हरजिंदर
इस बार लोकसभा चुनाव के पहले दो दौर में मतदान कम होने को लेकर जितनी चिंताएं हैं उससे ज्यादा चर्चाएं हैं. मतदान कई वजहों से कम या ज्यादा हो सकता है- मौसम की वजह से, फसल कटाई जैसे कामों में लोगों के व्यस्त होने की वजह से या और भी कईं कारण हो सकते हैं. लेकिन आमतौर पर राजनीतिक विश्लेषण जिस चीज पर सबसे ज्यादा फोकस करता है वह है मतदाताओं की उदासीनता या सक्रियता.
मतदान कम हो जाए या ज्यादा हो जाए तो अपनी-अपनी तरह से और अपनी सुविधा के हिसाब से उसके अर्थ भी निकाले जाने लगते हैं. यह बताया जाने लगता है कि इससे किसे फायदा होगा और किसे नुकसान. हालांकि राजनीति या स्टेटिस्टिक्स का कोई सिद्धांत इसके बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहता, पर ऐसी व्याख्याएं होती रहती हैं और इस बार भी हो रही हैं.
लेकिन टीवी चैनलों की खबरों को देखिये तो एक चीज पर खासा जोर रहता है- यह बताने और दिखाने में किस मुस्लिम मुहल्लों में मतदान की गति क्या है और माहौल क्या है. पिछले कुछ समय में जबसे हर चीज को सांप्रदायिक रंग दिया जाना शुरू हुआ है यह प्रवृत्ति बढ़ने लगी है.हालांकि हमारे चुनाव के आंकड़े मतदान को धर्म या जाति के आधार पर नहीं देखते हैं.
इसलिए सरकारी तौर पर ये आंकड़े तो आ जाते हैं कि कितने प्रतिशत औरतों ने वोट दिया और कितने प्रतिशत मर्दों ने. लेकिन इसके आगे किसी तरह के आंकड़ें हमें नहीं मिलते इसलिए मतदान और उसके नतीजों की कोई प्रामाणित जातीय या धार्मिक व्याख्या हो ही नहीं सकती.
यह जरूर है कि कुछ निजी सर्वे एजेंसिया जाति और धर्म के आधार पर सर्वे करती हैं और आंकड़े भी जारी करती हैं. लेकिन उनके आंकड़ें कितने भरोसेमंद हैं और सच को किस हद तक दिखा पाते हैं यह नहीं कहा जा सकता.पिछले चुनावों के ऐसे ही कुछ आंकड़े इन दिनों निकाले गए हैं और कईं जगह पेश किए जा रहे हैं.
इसकी शुरूआत होती है 2009 के आकड़ों से. एक सर्वे के हिसाब से 2009 के चुनाव में 58 प्रतिशत हिंदुओं ने मतदान किया था 59 प्रतिशत मुसलमानों ने. यह प्रतिशत लगभग बराबर है और इसमें विवाद की ज्यादा गुंजाइश भी नहीं है. लेकिन 2014 के आम चुनाव के बारे में आंकड़ें कहते हैं कि तब मुसलमानों के मतदान का प्रतिशत तो जस का तस रहा लेकिन हिंदुओं के मत प्रतिशत में दस फीसदी का इजाफा हो गया.
आंकड़े इसके आगे बताते हैं कि 2019 के आम चुनाव में हिंदुओं का मत प्रतिशत दो फीसदी और बढ़ गया जबकि मुसलमानों का मत प्रतिशत एक फीसदी ही बढ़ा. इस तरह के आंकड़ों की भी अपने-अपने तरह से व्याख्या होती रही है, हालांकि इनसे भी किसी चीज को साबित करना मुश्किल ही है.
अभी हम ठीक तरह से नहीं जानते कि कम मतदान हमें किस तरह के नतीजे देगा, लेकिन इसकी धार्मिक आधार पर व्याख्या के खतरे हमें जरूर समझ लेने चाहिए. मतदान के समय जब कैमरों का रुख किसी खास समुदाय की बस्तियों की ओर होता है तो यह चुनाव के पूरे विमर्श को बिगाड़ देता है जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक भी साबित हो सकता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)