हरजिंदर
इस बार के आम चुनाव का सबसे सुखद पहलू कश्मीर घाटी में हुए भारी मतदान को माना जा सकता है. बारामूला सीट पर तो मतदान 59 फीसदी से भी ज्यादा हुआ. मतदान का यह प्रतिशत देश के बाकी हिस्सों की कुछ शहरी सीटों के आस-पास या उससे ज्यादा है. पूरे कश्मीर में अगर देखें तो इस बार वोटिंग 51.74 फीसदी हुई है.
पिछली बार यह आंकड़ां 14.31 फीसदी था. यह बताता है कि पिछली बार की तुलना में इस बार वोटिंग को लेकर लोग कितने उत्साह में थे.इसका एक बड़ा कारण यह बताया जा रहा है कि इस बार किसी भी अलगाववादी संगठन ने चुनाव के बायकाॅट की अपील नहीं की थी. जब यह अपील की जाती थी तो यह अपील नहीं धमकी होती थी. इसको नजरंअदाज करके वोट डालने वालों को आतंकवादी सजा भी देते रहे हैं.
बेशक, इसे केंद्र सरकार अपनी कामयाबी मानेगी. कामयाबी मानने का उसे हक भी है. भारतीय जनता पार्टी की तरफ से इसे लेकर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री समेत जितने भी नेताओं के बयान आए हैं सब में इसे आर्टीकल- 370 खत्म करने का नतीजा बताया गया है.
साथ ही यह भी कहा गया है कि वोटिंग का यह प्रतिशत बताता है कि सरकार की कश्मीर नीति कामयाब रही है और इसकी वजह से कश्मीर के लोग भारत की मुख्यधारा के साथ जुड़े दिखाई दिए हैं.हालांकि चुनाव को लेकर कश्मीर से जितनी भी रिपोर्ट आई हैं, ज्यादातर में आर्टिकल 370 खत्म करने के लेकर लोगों को नराजगी भी कहीं न कहीं झलकती दिखी है.
लेकिन अगर लोग नाराज हैं और फिर भी वोटिंग में भाग ले रहे हैं तो इसे भी कश्मीर नीति की सफलता ही माना जा सकता है.इसके आगे की कहानी थोड़ी उलझी लगती है. भाजपा ने कश्मीर घाटी की तीनों सीटों पर एक भी उम्मीदवार नहीं उतारा.
पार्टी की ओर से इसके लिए यह कहा गया है कि भाजपा का मकसद कश्मीर में चुनाव जीतना नहीं लोगों के दिल जीतना है. यह बात सुनने में बहुत अच्छी है लेकिन वहां भाजपा के चुनाव न लड़ने की पूरी व्याख्या नहीं करती.
आम तौर पर धारणा यही है कि कश्मीर घाटी में भाजपा की स्वीकार्यता अभी बनी नहीं है इसलिए चुनाव लड़कर वह विरोधियों को अपने खिलाफ कोई तर्क नहीं देना चाहती.
अभी अगर कश्मीर नीति की बात होगी तो उसकी कामयाबी को वोटिंग प्रतिशत से नापा जाएगा, लेकिन अगर वह चुनाव लड़ती तो उसकी कश्मीर नीति की कामयाबी को उसे मिले वोटों से नापा जाता। इसलिए चुनाव न लड़ने का उसका फैसला दरअसल उसकी कश्मीर रणनीति का हिस्सा है.
वैसे यह पहला मौका नहीं है जब कश्मीर के लोगों ने भारी संख्या में अपने घरों से निकल कर मतदान किया हो. यही 1984 में भी हुआ था. तब भी मतदान केंद्रों के बाहर लंबी लाइनें देखी गईं थीं. वह भी तब जब वोट डालने वालों को नतीजे भुगतने की चेतावनियां दी गईं थीं. उस साल बारामूला में 61 फीसदी मतदान हुआ था.
लेकिन इस उत्साह को बरकरार रखने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया गया. कश्मीर के लोगों को देश की मुख्यधारा से जोड़े रखने के लिए जो अतिरिक्त प्रयास होने चाहिए थे वे किए ही नहीं गए. 1984 ही वह समय था जिसके कुछ बाद ही हालात बिगड़ने शुरू हुए और फिर बिगड़ते ही गए.अब फिर वही मौका आया है। इस बार हमें नहीं चूकना चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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