यूक्रेन में इतने बड़े जोखिम से क्या मिलेगा रूस को ?

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 04-03-2022
यूक्रेन में इतने बड़े जोखिम से क्या मिलेगा रूस को ?
यूक्रेन में इतने बड़े जोखिम से क्या मिलेगा रूस को ?

 

pramodप्रमोद जोशी

यूक्रेन में लड़ाई को एक हफ्ते से ज्यादा समय हो गया है.रूसी सेनाएं राजधानी कीव और खारकीव जैसे शहरों तक पहुँच चुकी हैं.पूर्व के डोनबास इलाके पर उनका पहले से कब्जा है.बावजूद इसके उसकी सफलता को लेकर कुछ सवाल खड़े हुए हैं.रूसी सेना का कूच धीमा पड़ रहा है.इन सवालों के साथ मीडिया की भूमिका भी उजागर हो रही है.पश्चिम और रूस समर्थक मीडिया की सूचनाएं एक-दूसरे से मेल नहीं खा रही हैं.

2015 में जब रूस ने सीरिया के युद्ध में प्रवेश किया, तब तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि रूस अब यहाँ दलदल में फँस कर रह जाएगा.पर ऐसा हुआ नहीं, बल्कि रूस ने राष्ट्रपति बशर अल-असद को बचा लिया.इससे रूस का रसूख बढ़ा। क्या इसबार यूक्रेन में भी वह वही करके दिखाएगा? पर्यवेक्षक मानते हैं कि रूस यदि सफल हुआ, तो यूरोप में ही नहीं दुनिया में राजनीति का एक नया दौर शुरू होगा.

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अमेरिकी जाल

 

इस लड़ाई में रूस बड़े जोखिम उठा रहा है और अमेरिका उसे जाल में फँसाने की कोशिश कर रहा है.यूक्रेन के भीतर आकर बाहर निकलने का रास्ता उसे नहीं मिलेगा.लड़ाई की परिणति रूसी सफलता में होगी या विफलता में यह बात लड़ाई खत्म करने के लिए होने वाले समझौते से पता लगेगी.रूस यदि अपनी बात मनवाने में सफल रहा, तो आने वाला समय उसके प्रभाव-क्षेत्र के विस्तार का होगा.

सफलता या विफलता के पैमाने भी स्पष्ट नहीं हैं.अलबत्ता कुछ सवालों के जवाबों से बात साफ हो सकती है.पहला सवाल है कि रूस चाहता क्या है? किस लक्ष्य को लेकर उसने सेना भेजी है? पहले लगता था कि उसका इरादा यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की को हटाकर उनकी जगह अपने किसी आदमी को बैठाना है.

ऐसा होता तो वह ज़ेलेंस्की की सरकार से बेलारूस में बातचीत क्यों करता? आज भी वहाँ बात हो रही है.जिस सरकार को हटाना ही है, उससे बातचीत क्यों ? इस लड़ाई के पीछे रूस और अमेरिका की दूरगामी नीतियाँ छिपी हैं.रूस यदि यूरोप में अपने प्रभाव को कायम करने में कामयाब रहा, तो अमेरिका का यूरोप से रिश्ता टूटेगा.

अमेरिका की ताकत के पीछे यूरोप के साथ उसका जुड़ाव भी शामिल है.यूरोप में फ्रांस और जर्मनी स्वतंत्र नीतियों पर चलते हैं, पर ब्रिटेन का जुड़ाव अमेरिका के साथ है इस लड़ाई में चीन की सीधी भूमिका नजर नहीं आ रही है, पर रूस के पीछे उसका हाथ है.सवाल है कि रूस क्या सफल होगा?  दोनों के आर्थिक-रिश्ते यूरोप के साथ हैं.सवाल यह भी है कि रूस-चीन साझा दीर्घकालीन चलेगा या नहीं ?

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भारत की भूमिका


क्या ये रिश्ते फलीभूत होंगे  ? अमेरिका ने आर्थिक-पाबंदियों की जो झड़ी लगाई है, वह मामूली नहीं है.अभी भारतीय डिप्लोमेसी के सामने भी सवाल खड़े होने वाले हैं.हमने इस समय निष्पक्षता का जो रुख अपनाया है, उसके पीछे कई कारण हैं.

हम दोनों पक्षों के साथ बात करना चाहते हैं.करीब 20,000 भारतीय छात्रों की सुरक्षा की फिक्र भी भारत सरकार को है.रूस के साथ हमारे सामरिक रिश्ते हैं, जिन्हें आसानी से तोड़ नहीं सकते.बावजूद इसके भविष्य में रूस से हमारी दूरी बढ़ने की वजहें भी मौजूद हैं.

भारत ने रूसी हमले की निंदा नहीं की है, पर संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टीएस तिरुमूर्ति के बयान को ध्यान से पढ़ें। उन्होंने कहा है कि संरा चार्टर, अंतरराष्ट्रीय कानूनों और राष्ट्रीय सम्प्रभुता का सम्मान होना चाहिए.ये तीनों बातें रूसी कार्रवाई की ओर इशारा कर रही हैं.रूस और चीन का साझा यदि दीर्घकालीन है, तो भारतीय दृष्टिकोण बदलेगा.

भारत और चीन दीर्घकालीन प्रतिस्पर्धी हैं.रूस और भारत के रिश्ते बदलते वैश्विक-परिप्रेक्ष्य में कब तक चलेंगे, यह भी देखना होगा.हाल में अमेरिका के साथ भारत के जो सामरिक रिश्ते बने हैं, वे टूट नहीं जाएंगे.इन सब बातों को हमें दूरगामी पहलुओं से सोचना चाहिए.

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने बुधवार को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फ़ोन पर बातचीत की.एक हफ़्ते में दोनों नेताओं की ये दूसरी बातचीत है.फिलहाल यह बातचीत छात्रों को बाहर निकालने के संदर्भ में है, पर भारत को अपनी वैश्विक-भूमिका का भी पता है.

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रूस का लक्ष्य


फिलहाल लगता है कि यूरोप में रूस गारंटी चाहता है कि यूक्रेन, नेटो के पाले में नहीं जाएगा.वस्तुतः उसकी यह लड़ाई यूक्रेन के साथ है ही नहीं.यह लड़ाई सीधी अमेरिका के साथ है.अमेरिका इसमें सीधे उतरता तो बात काफी बढ़ जाती और खतरनाक स्तर तक जाती.अमेरिका इसे परोक्ष-तरीके से लड़ रहा है, जिसके परिणाम भी सामने हैं.रूस ने अपनी जबर्दस्त ताकत इस लड़ाई में झोंक दी है.यूक्रेनी-सूत्रों का कहना है कि अब तक 7,000से ज्यादा रूसी सैनिक मारे गए हैं और हजारों युद्धबंदी बनाए गए हैं.

इस संख्या पर भरोसा भले ही न करें, पर लगता यह शहरी छापामार लड़ाई बनती जा रही है, जिसकी तैयारी अमेरिका ने लम्बे अरसे से कर रखी थी.सामने से जो नजर आ रहा है, उससे लगता है कि यूक्रेन के नागरिकों ने हथियार हासिल कर लिए हैं, पर ऐसा लगता है कि पश्चिमी देशों के भाड़े के या ठेके के सैनिकों ने मोर्चा संभाल लिया है.

अमेरिका को पता था कि रूस किसी दिन हमला करेगा.अफगानिस्तान के अनुभव के बाद अमेरिका ने यूक्रेन में इस काउंटर-रणनीति को इस्तेमाल किया है.

अमेरिका के रिटायर्ड फौजी अधिकारियों की कम्पनी ब्लैकवॉटर या एकेडमी नाम से काम करती है.खबरें है कि ब्लैकवॉटर के सैनिक यूक्रेन के नागरिकों को ट्रेनिंग दे रहे हैं.अमेरिका ने बड़ी संख्या में जैवलिन और दूसरी एंटी-टैंक मिसाइलें और छोटे रॉकेट इन्हें उपलब्ध कराए हैं.इसका मतलब है कि शहरी इमारतों से आगे बढ़ते टैंकों को निशाना बनाया जाएगा.

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लड़ाई की कीमत


रूस को इस लड़ाई की फौजी और डिप्लोमैटिक दोनों सतहों पर कीमत चुकानी पड़ रही है.उसपर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का दबाव बढ़ता जा रहा है.संरा सुरक्षा परिषद में वीटो करके रूस ने एक दबाव को कम किया, पर महासभा में 193 में से 141 देशों ने उसके खिलाफ प्रस्ताव पास करके उसपर दबाव बढ़ा दिया है.

हालांकि इस वोट का केवल नैतिक अर्थ है.यानी इसे अंतरराष्ट्रीय-सेना के माध्यम से लागू नहीं कराया जा सकता, पर यह बात रेखांकित हुई है कि रूस के समर्थक देशों की संख्या बहुत थोड़ी है.

कुल 35देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया, जिनमें भारत, चीन, पाकिस्तान और यूएई जैसे देश शामिल हैं.पर भारत के पड़ोस के नेपाल, मालदीव और अफगानिस्तान जैसे देशों ने रूस-विरोधी प्रस्ताव का समर्थन किया है.

रूस का समर्थन करने बेलारूस, इरीट्रिया, उत्तरी कोरिया और सीरिया जैसे देश ही सामने आए हैं.अब सवाल यह है कि भारत कब तक मतदान से बचता रहेगा? हमें अपनी स्पष्ट राय रखनी होगी? यह राय क्या होगी और इसे हम कब व्यक्त करेंगे, इसपर विचार का समय अब आ गया है.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय तक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं.