हरजिंदर
बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती आमतौर पर अपने आप को भारत बल्कि उत्तर प्रदेश के घरेलू मुद्दों तक ही सीमित रखती हैं. विदेश नीति जैसे मुद्दों पर तो वे शायद ही कभी बोलती हों. पिछले चार महीने से ज्यादा हो गए पड़ोसी बांग्लादेश में उथल-पुथल चल रही है. वहां अल्पसंख्यकों पर कईं तरह के अत्याचार भी हो रहे हैं, लेकिन मायावती या उनकी पार्टी बीएसपी ने कभी इस पर मुंह नहीं खोला.
पिछले हफ्ते जब उन्होंने अचानक ही बांग्लादेश के मसले को उठाया तो पड़ोसी देश का एक ऐसा पहलू सुर्खियों में आ गया जिस पर न तो अभी तक मीडिया ने ही कभी चर्चा की थी और न ही बुद्धिजीवियों ने इसे महत्वपूर्ण माना था. वह भी उस समय जब भारत में बांग्लादेश को लेकर होने वाला विमर्श ‘बाबर का डीएनए‘ जैसी लफ्फाजियों तक सिमट गया है.
मायावती ने कहा कि बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार की जो बातें हो रहीं हैं उनमें सबसे ज्यादा अत्याचार वहां के दलितों पर हो रहे हैं. बांग्लादेश के दलितों पर अभी तक काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है लेकिन ताजा तख्ता पलट और उसके बाद वहां हुई राजनीति व सांप्रदायिक उथल-पुथल में हमने वहां के दलितों को पूरी तरह से नजरंदाज कर दिया था..
बेशक, मायावती ने जो बातें कहीं उनके कारण राजनीतिक हैं. उन्होंने यह बात कहने के साथ ही कांग्रेस पर कईं आरोप भी लगा दिए और सरकार से यह आग्रह भी कर दिया कि वह वहां से सभी हिंदुओं को जल्द ही भारत ले आए.
इस मांग और राजनीति को अगर हम थोड़ी देर के लिए अलग रख दें तो बांग्लादेश के दलितों का एक ऐसा मसला सामने आ गया जिस पर चर्चा जरूरी है.बांग्लादेश में दलितों की आबादी कितनी है यह हम ठीक तौर से नहीं जानते.
इसका कोई आधिकारिक आकड़ां उपलब्ध नहीं है, क्योंकि वहां जनगणना में धर्म को तो देखा और गिना जाता है लेकिन जाति उसमें कहीं दर्ज नहीं होती. सामाजिक अध्यनों में भी इसे आंकड़ें नहीं दर्ज होते. बांग्लादेश में दलितों की आबादी को लेकर तरह-तरह के अनुमान हैं जो 35 लाख से 65 लाख तक जाते हैं.
इसे लेकर जो कईं शोध हुए हैं उनमें 50 लाख आबादी को औसत मान लिया जाता है.ठीक यहीं पर एक और चीज का ध्यान रखना जरूरी है कि खास तरह की गंदी बस्तियों में रहने वाले इन दलितों में हिंदू ही नहीं ईसाई और मुस्लिम दलित भी हैं.
लेकिन ज्यादा संख्या हिंदू दलितों की ही है. यह भी हम ठीक तरह से नहीं जानते कि धर्म के आधार पर वहां की दलित आबादी का अनुपात क्या है. यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है कि बांग्लादेश पसमांदा जैसी किसी अवधारणा को भी नहीं मानता.
बांग्लादेश के इन दलितों के पास नौकरियों में आरक्षण जैसी कोई सुविधा भी उपलब्ध नहीं है इसलिए वे अपने परंपरागत काम धंधे करने पर ही मजबूर हैं. न सिर्फ रोजगार बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं से भी बांग्लादेश के दलित वंचित हैं.
पिछले दो दशक में बांग्लादेश ने आर्थिक तौर पर काफी तरक्की की है. उसकी जीडपी भी काफी बढ़ी है . कईं मानकों पर तो वहां की अर्थव्यवस्था भारत से भी मजबूत दिखाई देती है. लेकिन इस तरक्की का लाभ वहां के दलितों तक नहीं पहंुचा है और उनकी माली हालत में कोई बड़ा सुधार देखने को नहीं मिला है.
दलितों की यह हालत एक ऐसा सच है जिसे बांग्लादेश की सरकारें भी हमेशा ही छुपाती रही हैं..और अब जब वहां राजनीतिक अस्थिरिता है तो उसके बाद की स्थितियों में भी इन दलितों का सच पूरी तरह से सामने नहीं आ पा रहा है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)