हरजिंदर
कुछ समय पहले खबरों, अखबारों और टीवी चैनलों में एक शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ था- मुस्लिम आउटरीच. कहा गया कि भारतीय जनता पार्टी ने अब मुस्लिम समुदाय संबंध जोड़ने और उन्हें अपने साथ लेने के लिए कमर कस ली है. पार्टी के कईं पदाधिकारियों ने इसके लिए कईं छोटे बड़े सम्मेलन भी किए.
कईं कारणों से इससे बहुत सी उम्मीदें भी बांधी गईं. फिर लंबा वक्त गुजर गया. यह शब्द भी सुनाई देना बंद हो गया.यह शब्द अब फिर से सुनाई देना शुरू हुआ है. इस बार इसकी गंूज बिहार से उठ रही है.
यह काम कर रहे हैं प्रशांत किशोर, जो हाल-फिलहाल तक राजनीतिक दलों को चुनाव लड़वाने का काम करते थे. फिर वे राजनीति में कूद गए. पहले उन्होंने पूरे बिहार में जन सुराज नाम से यात्रा शुरू की. फिर इस नाम का एक संगठन बनाया जिसने अब चुनाव लड़ने की घोषणा की है.
सिर्फ घोषणा ही नहीं, वे इसकी रणनीति का भी खुलासा कर रहे हैं. उन्होंने ज्यादातर बातें वहीं कहीं जो राजनीतिक नेता कहते हैं. बाकी दलों ने अभी तक प्रदेश के मुसलमानों का ध्यान नहीं रखा. प्रदेश में 19-20 फीसदी आबादी मुसलमानों की है, लेकिन उस अनुपात में इस समुदाय के विधायकों की संख्या काफी कम है. जाहिर है इसका मतलब यह हुआ कि अब वे उनका खास ध्यान रखेंगे.
वे यहीं तक नहीं रुके. उन्होंने कहा कि इस बार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी 40 मुसलमानों को टिकट देगी. इसमें यह भी जोड़ दिया गया कि उनके संगठन में भी 20 फीसदी पदाधिकारी मुसलमान होंगे. क्या ऐसे तरीकों से मुस्लिम मतदाता एक ऐसी पार्टी की तरफ आकर्षित हो सकते हैं जिसका कोई अतीत नहीं. भविष्य के बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता.
यह ठीक है कि बाकी अल्पसंख्यकों की तरह देश के मुसलमानों में राजनीति को लेकर एक तरह की हताशा है. उनके अंदर यह भाव है कि सभी दलों ने उनके वोटों को हासिल करने की कोशिश तो की लेकिन उनके लिए किया कुछ नहीं. लेकिन बिहार के मुस्लिम मतदाताओं की यह निराशा क्या उन्हें जन सुराज की ओर ले जाएगी?
क्या ज्यादा टिकट देने का वादा या लालच मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के काम आ सकता है? अगर प्रशांत किशोर सचमुच इतने मुसलमान उम्मीदवारों को चुनाव में खड़ा करते हैं तो उनकी हार-जीत उनके चुनाव क्षेत्र के स्थानीय समीकरणों और उनके प्रभाव से तय होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसे में पूरे बिहार के मुसलमान उनकी पार्टी के पक्ष में चले जाएंगे?
अभी तक हम सिर्फ एक बात समझ सकें हैं कि प्रशांत किशोर मुसलमानों को अनुपातिक प्रतिनिधित्व देने की बात कर रहे हैं. लेकिन अल्पसंख्यकों के कुलजमा विकास और उनके पिछड़ेपन को दूर करने के बारे में उनकी राय क्या है यह अभी साफ नहीं है. अल्पसंख्यकों और मुसलमानों से जुड़े बहुत सारे मुद्दे इस समय राजनीतिक चर्चा में हैं, हम अभी ठीक से नहीं जानते कि प्रशांत किशोर की उनके बारे में क्या राय है.
प्रशांत किशोर का पिछला इतिहास उनके बारे में कुछ नहीं बताता. चुनावी रणनीतिकार के रूप में उन्होंने तरह-तरह के दलों के साथ काम किया है. वे 2014 के आम चुनाव के बाद तब चर्चा में आए थे जब उन्होंने भाजपा के साथ काम किया. इसके बाद उन्होंने ममता बनर्जी, एमके स्टालिन और जगनमोहन रेड्डी को विधानसभा चुनाव जितवाने में मदद की.
उत्तर प्रदेश के एक विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के साथ काम किया, लेकिन कांग्रेस वह चुनाव बुरी तरह हार गई.कुछ समय के लिए वे नीतीश कुमार की पार्टी में भी रहे लेकिन यह दोस्ती ज्यादा नहीं चली और उन्हें पार्टी छोड़ देनी पड़ी. बीच में ऐसा समय भी आया जब जगा कि वे कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं, लेकिन वहां भी बात आगे नहीं बढ़ी. जाहिर है इन सबसे हम यह नहीं समझ सकते कि विभिन्न मुद्दों पर उनके विचार क्या हैं?
इस सबके बावजूद अगर बिहार के मुस्लिम मतदाता स्थापित दलों का साथ छोड़कर उनकी ओर आकर्षित होते हैं तो स्थापित राजनीति के लिए यह एक बड़ा बदलाव होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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