कौन है पसमांदा मुसलमान और उन्हें क्यों चाहिए मदद

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 23-05-2023
कौन है पसमांदा मुसलमान और उन्हें क्यों चाहिए मदद
कौन है पसमांदा मुसलमान और उन्हें क्यों चाहिए मदद

 

डॉ. फैयाज अहमद फैजी

यह एक सामाजिक सच्चाई है कि भारत का मुस्लिम समाज एक समरूप समाज नहीं है, बल्कि यहां साफ तौर से बाहर से आए हुए विदेशी और देशी मुसलमान का विभेद है. इस्लामी फिक्ह (विधि) और इस्लामी इतिहास की किताबों में भी अशराफ, अजलाफ और अरजाल का वर्गीकरण मिलता है.

अशराफ जो शरीफ (उच्च) शब्द का बहुवचन है, जिसका एक बहुवचन शोरफा भी होता है, जिसमें अरब, ईरान और मध्य एशिया से आए हुए सैयद, शेख, मुगल, मिर्जा, पठान आदि जातियां आती हैं, जो भारत में शासक रहीं हैं.

जल्फ (असभ्य) का बहुवचन अजलाफ है, जिसमें अधिकतर कामगार या शिल्पकार जातियां आती हैं, जो अन्य पिछड़े वर्ग में समाहित हैं. अरजाल  रजील (नीच) का बहुवचन है, जिसमें अधिकतर साफ-सफाई का काम करने वाली जातियां हैं.

अजलाफ और अरजाल को सामूहिक रूप से पसमांदा (जो पीछे रह गए हैं) कहा जाता है, जिसमें मुस्लिम धर्मावलंबी आदिवासी (बन-गुजर, सिद्दी, तोडा, तड़वी, भील, सेपिया, बकरवाल), दलित (मेहतर, भक्को, नट, धोबी, हलालखोर, गोरकन) और पिछड़ी जातियां (धुनिया, डफाली, तेली, बुनकर, कोरी) आते हैं.

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यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बाहर से आए हुए शासक वर्गीय अशराफ मुसलमानों द्वारा भारतीय मूल के देशज पसमांदा मुसलमान, के साथ मुख्यतः नस्लीय और सांस्कृतिक आधार पर भेदभाव किया जाता रहा है.

भारतीय मुसलमानों के साथ यह भेदभाव शिक्षा से लेकर राजनीति तक हर स्तर पर था. विशेष रूप से अशराफ मुस्लिम शासन काल में यह अपने चरम पर था. जहां उन्हें शासन-प्रशासन में उच्च स्तर पर पहुंचने नहीं दिया जाता था और अगर कोई भूले-भटके पहुंच भी गया, तो उसे निकाबत विभाग द्वारा बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था.

ज्ञात रहे कि निकाबत विभाग का काम शासन प्रशासन में नियुक्ति के लिए जाति एवं नस्ल की जांच करना होता था. मुगलों के दौर में भी पसमांदाओं बस्ती के बाहर रखने और शिक्षा से दूर रखने का शासनादेश था. सजा और जुर्माने में भी नस्लीय और जातीय विभेद और भेदभाव कानून-सम्मत था.

पूरे अशराफ मुस्लिम शासन काल में सैय्यद जाति को विशेषाधिकार प्राप्त था और उन्हें किसी भी प्रकार के टैक्स से आजादी हासिल थी. यहां तक कि सैयद को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता था.

इस मामले में केवल ग्यासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद बिन तुगलक का शासनकाल ही इसका अपवाद था. उपर्युक्त वर्णित ऐतिहासिक भेदभाव के कारण देशज पसमांदा तरक्की की दौड़ में पिछड़ते चले गए. प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग), मंडल आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग और सच्चर समिति तक ने अपने रिपोर्टों में इस पिछड़ेपन को रेखांकित किया है.

इसीलिए भावनात्मक और जज्बाती मुद्दों से हटकर, रोजी-रोटी, सामाजिक बराबरी और सत्ता में हिस्सेदारी की मूल अवधारणा के साथ पसमांदा आंदोलन ने इस्लाम / मुस्लिम समाज में व्याप्त नस्लीय एवं सांस्कृतिक भेदभाव, छुआ-छूत, ऊँच-नीच, जातिवाद को एक बुराई मानते हुए इसे राष्ट्र निर्माण में एक बाधा के रूप में देखते हुए, इसका खुलकर विरोध कर मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की स्थापना पर बल देता आया है.

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मुस्लिम समाज मे जहां एक ओर शासक वर्गीय अशराफ मुसलमान (सैयद, शेख, मुगल, पठान) अपने आपको दूसरे अन्य मुसलमानो से श्रेष्ठ नस्ल का मानते हैं, वहीं दूसरी ओर देशज पसमांदा (आदिवासी, दलित और पिछड़ी) जातियों जैसे वनगुजर, महावत, भक्को, फकीर, पमारिया, नट, मेव, भटियारा,हलालखोर (स्वच्छकार), भिश्ती, कंजड़, गोरकन, धोबी, जुलाहा, कसाई, कुंजड़ा, धुनियां आदि को अपने से कमतर मानते आए हैं.

यही नहीं इन जातियों के नाम सिर्फ नाम नहीं, बल्कि गालियाँ और अपमानसूचक शब्द बन गए हैं. इस निरादर की भावना के साथ-साथ अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की सभी हिस्सेदारी अशराफ की झोली में चली जाती है, जबकि पसमांदा की आबादी कुल मुस्लिम आबादी का 90 प्रतिशत है.

लेकिन सत्ता में चाहे वो न्यायपालिका, कार्यपालिका या विधायिका हो या मुस्लिम कौम के नाम पर चलने वाले इदारे यानी संस्थान हो, आदि में पसमांदा की भागीदारी न्यूनतम स्तर पर है.

अब तक के लोकसभा सदस्यों के मुस्लिम प्रतिनिधियों में अशराफ अपनी संख्या के दुगने से भी अधिक भागेदारी प्राप्त किये हुए है, जबकि पसमांदा अपनी संख्या के अनुपात में लगभग ‘नहीं’ के बराबर हैं.

यह बात अब साफ हो चुकी है कि अशराफ वर्ग ने अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर पसमांदा की भीड़ दिखा कर सिर्फ अपना हित साधता रहा है.

मजहबी पहचान की साम्प्रदायिक राजनीति शासक वर्गीय अशराफ की राजनीति है, जिससे वो अपना हित सुरक्षित रखता है. अशराफ सदैव मुस्लिम एकता का राग अलापता है. वह यह जनता है कि जब भी मुस्लिम एकता बनेगी, तो अशराफ ही उसका लीडर बनेगा. यही एकता उन्हें अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक बनाती है, जिसकी वजह से अशराफ को इज्जत, शोहरत, पद और संसद, विधानसभाओं में सम्मानजनक स्थान मिलता है. मुस्लिम एकता अशराफ की जरूरत है और पसमांदा एकता वंचित पसमांदा की जरूरत है. अगर पसमांदा एकता बनती है, तो पसमांदा को भी ऐसे लाभ मिल सकते हैं.

इस देश में बसने वाले लगभग 13 से 15 करोड़ की जनसंख्या वाले देशज पसमांदा समाज की मुख्य धारा से दूरी किसी भी रूप में देश और समाज के हित में नहीं है. इसलिए इन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान देते हुए उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए :

मुसलमानों द्वारा मुसलमान एवं अल्पसंख्यक के नाम पर चलाये जाने सभी संस्थाओं एवं संगठनों जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, वक्फ बोर्ड, बड़े मदरसे, इमारते शरिया, मिल्ली काउंसिल, मजलिसे मुशवरात, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, इंट्रीगल यूनिवर्सिटी आदि में पसमांदा की आबादी के अनुसार उनका कोटा निर्धारित कर आरक्षण की व्यवस्था किया जाय.

पसमांदा को राजनैतिक भागेदारी सुनिश्चित करने के लिए सभी राजनैतिक पार्टियां लोक सभा, विधान सभा, ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत, जिला पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम चुनावों में उनकी आबादी के अनुपात में चुनाव में टिकट देना सुनश्चित करें.

केंद्र और राज्य की ओबीसी आरक्षण कम से कम तीन वर्गों (अन्य पिछड़ा, अति पिछड़ा, सर्वाधिक पिछड़ा) में बांटकर पसमांदा जातियों को अतिपिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग में समाहित किया जाए. ताकि कमजोर पसमांदा जातियों को भी आरक्षण का लाभ मिल सके. साथ ही ओबीसी के केंद्र और राज्य सरकार की लिस्ट से छूट चुकी जातियों की पहचान करके संबंधित सूची में शामिल किया जाये.

धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के आधार पर संविधान की धारा 341 पर 1950 के राष्ट्रपति महोदय के आदेश के पैरा 3 को समाप्त कर सभी धर्मो के दलितों के लिए एक समान रूप से सभी स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था किया जाये.

बन गुज्जर, भील, बकरवाल और शेपिया आदि जनजाति की तरह पसमांदा समाज से आने वाले अन्य अनुसूचित जनजातियों की भी पहचान कर केंद्रौर राज्य के एसटी आरक्षण में शामिल किया जाये.

केंद्र एवं राज्य सरकारों के अधीन पिछड़ा वर्ग आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग में पसमांदा समाज का एक सदस्य स्थायी रूप से नामित किया जाये.

केंद्र एवं राज्य सरकारों के अधीन सभी अल्पसंख्यक प्रतिष्ठानों एवं संस्थानों में पसमांदा की भागीदारी उनकी संख्या के अनुसार सुनिश्चित किया जाये.

अल्पसंख्यकों के विकास एवं कल्याणकारी योजनाओं के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा आवंटित बजट में पसमांदा की आबादी के अनुपात में पसमांदा के लिए बजट आरक्षित किया जाये.

अल्पसंख्यकों के शिक्षा के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे लोक कल्याणकारी योजनाओं में भी पसमांदा के जनसंख्या के अनुसार सीट एवं छात्रवृति निर्धारित किया जाये.

वक्फ विभाग समाप्त कर उसकी सम्पत्तियों को सरकार अपने अधीन कर मुसलमानों के वंचित एवं शोषित वर्गों (देशज पसमांदा) के हित में इस्तेमाल करें.

पसमांदा के साथ किसी भी तरह के जातीय / नस्लीय भेदभाव अपशब्द पर एससी एसटी एक्ट के तहत कानूनी कारवाही सुनिश्चित किया जाये.

(लेखक, अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं.)