांग प्रांत में वीगर मुसलमानों की आबादी एक करोड़ 20लाख है, लेकिन वीगर मुसलमानों  का दावा है कि उनकी आबादी करीब दो करोड़ है.

इतिहास बताता है कि शिनजियांग प्रांत, थोड़े समय के लिए आजाद रहा. वर्ष 1949में ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना‘ के गठन के बाद यह चीन का हिस्सा बना दिया गया. तब तक शिनजियांग प्रांत में वीगर बहुसंख्यक थे, लेकिन बाद में वह अल्पसंख्यक बना दिए गए.

तब से  चीन उइगर मुस्लिमों को केवल एक क्षेत्रीय अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता देता है. यह अस्वीकार करता है कि वे स्वदेशी समूह हैं.हालांकि वह तकनीकी रूप से शिनजियांग प्रांत को चीन के भीतर एक स्वायत्त क्षेत्र मानता है.

यह क्षेत्र खनिजों से समृद्ध है. भारत, पाकिस्तान, रूस और अफगानिस्तान सहित आठ देशों के साथ सीमा साझा करता है. उइगर मुस्लिमों की एक महत्त्वपूर्ण आबादी पड़ोसी मध्य एशियाई देशों जैसे तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिजस्तान और कजाखस्तान में भी रहती है.

चीन में 1960के दशक में, कल्चरल रिवॉल्यूशन के नाम पर चली एक राजनीतिक मुहिम के दौरान, वहां सरकार समर्थित छात्रों के गिरोह- ‘रेड गार्ड्स‘ ने देश के कई हिस्सों में इबादतगाहों, खासकर मुसलमानों की मस्जिदों को तहस-नहस किया.

साल 1976में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता माओ त्से तुंग की मौत के बाद एक तरह की खामोशी रही.यही वो समय था, जब सरकार की शह पर चीन के बाकी हिस्सों से लाखों लोगों खासकर हान, बहुसंख्यक जातीय समूह को शिनजियांग प्रांत में लाकर बसाया गया. इससे वीगर मुसलमानों को अहसास हुआ कि वो अल्पसंख्यक बनने जा रहे हैं.

वर्ष 1990 में सोवियत यूनियन के विखंडन से उत्साहित होकर शिनजियांग प्रांत में अलगाववादी समूह बढ़ने लगे.उइगर समुदाय को लगा कि शायद उनकी आजादी का वक्त भी आ गया है. मगर चीन की तत्कालीन सरकार ने उइगर अलगाववादियों के साथ काफी सख्ती की.

उनका दमन किया गया. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, पुलिस घरों पर छापे मारती, धार्मिक नेताओं के साथ युवाओं को चुन-चुनकर गिरफ्तार करती और उन्हें यातना देती. फिर जब साल 2009में राजधानी उरूम्ची में दंगे हुए, जिनमें करीब  200लोग मारे गए, ज्यादातर हान समुदाय के थे, को बड़े पैमाने पर बंदी बनाया गया.

कंटीले तारों के घेरे में कंक्रीट के ढांचे बनने लगे और स्कूल जैसी जगहों को बंदी-गृहों में बदल दिया गया. इसका मकसद वीगर और तुर्की मूल के अन्य जातीय समूहों का दमन करना था. चीन में धर्म को ‘वायरस’ कहा जाता है. वे उइगर मुसलमान जो नमाज रोजे के पाबंद थे, उन्हें पीटा जाता, उन्हें भूखा रखा जाता, छोटे से कमरे में बहुत सारे कैदियों को भर दिया जाता.

जहां सभी एक साथ सो भी नहीं सकते थे. तीन साल पहले संयुक्त राष्ट्र ने उस रिपोर्ट को ‘विश्वसनीय‘ बताया, जिसमें कहा गया था कि चीन के शिनजियांग प्रांत में 10लाख लोगों को बंदी बनाकर रखा गया है.

 

क्या होता है बंदीगृहों में है ?


इनमें पार्टी का प्रोपेगैंडा सीखने के लिए लोगों विवश किया जाता है, जिसे चाइनीज ‘रेड सांग‘ कहते हैं. उसे गाने के लिए मजबूर किया जाता है. वीगर बुजुर्गों के लिए ये सब सीखना बहुत मुश्किल है.

वे  ‘रेड सांग‘ नहीं गा पाते. इसके लिए उन्हें सजा मिलती है. चीन की सरकार पहले तो इस तरह के कैंप या बंदीगृह होने से इनकार करती रही. फिर उसने माना कि कैंप तो हैं, लेकिन वो इन्हें ‘‘रि-एजुकेशन सेंटर्स‘‘ कहती है.

यहां चरमपंथ और मजहबी कट्टरता को खत्म करने के लिए ‘वोकेशनल ट्रेनिंग‘ दी जाती है.वीगर लोगों  के मुताबिक, बंदियों को लंबी हिरासत में रखा जाता है. अगर चीन सरकार के शब्दों में कहें तो जब वो ‘ग्रेजुएट‘ हो जाते हैं, उन्हें चीन के कारखानों में जबरन श्रम कराने के लिए भेज दिया जाता है.‘

पिछले कई वर्षों से वीगर मुसलमानों के लंबी दाढ़ी रखने पर पाबंदी लगी है. कभी उन्हें कुरान ना रखने का आदेश दिया जाता है तो कभी उनका ‘ब्रेनवॉश करने की कोशिश‘ की जाती है. उनकी ‘औरतों की जबरन नसबंदी‘ की जाती .

वीगर मुसलमानों को लेकर चीन पर जब-जब इस तरह के आरोप लगे, उसने हमेशा इसे बेबुनियाद बताया.चीन भले ही इन आरोपों से इनकार करे, लेकिन प्रमाणों के साथ ऐसी कई रिपोर्ट मौजूद हैं, जो वीगर मुसलमानों पर ज्यादती की कहानियां बयां करती हैं.इसके बावजूद वीगर मुसलमानों की दशा पर दुनिया का उतना ध्यान नहीं जाता, जितना की जाना चाहिए.

यहां तक कि वो देश भी जो मुसलमानों के झंडाबरदार बनते हैं, कभी वीगर मुसलमानों के लिए आवाज बुलंद करते नजर नहीं आते. आखिर इसकी वजह क्या है ? वॉशिंगटन के एक थिंक टैंक ‘सेंटर फॉर ग्लोबल पॉलिसी‘ का कहना है कि  पाकिस्तान समेत कई देश चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव‘ प्रोजेक्ट में शामिल हैं.

चीन ये सुनिश्चित करता है कि प्रोजेक्ट में शामिल होने वाले देश, उसके किसी मामले में दखल न दें. चीन अपने  ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव‘ प्रोजेक्ट के जरिए सड़कों और बंदरगाहों का एक ऐसा नेटवर्क तैयार कर रहा है, जो अफ्रीका, यूरोप और एशिया को जोड़कर उनके बीच की दूरियों को खत्म कर देगा.

चीन ने सात साल पहले ये प्रोजेक्ट शुरू किया था, जिसे मूर्त रूप देने के लिए उसने अरबों डॉलर पानी की तरह बहाए हैं. शिनजियांग की सीमा से लगने वाला पाकिस्तान शुरू से इस प्रोजेक्ट का हिस्सा रहा है.

 

वीगर मुस्लिमों पर पाकिस्तान चीनी के साथ

इस वर्ष जून में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने इस्लामाबाद में चीनी पत्रकारों को इंटरव्यू देते हुए कहा था कि शिनजियांग में वीगर मुसलमानों के साथ हो रहे सलूक के बारे में वेस्टर्न और चीनी मीडिया में विरोधाभासी खबरें सामने आती हैं.
 
इमरान खान ने स्पष्ट कहा कि वीगर मुसलमानों पर वे चीन सरकार के स्टैंड को सही मानते है. पाकिस्तान पूरी तरह उसके साथ है.उल्लेखनीय है कि चीन ने पाकिस्तान को अरबों डॉलर कर्ज दे रखा है. चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर सी-पैक की वजह से चीन, पाकिस्तान में कहीं भी आ-जा सकता है. ऐसे में पाकिस्तान, वीगर मुसलमानों के समर्थन में चीन के खिलाफ भला कैसे कुछ कह सकता है ?

इंडोनेशिया, दुनिया में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला देश है, लेकिन वीगर मुसलमानों के मामले में उसका हमेशा यही कहना रहा है कि वो इस बारे में सीधे चीन से बात करता है.सऊदी अरब, खुद को सुन्नी मुस्लिम जगत के नेता के तौर पर पेश करता है.

वहां के शासक अपने आप को मक्का और मदीना की दो पवित्र मस्जिदों के ‘कस्टोडियन‘ मानते हैं, पर सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान चीन के सरकारी टेलीविजन पर कह चुके हैं कि, ‘‘चीन का ये हक बनता है कि वो चरमपंथ के खिलाफ जरूरी कदम उठाए.

अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करे.‘ सऊदी अरब की तरह बाकी मुस्लिम देशों की तरह भी कुछ ‘कूटनीतिक मजबूरियां‘ हैं.तुर्की की बात की जाए, तो माना जाता है कि वीगर मुसलमान सांस्कृतिक रूप से खुद को चीन के बजाए तुर्की के ज्यादा करीब पाते हैं.

पांच साल पहले तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने यह कहा था कि उनके देश में वीगर मुसलमानों का स्वागत है. बाद में तुर्की के स्वर बदल गए.दरअसल, तुर्की भी चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव‘ प्रोजेक्ट में शामिल है.

दिसंबर 2020में चीन ने तुर्की के साथ एक प्रत्यर्पण संधि को मंजूरी दी थी, जिसका उद्देश्य आतंकवादियों सहित अंतर्राष्ट्रीय अपराधियों पर कार्रवाई के लिए न्यायिक सहयोग को मजबूत करना था.यह प्रत्यर्पण समझौता ऐसे समय पर किया गया, जब तुर्की और चीन के बीच आर्थिक एवं वित्तीय संबंध काफी मजबूत हो रहे हैं. चीन, तुर्की के लिए कोरोना वायरस वैक्सीन का प्रमुख आपूर्तिकर्ता भी है.

क्या मुस्लिम आबादी वाले अन्य देश वीगर मुसलमानों के प्रति अपनी चिंता जताते हैं ? इस का जवाब है कि जो  देश  इस्लाम के नाम पर हमेशा बढ़-चढ़कर बातें करते हैं, वो चाहे पाकिस्तान हो, सऊदी अरब या ईरान, ये सभी वीगर मुसलमानों के मुद्दों पर पूरी तरह से चुप्पी साधे हुए हैं.

जब ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्री (ओआईसी) की तरफ से भी कोई देश इस बात को नहीं उठाता, तो बाकी देशों से क्या उम्मीद की जा सकती है!

 

क्या वीगर मुसलमानों का मुद्दा उठाने वाला मुस्लिम बहुल कोई देश नहीं ?

ऐसा नहीं है. मलेशिया इस मामले में दुनिया का एकमात्र अपवाद है. मलेशिया अपने आसपास के देशों के मुकाबले कहीं अधिक विकसित है. वहां पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद चीन के सबसे बड़े आलोचकों में से एक रहे हैं.

उन्हें ये बात समझ आ गई है कि चीन के खिलाफ खड़ा हुआ जा सकता है. मगर मालिशिए के अलावा किसी अन्य मुस्लिम देश ने उइगर मुसलमानों के सवाल पर कोई खास तवज्जो नहीं दी.
दूसरी ओर इस बारे में चीन की रणनीति का दूसरा पक्ष राजनीतिक और कूटनीतिक है.

भरपूर अंतरराष्ट्रीय समर्थन सुनिश्चित करने के लिए चीन ने कई वर्षों तक जमकर मेहनत की है.वाशिंगटन के नेशनल ब्यूरो ऑफ एशियन रिसर्च के मुताबिक  ‘शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन‘ इसका बेहतरीन उदाहरण है.
 
शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन साल 2001में बनाया गया था. इसका मुख्य उद्देश्य अलगाववाद, अतिवाद और आतंकवाद से लड़ना बताया गया था. इस संगठन का बुनियादी सिद्धांत ये है कि कोर-मेंबर्स रूस, चीन, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान आपस में सुरक्षा-संबंधी सहयोग करते हुए एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देंगे.
 
इसका सीधा मतलब है कि शिनजियांग से जिन देशों की सीमा लगती है, वो वीगर मुसलमानों के मामले में चीन से कुछ नहीं कहेंगे.शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन के लिए खतरों की कोई तय परिभाषा नहीं है, इसलिए वीगर मुसलमानों को खतरा बताने में चीन को परेशानी नहीं हुई.

सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों के खिलाफ चीन का यह नायाब तरीका है. अंतरराष्ट्रीय दबाव और प्रतिबंधों से निपटने के लिए चीन को इन देशों की जरूरत होती है. इसी तरह जब बाकी देशों को अपने यहां बागियों से निपटना होता है, जिन्हें वो आतंकवादी गुट कहते हैं, तब चीन उनकी मदद करता है.

चीन का यह नेटवर्क कुछ साल पहले तब कारगर नजर आया, जब वीगर मुसलमानों से सहानुभूति रखने वाले देशों ने संयुक्त राष्ट्र को एक पत्र लिखा.तीन वर्ष पहले अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और जर्मनी की अगुआई में 22देशों के एक समूह ने पत्र लिखकर शिनजियांग में मानवाधिकारों के उल्लंघन का मुद्दा उठाते हुए चीन की आलोचना की .

इसके जवाब में जो पत्र लिखा गया, उस पर 50देशों के दस्तखत थे जिनमें सूडान, ताजिकिस्तान, जिबूती, यमन, कुवैत, म्यांमार जैसे देश शामिल थे. इस प्रकार चीन को घेरने की कोशिश नाकाम रही. कूटनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक  ‘सरकार जिसे आतंकवादी कहे, उस पर आतंकवादी का ठप्पा आसानी से लग जाता है‘. चीन अपनी इस  राजनीति में अब तक कामयाब रहा है.

गौरतलब है कि अलकायदा जैसा आतंकवादी संगठन जो पूरी दुनिया में इस्लामी हुकूमत कायम करना चाहता है, वह भी उइगर मुसलमानों के बारे में कुछ नहीं बोलता. हाल में तालिबान को भेजे बधाई संदेश में अल कायदा ने कहा कि ‘इस्लामिक उम्माह को अफगानिस्तान में अल्लाह की दी गई आजादी मुबारक.’  इस संदेश में उसने लिखा, ‘ओ अल्लाह, लेवंत, सोमालिया, यमन, कश्मीर और दुनिया के अन्य इस्लामी जमीनों को इस्लाम के दुश्मनों से आजाद करा. ओ अल्लाह, दुनिया भर में मुस्लिम कैदियों को आजादी दिला.

अल कायदा ने अफगानिस्तान पर तालिबान की जीत को ‘यूरोप और पूर्वी एशिया में जनता के लिए अमेरिकी आधिपत्य की बेड़ियों से मुक्त होने का अवसर‘ बताया. उसने कश्मीर, फिलिस्तीन, मघरेब (उत्तर पश्चिमी अफ्रीका) को ‘इस्लाम के दुश्मनों के चंगुल‘ से ‘मुक्ति‘ दिलाने की भी बात कही.

अपने बधाई संदेश में अलकायदा ने कहा है, ‘‘फिलिस्तीन को जायोनी कब्जे से और इस्लामिक मघरेब को फ्रांसीसी कब्जे से मुक्त किया जाए. लेकिन चीन के शिनजियांग में उइगर मुसलमानों के मानवाधिकारों के हनन के बारे में उसने एक शब्द नहीं कहा.हैरानी की बात ये है कि दुनिया भर के मुस्लिम कैदियों की बात करने पर अलकायदा को उइगर मुसलमानों की याद नहीं आई. उइगर मुसलमानों के बारे में अलकायदा के कुछ नहीं बोलता.  

कुछ रक्षा विश्लेषकों का कहना है कि अलकायदा हों या तालिबान वे चीन से डरते है, क्योंकि चीन से न केवल उन्हें आर्थिक मदद मिलती है. हर तरह से उनको प्रोत्साहन भी मिलता है. चीन की वजह से इन आतंकी संगठनों के पास संसाधन की कोई कमी नहीं.वे कहते हैं इस सबके बदले में चीन, अफगानिस्तान के संसाधनों का इस्तेमाल अपने हक में करना चाहता है.

उसकी मंशा अफगानिस्तान के लीथियम पर पूरा कब्जा करने की है. वह अफगानिस्तान में भारी निवेश करने की योजना है. चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर को वह ईरान तक ले जाना चाहता है. इस काम में उसे अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों सरकारों का सहयोग चाहिए.

तालिबान ने चीन से उइगर मुसलमानों के बारे में बात नहीं करने का वादा किया है, इसलिए अलकायदा भी नहीं कर रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और बीबीसी में रहते अफगान और इराक युद्ध कवर कर चुके हैं)