हरजिंदर
कहा जाता है कि मुहब्बत और नफरत समझने, महसूस करने की चीज हैं, इन्हें कभी नापा नहीं जाता. डाटा एनालिटिक्स के इस दौर में भी मुहब्बत और नफरत के बारे में यही धारणा चलती है. लेकिन मामला जब राजनीति के जरिये फैलाई जा रही नफरत का हो तो यह सोच उस पर पूरी तरह से लागू नहीं होती.
पिछले कुछ समय में राजनीति में या राजनीति के जरिये जो नफरत समाज में फैली है वह कितना नुकसान कर रही है इसे तो हम सब देख भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं. लेकिन यह नफरत कहां जा रही है इसे समझने में कुछ आंकड़ें हमारी मदद कर सकते हैं.
सेंटर फाॅर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेकुलरिज्म ने साल 2024 में हुए सांप्रदायिक दंगों और के जो आंकड़ें दिए हैं वे आंखे खोलने वाले हैं. ये बताते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा न सिर्फ बढ़ रही है बल्कि नए रूपों में हमारे सामने आ रही है.
विभिन्न अखबारों में छपी सांप्रदायिक हिंसा की खबरों के आधार पर जुटाए गए इन आंकड़ों में यह पाया गया कि साल 2023 के मुकाबले 2024 में दंगों की घटनाओं में 84 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. 2023 में ऐसी 32 घटनाएं हुई थीं जबकि एक साल बाद ऐसी 59 घटनाएं हुईं.
पिछले साल सबसे ज्यादा दंगे महाराष्ट्र में हुए. हालांकि रिपोर्ट में इसका जिक्र नहीं है लेकिन यहां इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी है कि 2024 में महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव भी था. एक तरह से आम चुनाव के बाद यह देश का ऐसा चुनाव था जहां राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा दांव पर लगी थी.
दंगों के मामले में इसके बाद नंबर आता है उत्तर प्रदेश और बिहार का. फिर गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड हैं. प्रदेश के हिसाब से देखें तो पिछले साल देश के तकरीबन हर हिस्से में किसी न किसी तरह की सांप्रदायिक हिंसा हुई है.
रिपोर्ट हिंसा के एक और ट्रेंड की ओर इशारा करती है. 2023 के मुकाबले 2024 में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार दिए जाने की घटनाओं में कमी आई है. बावजूद इसके कि गो-तस्करी के नाम पर होने वाली माॅब लिंचिंग अभी भी जारी है. दूसरी तरफ धार्मिक त्योहारों के दौरान हिंसा की घटनाएं सबसे ज्यादा हुई हैं. रामनवमी, सरस्वति पूजा, गणेश पूजा और बकरीद जैसे अवसरों पर.
25 दिसंबर को क्रिसमस के दिन दिल्ली में एक गिरिजाघर के बाहर जो हुआ उसकी खबरें अभी ताजा ही हैं. हालांकि वहां हिंसा की कोई घटना नहीं हुई, लेकिन यह बताता है कि अब दूसरों के त्योहारों को कुछ लोग तनाव बढ़ाने का मौका मान कर सक्रिय हो जाते हैं.
उस नफरत का लगातार बढ़ते जाना किसी से छुपा नहीं है जो ऐसी हिंसा कारण बनती है. लेकिन इससे भी बड़ी दुख की बात यह है कि देश में इसे खत्म करने को लेकर आम सहमति बनाए जाने की कोशिशें भी अब खत्म हो गई हैं. राजनीति दलों से तो बहुत ज्याद उम्मीद नहीं बची है, ऐसी सोच रखने वाले सामाजिक संगठन भी अब कम ही सक्रिय नजर आते हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)