हरजिंदर
गाज़ा में जो हो रहा है उससे क्षुब्ध दुनिया भर के मुस्लिम समुदाय ने बाॅयकाॅट यानी बहिष्कार के हथियार का दामन थामा है. दुनिया के बहुत से मुस्लिम देशों से कोका कोला और पेप्सी कोला के बहिष्कार की खबरें आ रहीं हैं. ऐसा किसी सरकारी आदेश से नहीं हो रहा. ज्यादातर जगह लोग खुद यह कर रहे हैं.
गाज़ा में चल रहे नरसंहार में अमेरिका जिस तरह से इस्राएल के समर्थन में खड़ा है उसे देखते हुए लोग सोचते हैं कि अपनी तरफ से वे अमेरिकी कंपनियों के उत्पादों का बहिष्कार करके अमेरिका को नुकसान पहंुचा सकते हैं.
अब वे कोल्ड ड्रिंक्स के लोकर ब्रांड खरीद रहे हैं. खबरें बता रही हैं कि अमेरिकी उपभोक्ता कंपनियों के खातों में बिक्री और मुनाफे की कमीं दर्ज होने लगी है.लेकिन क्या इससे सचमुच अमेरिका पर दबाव बनाया जा सकता है?
क्या इससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था को इतना आहत किया जा सकता है कि वह अपना रास्ता बदलने को मजबूर हो जाए? या नहीं तो पेप्सी और कोका कोला अमेरिकी नीति बदलवाने के लाॅबींग ही करने करने को मजबूर हो जाएं?
इतिहास में हम जब ऐसे बहिष्कार को खोजते हैं तो 18वी और 19वीं सदी के दो बहिष्कार याद आते हैं जब ब्रिटेन में लोगों ने शक्कर के बहिष्कार का आंदोलन चलाया था. उस समय तक बहुत से ऐसे उपनिवेश थे जहां ब्रिटिश साम्राज्य ने बहुत बड़े पैमाने पर गन्ने की खेती शुरू करवाई थी.
खेती करने वाले मजदूरों से गुलामों की तरह का बर्ताव होता था. उन्हें खरीदा और बेचा जाता था. गन्ना मजदूरों का बाकायदा एक बाजार बन गया था. इनमें ज्यादातर मजदूर भारत के ही होते थे. ब्रिटेन के लोकतांत्रिक चेतना वाले कुछ लोगों ने इसकी अपील की थी जिसका वहां के लोगों पर असर भी हुआ.
वे चाहते थे कि सरकार कानूनों में बदलाव करके इस गुलामी को पूरी तरह खत्म करे. इस आंदोलन की वजह से सरकार थोड़े-बहुत बदलाव करने पर मजबूर भी हुई.एक सदी बाद भारत में विदेशी कपड़ों यानी मिलों में बने कपड़ों के बहिष्कार की अपील हुई.
इसके विकल्प के तौर पर खादी, करघे और चरखे को खड़ा किया गया. इस आंदोलन को कितने कामयाबी मिली हमने इसे इतिहास की किताबों में खूब अच्छी तरह पढ़ा है.इसके बाद के बहिष्कार के बड़े और सफल उदाहरण हमारे सामने नहीं हैं.
20वीं सदी के अंत में भारत में एक आंदोलन चला था जिसे स्वदेशी आंदोलन कहा गया. आंदोलन चलाने वाले चाहते थे कि बहुराष्ट्रीय या मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पादों का बहिष्कार किया जाए.
लेकिन इसे कुछ ही समय बाद भुला दिया गया। अब तो यह आंदोलन चलाने वाले भी इसकी बात नहीं करते. अभी सात साल पहले तमिलनाडु में कोका कोला के बहिष्कार का आंदोलन चला था.
तर्क यह था कि कोका कोला की इकाई राज्य में जमीन के नीचे का सारा पानी सोख ले रही है. तर्क वाजिब था और इसकी पीछे की चिंता भी जायज थी. फिर क्या हुआ? क्यों नहीं यह आंदोलन आगे बढ़ सका?
दरअसल ऐसे आंदोलन उस दौर में काफी कामयाब होते थे जब दुनिया इस तरह से जुड़ी नहीं थी और कुछ ही सामानों का आयात-निर्यात होता था. बहिष्कार आसान थे और उनके विकल्प मौजूद थे. कोल्ड ड्रिंक्स और फास्ट फूड वगैरह को छोड़ दें तो आज बहुत सारी ज्यादा महत्वपूर्ण चीजों के स्थानीय विकल्प मौजूद नहीं हैं.
क्या ये देश ऐपल के कंप्यूटर और आईफोन का बहिष्कार कर सकते हैं? क्या वे माइक्रोसाफ्ट विंडोज़, गूगल और इंटेल चिप के बिना अपना काम चला सकते हैं? ऐसे सामानांे की लंबी सूची बनाई जा सकती है.
अगर आप अमेरिकी अर्थव्यवस्था की इन सबसे महत्वपूर्ण चीजों का बहिष्कार नहीं कर सकते तो जल्द ही आप कोका कोला और पेप्सी कोला जैसी मामूली चीजों का बहिष्कार खत्म करने को अभिशप्त होंगे. आप ऐसी चीजों का ही बहिष्कार कर रहे हैं जो आपकी जिंदगी के लिए बहुत अहम नहीं हैं और उनके बिना काम चलाया जा सकता है.
आज की दुनिया में बहिष्कार एक ऐसा हथियार बन गया है जिसकी मियाद अब खत्म हो चुकी है. अगर आप अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सचमुच नुकसान ही पहंुचाना चाहते हैं तो एक ही रास्ता है कि आप उसकी कंपनियों से बड़ी लकीर खींचे. उन्हें उस बाजार की स्पर्धा में हराएं जिस पर उनका कब्जा है.
यह कोई ख्याली पुलाव नहीं है. जापान और चीन दोनों ही ऐसा करके दिखा चुके हैं. इस फेहरिस्त में दक्षिण कोरिया का नाम भी जोड़ा जा सकता है. ज्यादा अच्छे विकल्प देकर ही आप किसी रास्ते को बंद कर सकते हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
ALSO READ एक अदद आशियां पर यह हंगामा क्यों ?