प्रो. अख्तरुल वासे
इस सप्ताह की शुरुआत में, संयुक्त राष्ट्र महासभा में इस्लामोफोबिया के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया गया और सर्वसम्मति से 15मार्च को विश्व इस्लामोफोबिया दिवस के रूप में मंजूरी दी, जिसका उद्देश्य विश्व स्तर पर सहिष्णुता और शांति की संस्कृति को बढ़ावा देना था.
इस प्रस्ताव में धर्म या विश्वास के आधार पर लोगों के खिलाफ सभी प्रकार की हिंसा और इबादतगाहों (पूजा स्थलों) एवं मज़ारों (तीर्थस्थलों) सहित धार्मिक स्थलों में इस तरह के कृत्यों को दृढ़ता से नापसंद किया गया और कहा गया कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है.
हालाँकि, इस प्रस्ताव का सर्वसम्मति से पारित होना सराहनीय है और एक तरह से 9/11 (न्यूयॉर्क में ट्विन टावर्स पर हमला) के बाद बदलते विश्वदृष्टि को दर्शाता है और हम इसका स्वागत करते हैं.
इस दुनिया को जो एक वैश्विक गाँव बन चुकी है, इंसानों के रहने के काबिल बनाना हम सबकी जिम्मेदारी है. हमें यह भी एहसास है कि कुछ देशों और सदस्यों ने, इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार करने के बावजूद शंका जाहिर की है और स्वीकार किया है कि दुनिया भर में धार्मिक असहिष्णुता है, लेकिन केवल इस्लाम को अलग से प्रस्तुत किया गया है और अन्य को धर्मों को नहीं.
इस तथ्य के बावजूद कि हम इस्लामोफोबिया के खिलाफ एक सर्वसम्मत प्रस्ताव के पारित होने की दृढ़ता से सराहना करते हैं, हम मानते हैं कि जिस तरह से इस्लाम और मुसलमानों को निशाना बनाया गया था, उससे ऐसा प्रस्ताव पारित करना जरूरी हो गया था.
इस्लामोफोबिया के परिणामस्वरूप जो मायूसी पिछले दो दशकों से अधिक समय से वैश्विक स्तर पर मुसलमानों की हुई है, अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, यमन और सीरिया में हमने जो मानव जीवन को कुचलते हुए देखा है, ऐसे परिदृश्य में इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था कि वैश्विक स्तर पर इसके लिए पश्चाताप करें.
रूस के राष्ट्रपति और न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री द्वारा व्यक्त किए गए विचारों के बाद ऐसा करना अनिवार्य हो गया था. अब जहां तक फ्रांस, यूरोपीय संघ और भारत की चिंताओं का संबंध है, हमएक भारतीय के रूप मेंहमारे देश के स्थायी प्रतिनिधि के विचार से पूरी तरह सहमत हैं कि इस तरह के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र महासभा में सभी सदस्यों द्वारा सर्वसम्मति से सभी धर्मों के लिए पास किया जाना चाहिए क्योंकि धर्म जो भी हो, वह अपने अनुयायियों के लिए भक्ति का केंद्र होता है.
उस धर्म से जुड़ी अलौकिक शक्तियों, संतों, पवित्र शास्त्रों और पवित्र स्थानों का किसी भी प्रकार का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए. हमारा यह विचार एक मुसलमान की हैसियत से पवित्र कुरान पर आधारित है जो कहता है कि धर्म में कोई बाध्यता नहीं, दूसरों के देवताओं को बुरा मत कहो और तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए है और मेरा धर्म मेरे लिए है.
इसलिए हम इसे उचित समझते हैं कि संयुक्त राष्ट्र, जो कि दुनिया के निवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाला निकाय है इसलिए उसे एक और प्रस्ताव इसी तरह की दूसरे धर्मों के बारे में भी पास पारित करनी चाहिए. साथ ही दुनिया भर की सरकारों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके लोगों का धर्म के आधार पर तिरस्कार या अपमान न हो.
उन्हें रहने-सहने, चलने-फिरने, अपनी पसंद का व्यवसाय करने, क्या खाए क्या पिए, क्या ओढ़े क्या बिछाए, इसकी पूरी आज़ादी होनी चाहिए. एक मुसलमान होने की हैसियत से हम बार-बार मुस्लिम हुकूमतों और मुस्लिम बहुल समाजों से वर्षों से यह कहते आए हैं कि वह सभी अधिकार और रियायत जो गैर-मुस्लिम बहुल समाजों में वह अपने लिए चाहते हैं, वही आगे बढ़कर सबसे पहले अपने गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को उदारता के साथ प्रदान करें.
इससे उनके देश में भी सद्भाव का माहौल बनेगा और वह इस दुनिया और इस दुनिया के बनाने वाले के सामने भी सफल होंगे.
यह बात इसलिए कहनी जरूरी है कि जो कुछ भारतीय दूत ने कहा और दूसरों के यहां जो शंका पाई जाती है उसका कारण यह है कि कुछ मुस्लिम देशों में मानवाधिकारों की स्थिति ठीक नहीं है. वहां पर अल्पसंख्यकों और महिलाओं को वह अधिकार भी नहीं दिये जा रहे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल सल्ल. ने उन्हें दिये हैं.
इस्लामिक देशों में शिया-सुन्नी के नाम पर टकराव की जो स्थिति है वह बहुत परेशान करने वाली है. इसके अलावायमन और सीरिया को लेकर मुस्लिम देशों के बीच तनाव और टकराव हमारे लिए किसी कलंक से कम नहीं है.. मुसलमान दुनिया में ख़ैर-ए-उम्मत बनाकर भेजे गए हैं, लेकिन क्या वे वास्तव में उसका हक़ अदा कर रहे हैं? यह एक ऐसा सवाल है जिसका हमें जवाब देना ही चाहिए और यदि हम अपने मामलों और नीतियों को बदलना चाहते हैं तो इसके लिए अभी से कोशिश करनी चाहिए.
हो सकता है कि कोई यह कहे कि हमने सिर्फ भारतीय दूत के हवाले से बात क्यों की? फ्रांस और यूरोपीय संघ की जानबूझकर उपेक्षा क्यों की? तो इसका सीधा सा कारण यह है कि फ्रांस और यूरोपीय संघ यूक्रेन में तो अपने सहधर्मियों की रक्षा कर नहीं पा रहे हैं और उन्होंने उन्हें बिना सोचे-समझे उसे एक युद्ध में धकेल दिया है और आज सिर्फ दिखावे के लिए रूस को बुरा-भला कह रहे हैं लेकिन युक्रेन की जो व्यावहारिक मदद होनी चाहिए उसके लिए कोई आगे नहीं आ रहा है. ऐसे पाखंडी और दोगले राजनेताओं पर किसी भी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता है.
आशा है कि संयुक्त राष्ट्र एक न्यायपूर्ण, संतुलित और निष्पक्ष दृष्टिकोण अपनाते हुए दुनिया भर में लोगों की भलाई के लिए अपने प्रभाव को बढ़ाएगा.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)