डॉ. जफर दारिक कासमी
मदरसे समाज के शैक्षिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. लेकिन अक्सर कहा जाता है कि मदरसों को अपने मौजूदा पाठ्यक्रम में बदलाव लाने की जरूरत है ताकि समाज में अपेक्षित बदलाव हो सके. इसके लिए उन्हें अपनी शिक्षा प्रणाली में तुलनात्मक धर्मों के अध्ययन को शामिल करना चाहिए.
इससे सामान्य रूप से समाज और विशेष रूप से शैक्षणिक क्षेत्र पर बहुत प्रभाव पड़ेगा. समाज से सांप्रदायिक हिंसा और नफरत खत्म होगी और एक-दूसरे के धर्मों, विश्वासों और विचारों के प्रति सम्मान विकसित होगा.भारत में हम एक बहुलतावादी समाज में रहते हैं जहाँ विभिन्न धार्मिक और जातीय समूह शांति और सद्भाव के साथ सह-अस्तित्व में रहते हैं.
हम सुख-दुख साझा करते हैं. अगर हम एक-दूसरे के धर्मों, आस्थाओं, रीति-रिवाजों और विचारों का अध्ययन नहीं करेंगे तो दो समुदायों के बीच सामाजिक दूरियाँ और गलतफहमियाँ पैदा होंगी. सच तो यह है कि इस संबंध में कोई बड़ा प्रयास मजबूती से नहीं किया गया है. यही वजह है कि हमें इस बात का एहसास ही नहीं होता कि हमारे दिल और दिमाग में दूसरों के लिए कितनी गलतफहमियाँ पैदा हो गई हैं.
इसके अलावा इस विषय पर अकादमिक शोध कार्य भी किए जाने चाहिए.
आज दुनिया एक वैश्विक गांव बन गई है. शोध के दरवाजे पहले से कहीं ज्यादा खुले हैं. इसलिए मदरसों को इस सुविधा का भरपूर लाभ उठाना चाहिए ताकि वे दूसरे धर्मों के करीब आ सकें.
उन्हें दुनिया के धर्मों तक अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए अकादमिक शोध करने चाहिए. ऐसे विषयों पर काम करने से समाज में संतुलित सोच और नजरिया जरूर बढ़ेगा. जब हमारी सोच सकारात्मक और संतुलित होगी तो उसके नतीजे निश्चित रूप से बेहतर और संभव होंगे. सकारात्मक सोच के प्रभाव सिर्फ एक समय और स्थान तक सीमित नहीं रहते बल्कि उनके प्रभाव कालातीत हो जाते हैं.
यह बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि दूसरे धर्मों पर अध्ययन के मामले में मदरसा उत्पाद कुछ हद तक रूढ़िबद्ध हैं.
आज तुलनात्मक धर्मों पर उनके द्वारा किए गए शोध में सिर्फ इस्लाम को प्राथमिकता दी जाती है. ये शोध अपने लेखन में सांप्रदायिकता की वकालत करते हैं. हर कोई अंदाजा लगा सकता है कि यह रवैया और चरित्र समाज के लिए कितना बेकार है. असली इस्लाम की तस्वीर पेश करने की ज्यादा जरूरत है ताकि समाज को सही संदेश दिया जा सके.
लेकिन हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमें अपने देशवासियों और उनके धर्म के बारे में अपने ज्ञान और शोध गतिविधियों को भी बढ़ाना चाहिए ताकि मुसलमानों के बीच अन्य समुदायों के बारे में किसी भी तरह की गलतफहमी को खत्म किया जा सके. सामाजिक एकता और सांप्रदायिक अखंडता ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर मदरसों को काम करना चाहिए.
इसके लिए मदरसा संचालकों को अपने छात्रों में अन्य धर्मों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए किसी दिए गए विषय पर विस्तार व्याख्यान देने के लिए धार्मिक विशेषज्ञों को आमंत्रित करना चाहिए. यह ध्यान में रखना चाहिए कि यदि हिंदू धर्म पर चर्चा करनी है तो संस्कृत भाषा के विशेषज्ञ को आमंत्रित किया जाना चाहिए क्योंकि हिंदू धर्म का मूल साहित्य ज्यादातर संस्कृत में उपलब्ध है. कोई भी अन्य व्यक्ति हिंदू धर्म पर इतना संतुलित व्याख्यान नहीं दे सकता जितना कि संस्कृत विशेषज्ञ दे सकता है.
हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि नई शिक्षा नीति (2020) लागू की गई है. इस नीति में धार्मिक शिक्षा का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है. हालांकि, इस नीति में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिक्षकों की नियुक्ति के समय ऐसे लोगों को वरीयता दी जानी चाहिए जो इंडोलॉजी यानी भारतीय सभ्यता और इसकी धार्मिक विविधता से परिचित हों.
इस संदर्भ में मदरसा उलेमाओं को भी इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि क्या अब धर्मों के अध्ययन को औपचारिक रूप से पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए.
इसी प्रकार भारत की सभ्यता और इसके विविधतापूर्ण और बहुलतावादी समाज की मांग है कि हम परस्पर संवाद और सहिष्णुता के साथ रहें ताकि एक-दूसरे के धर्म को समझ सकें.
विभिन्न सभ्यताओं, धर्मों, रीति-रिवाजों और परंपराओं का व्यापक दृष्टिकोण से अध्ययन करना और उनका सम्मान सुनिश्चित करना आवश्यक है.
भारत एक ऐसी भूमि है जिसे ऋषियों, संतों, सूफियों के निवास के रूप में भी जाना जाता है जिन्होंने भारत जैसे बहुलतावादी समाज में शांति और सद्भावना और सद्भावना सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास किया है. आज भी उनके आध्यात्मिक विचार और विचार भारत को एकता और सहिष्णुता का संदेश दे रहे हैं. यदि मदरसे संवाद और धर्मों के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करते हैं तो समाज में निश्चित रूप से सद्भाव पैदा होगा.