हरजिंदर
इन दिनों जिस तरह से नफरत का माहौल जिस तरह रह-रह कर उभरता है उसका एक शिकार उर्दू भी हो रही है. आपको अक्सर ऐसे लेख और टिप्पणियां मिल जाएंगी जिनमें उर्दू को श्रद्धांजलि दी जाती है. अभी हाल ही में एक खबर आई कि उत्तर प्रदेश सरकार ने मदरसों को दी जाने वाली आर्थिक मदद बंद करने का फैसला किया है तो सबसे पहली ंिचंता उर्दू को लेकर ही सुनाई दी.
यह बात भी इन दिनों एक बार फिर कही जाने लगी है कि उर्दू को अगर जिंदा रखना है तो उसे देवनागरी में लिखना शुरू कर देना चाहिए.दिलचस्प बात यह है कि उर्दू को लेकर जो बातें कहीं जाती हैं एक समय तक तकरीबन वे ही सारी बातें हिंदी को लेकर भी कही जाती रही हैं.
एक दौर में कुछ लोग काफी गंभीरता से यहां तक कहा करते थे कि अगर हिंदी को जिंदा रखना है तो उसे रोमन लिपी में लिखना शुरू कर देना चाहिए, लेकिन कुछ ही समय में इसका उलटा हुआ हिंदी बहुत से मोर्चों पर लगातार मजबूत होती गई. पिछले कुछ साल में यह मजबूती काफी तेजी से बढ़ी है.
हिंदी क्यों लगातार मजबूत हो रही है इसके बारे में पत्रकार और कार्टूनिस्ट राजेंद्र धोड़पकर एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं. उनका कहना है कि हिंदी मूल रूप में बाजार में विकसित हुई भाषा है और खासकर उदारीकरण के बाद जिस तरह से बाजार का विकास हुआ है उसी के साथ हीं हिंदी भी तेजी से बढ़ी है। इसी दौरान हिंदी ने मीडिया में भी अपनी बढ़त काफी तेजी से बनाई है.
हिंदी ने जो रास्ता अपनाया उर्दू भी ठीक उसी रास्ते को अपना कर आगे बढ़ सकती है यह कहना शायद पूरी तरह सही नहीं होगा, लेकिन हिंदी को पिछले कुछ दशक में मिली तरक्की की तह में जाकर उर्दू के लिए कुछ सबक जरूर हासिल किए जा सकते हैं.
एक तो हिंदी ने खुद को भाषा के परंपरागत रास्ते से निकाल कर नए जमाने की रफ्तार से जोड़ा. तमाम दूसरी बातों के अलावा हिंदी ने वह रास्ता अपनाया जिस पर चलकर इस भाषा को जानने, पढ़ने और लिखने वालों के लिए रोजगार के नए अवसर उपलब्ध हुए.
सही या गलत उर्दू के साथ यह हुआ है कि पिछले एक लंबे दौर में इसे पूरी तरह भारत के मुसलमानों के साथ जोड़कर देखा जाने लगा है, जबकि पहले यह इस तरह की भाषा नहीं थी. इस सोच ने उर्दू को एक हद से आगे बढ़ने नहीं दिया. उर्दू को इस जड़ता से निकाले बिना आगे के रास्ते नहीं बनेंगे। तभी वह अपने पांवों पर भी खड़ी होगी.
कोई भी भाषा जब अपने पांवों पर खड़ी हो जाती है तो फिर इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि उसके स्कूलों को सरकारी मदद मिल रही है या नहीं.अभी तो हालत यह होती जा रही है कि मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों के बच्चे भी अब उर्दू पढ़ने की जरूरत नहीं समझते.
इसे हमें एक अलग संदर्भ से भी देखना होगा. पिछले दिनों जेजी हाॅल का एक लेख छपा था. अपनी पड़ताल में उन्होंने पाया कि पश्चिमी देशों में रहने वाले अरब मूल के युवा और बच्चे अब अरबी नहीं पढ़ना चाहते. हालांकि वह संदर्भ थोड़ा अलग है लेकिन समस्या तकरीबन एक सी ही है.किसी भी भाषा को आगे बढ़ाने के लिए हमें उसे उस रास्ते पर तो ले ही जाना होगा जहां उसमें रोजगार कि अवसर पैदा हों.
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )