हरजिंदर
माॅब लिंचिंग यानी भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार दिए जाने की घटनाएं क्या पिछले कुछ दिनों में बढ़ गई हैं. हैदराबाद के नेता और सांसद असद्दुदीन ओवेसी ने दावा किया है कि चार जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने के बाद अल्पसंख्यकों के खिलाफ होने वाली हिंसा और माॅब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ी हैं.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी ऐसा ही कहा है.एक संगठन एसोसिएशन फाॅर प्रोटेक्शन आॅफ सिविल राइट ने अपनी रिपोर्ट में न सिर्फ यह बात दोहराई है बल्कि इसके आंकड़ें भी दिए हैं. इस संगठन का कहना है कि चार जून से दो जुलाई तक देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ लिंचिंग की आठ और भीड़ हिंसा की छह घटनाएं हुईं.
कुछ वेबसाइट में इसे लेकर रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई हैं. हालांकि इसी बीच ऐसी रिपोर्ट भी सामने आई हैं जिनमें इन दावों को गलत बताया गया है. ऐसी घटनाओं को चुनाव नतीजों से जोड़कर देखने पर भी सवाल उठाए गए हैं, लेकिन ये सारी घटनाएं हुईं ही नहीं ऐसे खंडन भी सामने नहीं आए हैं.
इसके तुरंत बाद ही पश्चिम बंगाल से जो खबरें आई हैं वे कहीं ज्यादा परेशान करने वाली हैं. जहां दो हफ्ते में माॅब लिंचिंग की 12 घटनाएं दर्ज की गई हैं। इन घटनाओं का विस्तृत ब्योरा मीडिया में हर जगह दिखाई दिया है.
मीडिया के साथ ही राजनीति में इन घटनाओं को तूल भी काफी दी गई है. हालांकि ये सारी घटनाएं अल्पसंख्यकों के खिलाफ लिंचिंग की नहीं हैं. कुछ मामलों में चोरी के आरोप में भी लोगों को भीड़ ने पीटा है.
लेकिन अनुभव यही कहता है कि एक बार जब भीड़ कानून अपने हाथ में लेती है तो इसका सबसे ज्यादा शिकार दलित, अल्पसंख्यक और कमजोर तबकों के लोग ही होते हैं.ऐसी घटनाओं का पश्चिम बंगाल में होना कई और बातें भी कहता है.
पश्चिम बंगाल में एक ऐसी सरकार है जो धर्मनिरपेक्ष होने का दंभ भरती है. जिसके वोट बैंक में अल्पसंख्यकों के लिए खास जगह है. अगर वहां भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं तो इसका अर्थ है कि माॅब लिंचिंग का जो मौजूद ट्रेंड है पूरे देश में सभी तरह के और लगभग सभी तरह के दलों के शासन में इस तरह की हिंसा हो रही है.
पश्चिम बंगाल एक ऐसा राज्य है जहां 2019 में माॅब लिंचिंग के खिलाफ एक विधेयक विधानसभा में पारित किया गया था. यह बात अलग है कि वह विधेयक कभी कानून में नहीं बदल सका क्योंकि उसे राज्यपाल से इजाजत ही नहीं मिली. राज्यपाल ने उसे कई तरह के स्पष्टीकरण और कानूनी व्याख्या के लिए केंद्र सरकार के हवाले कर दिया.
कुछ खबरों में यह भी कहा गया है कि इस विधेयक को लेकर सारा विवाद इस बात को लेकर है कि लिंचिंग के लिए अधिकतम सजा आजीवन कारावास हो या फिर मृत्युदंड। सच जो भी हो बिल फिलहाल लटका हुआ है.
जब यह विधेयक विधानसभा में पारित हुआ था तो उस समय जगदीप धनकड़ राज्य के राज्यपाल थे. उसके बाद वे देश के उप-राष्ट्रपति बन गए. उसके बाद सीवी आनंद बोस राज्य के राज्यपाल बने लेकिन माॅब लिंचिंग के उस विधेयक का उद्धार नहीं हुआ.
लेकिन असल सवाल यह है कि यह विधेयक अगर कानून में बदल भी जाता है तो भी क्या समस्या पर काबू पाया जा सकेगा ?इसकी उम्मीद कम ही है। खासकर इसलिए भी इस तरह की हिंसा के पीछे जो नफरत का माहौल पिछले कुछ समय में तैयार हुआ है उसका फायदा सभी राजनीतिक दल सीधे तौर पर या फिर घुमा-फिरा कर उठाना चाहते हैं.
इसकी जड़ में जो नफरत है उसे खत्म करने की कोशिश सभी को मिलकर करनी होगी. यह ऐसा काम है जो फिलहाल कोई नहीं कर रहा. जब तक यह नहीं होगा इस तरह की खबरें आती रहेंगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)