हरजिंदर
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई ने उर्दू माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है. अब दसवीं और बारहवीं का इम्तिहान देने वाले बच्चों को न तो उनके पर्चे ही उर्दू में मिलेंगे और न ही वे उर्दू में जवाब ही दे सकेंगे.
अब उनके पास दो ही विकल्प हैं हिंदी या अंग्रेजी। वैसे सीबीएसई के लिए उर्दू के पर्चे 2021 में ही बंद कर दिए गए थे लेकिन बच्चों के लिए यह विकल्प खुला रखा गया था कि वे चाहें तो उर्दू में सवालों के जवाब दे सकते हैं. अब यह विकल्प भी बंद कर दिया गया है.
जबकि देश भर में ऐसे स्कूल काफी संख्या में हैं जहां बच्चों की पढ़ाई अभी भी उर्दू माध्यम से ही होती है. खासकर मौलाना आजाद उर्दू यूनिवर्सिटी से संबद्ध उर्दू स्कूलों में. ये सारे स्कूल ऐसे हैं जिन्हें सीबीएसई से मान्यता भी प्राप्त है.
हालांकि एक सच यह भी है कि पूरे देश में अभिभावक अब यही चाहते हैं कि उनके बच्चे हिंदू, उर्दू समेत दूसरी भाषाओं के माध्यम से पढ़ाई करने के बजाए अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाई करें. इसकी वजह भाषा से उनका कोई परहेज नहीं है बल्कि यह है कि देश भर में अब अंग्रेजी रोजगार की भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है.
लोगों को लगता है कि उनके बच्चे अगर अंग्रेजी माध्यम से पढ़ेंगे तो भविष्य में उनके रोजगार पाने की संभावनाएं ज्यादा होंगी.कुछ समय पहले महाराष्ट्र में हुए एक अध्ययन से पता पड़ा था कि वहां उर्दू माध्यम के स्कूलों में बच्चों की संख्या लगातार कम हो रही है। यही शायद देश भर में हो रहा होगा.
वैसे दुनिया भर के भाषाशास्त्री यही मानते हैं कि प्राईमरी कक्षाओं में बच्चों की पढ़ाई उनकी मातृभाषा में ही होनी चाहिए. उनका कहना है कि इससे बच्चे जो पढ़ाया जा रहा है उससे भावनात्मक रूप से ज्यादा जुड़ पाते हैं.
इसके अलावा दुनिया में बच्चों के अधिकारों को लेकर जितने भी कन्वेंशन तैयार किए गए हैं उन सबमें यही कहा जाता है कि बच्चों को शुरुआत तालीम उनकी अपनी मातृभाषा में ही मिलनी चाहिए.बहुत छोटे बच्चों पर विभिन्न विषयों को सीखने का दबाव और उसके साथ ही इस सबको एक नई अनजानी भाषा में सीखने का दबाव उनकी उम्र के हिसाब से बहुत ज्यादा भी हो सकता है.
लेकिन दूसरा सच यह है कि लोग अपने बच्चों को उनका भविष्य संवारने के लिए पढ़ाते हैं इसलिए उनकी प्राथमिकता अक्सर वह भाषा होती है जो आगे जाकर उनके काम आए. इसीलिए अंग्रेजी को लेकर उनका आग्रह बढ़ रहा है.
फिर दसवीं और बारहवीं के बच्चे बहुत छोटे नहीं होते. वे लगभग उस उम्र के हो जाते हैं जब उन्हें अपने भविष्य के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए.बच्चे किस भाषा में तालीम हासिल करेंगे यह या तो उसके मां-बाप का फैसला हो सकता है या फिर सरकार को इसके लिए नीति बनानी चाहिए कि आगे रोजगार को देखते हुए बच्चो की पढ़ाई किस भाषा में होनी चाहिए.
ऐसी नीति अगर बने भी तो रातोरात नहीं लागू हो सकती। इसे धीरे-धीरे चरणबद्ध ढंग से ही लागू किया जा सकता है.न तो ऐसी कोई नीति ही बनी और न ही उसे लागू करने का कोई टाइम टेबल ही सामने आया बस अचानक बच्चों के उर्दू में जवाब देने पर रोक लगा दी गई. जिस तरह यह फैसला रातोंरात लिया गया वही सबसे ज्यादा आपत्तिजनक है. इस फैसले की पीछे की मंशा क्या है यह भी स्पष्ट नहीं किया गया.
·(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)