एक किताब पर शुरू हुआ बेवजह विवाद

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 02-12-2024
Unnecessary controversy started over a book
Unnecessary controversy started over a book

 

harjinder हरजिंदर

स्कूली किताबों का सांप्रदायिकरण अब हमारे लिए कोई नई बात नहीं रही. सरकार बदलती है तो पूरे के पूरे पाठ्यक्रम बदल दिए जाते हैं. जैसे कि लोगों ने सत्ता बदलने के लिए नहीं बल्कि बच्चों की पढ़ाई लिखाई बदलने के लिए वोट दिया हो. खासकर इतिहास का पाठ्यक्रम तो बदल ही दिया जाता है. ये बदलाव अक्सर इस राजनीतिक सोच के साथ होते हैं कि अगर आपको भविष्य अपने हिसाब से बनाना है तो पहले इतिहास अपने हिसाब से बनाइये.

इस तरह के सारे बदलाव अभी तक स्कूली पाठ्यक्रम में ही होते रहे हैं. उच्च शिक्षा की दुनिया कुछ हद तक इससे बची रही है. विवाद जरूर चलते रहते हैं, वहां भी तरह-तरह की विचारधाराएं होती हैं, उनके हिसाब से इतिहास भी लिखा जाता है. लेकिन किसी एक विचार को पूरी तरह नकार दिया जाए ऐसा नहीं होता.

उच्च शिक्षा में सभी विचारों और धारणाओं को कम से कम पढ़ाया तो जाता ही है.लेकिन यह रवैया भी अब बदलता दिख रहा है.पिछले दिनों अकादमिक किताबें छापने वाले एक प्रसिद्ध प्रकाशक स्प्रिंगर ने भारतीय इतिहास पर एक पुस्तक छापी तो इस तरह का एक विवाद उसे लेकर भी हो गया.

जर्मनी के इस प्रकाशक स्प्रिंगर का इतिहास 180 साल से भी पुराना है और उसकी अपनी प्रतिष्ठा भी खासी अच्छी रही है. यह किताब है- हैंडबुक आॅफ इंडियन हिस्ट्री. 500 पेज की हाल में ही प्रकाशित इस किताब का संपादन लावण्या वेमसानी ने किया है और इसमें इतिहास, समाजशास्त्र वगैरह के बहुत से विद्वानों के लेख हैं.

ऐसी अकादमिक किताबों की दुनिया बहुत अलग होती है. उनकी पाठक संख्या काफी सीमित होती है और उनकी खरीद आमतौर पर पुस्ताकालयों वगैरह के लिए होती है. उनकी समीक्षा भी रिसर्च जरनल वगैरह में होती है. बाकी मीडिया में उनकी कोई चर्चा भी नहीं करता.

मुख्यधारा के मीडिया पर तो इसकी चर्चा नहीं हुई लेकिन सोशल मीडिया में इस पर हंगामा हो गया. सबसे पहले किसी विदेशी विद्वान ने एक्स पर लिखा कि किताब में भारत के इतिहास को पूरी तरह सांप्रदायिक बना दिया गया है. इसके बाद इस पर चर्चा शुरू हो गई.

यह भी बताया गया कि इसमें मुस्लिम और इस्लाम शब्द का इस्तेमाल कितनी जगह हुआ है. कुछ लोगों ने यह भी लिखा कि इसमें इतिहास के उस पूरे अध्याय का जिक्र तक नहीं है जब भारत पर मुस्लिम शासकों ने शासन किया था.

इसके बाद जवाब में दूसरे तरफ से बहुत चीजें कहीं गईं. जल्द ही एक अकादमिक किताब को लेकर ट्रोलिंग और तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गई. पूरे विवाद में किसी ने भी यह समझदारी भरी बात नहीं कही कि अकादमिक किताबों पर इस तरह का विवाद दरअसल इस दुनिया से जुड़े हर पक्ष के लिए अपमानजनक है.

और हां एक यह टिप्पणी जरूर दिखाई दी कि सारा विवाद किताब को चर्चा को लाने के लिए खड़ा किया गया है. लेकिन क्या इस तरह की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित किताब के लिए क्या ऐसी चर्चा की जरूरत है? वह भी तब जब इस विवाद से उसकी पाठक संख्या बढ़ने की कोई बहुत ज्यादा संभावना नहीं है. 

   (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

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