प्रमोद जोशी
दक्षिण अफ्रीका में हुए ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में छह नए देशों को सदस्यता देने का फैसला हुआ है. अब अगले साल अर्जेंटीना, इथोपिया, ईरान, मिस्र, सऊदी अरब और यूएई भी ब्रिक्स के सदस्य बन जाएंगे. इन छह में से चार मुस्लिम देश हैं, जिनके साथ भारत के परंपरागत रूप से बहुत अच्छे रिश्ते हैं. फिर भी हमें बदलती परिस्थितियों को समझने की जरूरत होगी.
ईरान और सऊदी अरब को ब्रिक्स में शामिल करने के पीछे चीन की भूमिका है, जिसने इन दोनों देशों के बिगड़े रिश्तों को ठीक किया है. चीन ने इस इलाके में अपनी गतिविधियाँ तेज की हैं. यूएई और सऊदी अरब तथा इस इलाके के दूसरे देशों की दिलचस्पी तेल की अर्थव्यवस्था से हटकर नए कारोबारों में पूँजी निवेश करने की है.
इन देशों के हमारे साथ भी रिश्ते इसीलिए अच्छे हैं. दुनिया में आ रहे तकनीकी, कारोबारी और भू-राजनीतिक बदलावों के साथ हमें भी कदम मिलाकर चलने की जरूरत है.
चीन और रूस गैर-अमेरिका, गैर-यूरोप केंद्रित विश्व-व्यवस्था बनाने के पक्षधर हैं. इसी क्रम में डी-डॉलराइज़ेशन यानी डॉलर के विकल्प की बात कही जा रही है. ब्रिक्स में शामिल होने का न्योता मिलने के बाद ईरान ने कहा कि हम ब्रिक्स की उस नीति का समर्थन करते हैं, जिसमें डॉलर के बदले दूसरी करेंसी को साझा व्यापार के लिए प्रयोग में लाने की बात कही जा रही है.
ब्रिक्स का विस्तार
ब्रिक्स के नए संभावित सदस्यों की सूची में अनेक देशों के नाम थे, पर जिन देशों को आमंत्रण दिया गया है, उनके नाम देखने से लगता है कि भारत, चीन और रूस की इन छह नामों को तय करने में बड़ी भूमिका रही है. खासतौर से चार मुस्लिम देशों के नाम भारतीय राजनय की चुनौतियों और सफलताओं की ओर भी इशारा कर रहे हैं.
पिछले साल चीन ने अपनी अध्यक्षता के दौरान ब्रिक्स के विस्तार की पेशकश की थी. यह माना गया कि चीन अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार करना चाहता है. इस बीच कम से कम 13 देशों- अर्जेंटीना, नाइजीरिया, अल्जीरिया, इंडोनेशिया, मिस्र, बहरीन, सउदी अरब, मैक्सिको, ईरान, इराक, कुवैत, कतर, और यूएई ने औपचारिक रूप से सदस्य बनने की इच्छा व्यक्त की. इनके अलावा अनेक और देशों ने अनौपचारिक रूप से इच्छा व्यक्त की है.
अमेरिकी योजना
ऐसा लग रहा है कि पश्चिम एशिया अमेरिकी दबदबे से बाहर निकल रहा है. हाल के वर्षों में अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान से अपना ध्यान हटाकर हिंद-प्रशांत पर ध्यान केंद्रित किया है, वहीं चीन और रूस ने पश्चिम एशिया में अपनी उपस्थिति बढ़ा दी है. चीनी मध्यस्थता में ईरान और सऊदी अरब के राजनयिक रिश्तों का बहाल होना बड़ी परिघटना है.
हाल में सऊदी अरब के अपने दो दिवसीय दौरे से वापसी के बाद ईरानी विदेश मंत्री हुसैन अमीर अब्दुल्लाहियान ने कहा कि दोनों देशों के बीच दीर्घकालीन सहयोग के समझौते की तैयारी हो रही है. अमीर अब्दुल्लाहियान की सऊदी अरब की यह यात्रा एक दशक से भी अधिक समय में किसी ईरानी विदेश मंत्री की यह पहली यात्रा थी.
केवल सऊदी अरब और ईरान के रिश्ते ही नहीं सुधरे हैं, तुर्की और सऊदी रिश्तों में भी सुधार है. पिछले साल अप्रैल में तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगान ने सऊदी अरब का दौरा पर गए थे और फिर जून में सऊदी अरब के शहज़ादा और प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन-सलमान तुर्की गए थे.
नवंबर 2021में अबू धाबी के क्राउन प्रिंस और यूएई के वर्तमान राष्ट्रपति शेख़ मोहम्मद बिन ज़ायेद अल नाह्यान तुर्की गए थे और फ़रवरी 2022में तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान ने यूएई का दौरा किया था. इसी तरह सीरिया के साथ अरब देशों के रिश्तों में सुधार आया है.
तकनीक और निवेश
स्वतंत्रता के बाद से ही पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों के दोस्ताना रिश्ते भारतीय डिप्लोमेसी की सफलता के रूप में देखे जाते हैं. अब दुनिया में बदलाव का दौर है. ज्यादातर रिश्तों की बुनियाद में तकनीक और पूँजी की भूमिका है. सप्लाई चेन और सेमी कंडक्टर जैसी हाई-टेक्नोलॉजी रिश्तों को बनाने या बिगाड़ने में भूमिका निभाएंगे.
पिछले दो-तीन दशकों में चीन ने टेक्नोलॉजी के मामले में काफी प्रगति की है. अमेरिका और पश्चिमी देशों की तुलना में चीन से टेक्नोलॉजी हासिल करना आसान और सस्ता है. टेक्नोलॉजी के अलावा कारोबारों को चलाने के लिए सप्लाई चेन पर भी चीन का काफी कब्जा है. भारत के इलेक्ट्रॉनिक उद्योग का काफी हिस्सा चीन के सहारे है. दूसरी तरफ भारत अपने यहाँ सेमी कंडक्टर उद्योग लगा रहा है.
रक्षा-उद्योग
चीन ने हाल में यूएई को ड्रोन और हल्के विमान बेचे हैं. अमेरिका से इन्हें हासिल करने में दिक्कतें पैदा हो रही थीं. उसके साथ कई तरह की शर्तें होती हैं. चीनी टेलीकम्युनिकेशंस कंपनी ह्वावेई खाड़ी के देशों में काफी काम कर रही है. संभवतः वह पश्चिम एशिया में अपना मुख्यालय सऊदी अरब में स्थापित करेगी. यूएई और सऊदी अरब के अलावा बहरीन, कतर और कुवैत भी इसी दिशा में काम कर रहे हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि हथियारों और सुरक्षा के लिए अमेरिका पर ज़रूरत से अधिक निर्भरता को समाप्त करना और अर्थव्यवस्था को तेल के साथ दूसरी दिशाओं में ले जाने की योजना इसकी बड़ी वजह है. दोनों देशों ने पूरी तरह से खनिज तेल पर आधारित व्यवस्था को बदल देने की योजना बनाई है.
सऊदी अरब ने इसे विज़न-2030का नाम दिया है. इसमें करीब एक खरब डॉलर का निवेश होगा. इसमें निवेश करने और सऊदी अरब से निवेश लेने के लिए चीन तैयार है. सऊदी अरब और यूएई के भारत और ब्राज़ील से रिश्तों के पीछे भी यही बात है.
अमेरिका का विकल्प
इस दौरान अमेरिका और यूएई के बीच हाई-टेक रक्षा उपकरणों के लेकर टकराव भी पैदा हुआ है. खासतौर से एफ-35डील के अटकने से रिश्तों के कड़वाहट आई है. बहरहाल पश्चिमी देश सप्लाई चेन के मामले में चीन के विकल्प तैयार कर रहे हैं, जिनमें भारत की भूमिका भी शामिल है.
यूरोप में भी रक्षा-तकनीक के मामले में फ्रांस अब अमेरिका से प्रतियोगिता कर रहा है. उसका राफेल विमान अब पश्चिम एशिया में लोकप्रिय हो रहा है. इजरायल भी इन देशों के साथ संबंध बना रहा है.
इस दौरान भारत और इजरायल का तकनीकी-सहयोग काफी ऊँचे स्तर पर चला गया है. चीन को काफी तकनीक इजरायल से ही मिली है. भविष्य की डिप्लोमेसी में सभी देश स्वायत्तता और स्वतंत्रता पर जोर देंगे.
भारत की भूमिका
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जून के महीने में अमेरिकी की सफल-यात्रा से वापसी के समय मिस्र में रुके थे और जुलाई में फ्रांस की यात्रा से वापसी के समय यूएई में. यूएई में तो प्रधानमंत्री कई बार जा चुके हैं, पर मिस्र में उनकी यह पहली यात्रा थी, बल्कि यों कहें कि पिछले 26वर्षों में भारत के किसी प्रधानमंत्री यह पहली मिस्र-यात्रा थी.
अपने दौरे के पहले दिन जहां उन्होंने मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फतह अल-सीसी से मुलाक़ात की वहीं दूसरे दिन उन्होंने काहिरा में ऐतिहासिक अल-हाकिम मस्जिद का दौरा किया. 11वीं सदी की इस मस्जिद की मरम्मत का काम भारत में रहने वाले दाऊदी वोहरा समुदाय के लोगों की मदद से पूरा हुआ है. हाल के वर्षों में भारतीय विदेश-नीति का एक उद्देश्य मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों के साथ रिश्तों को बेहतर बनाने का रहा है.
मुस्लिम देशों से रिश्ते
भारत और इस्लामी देशों के बीच रिश्तों में नई गरमाहट देखने को मिल रही है. गणतंत्र दिवस पर मिस्र के राष्ट्रपति का मुख्य अतिथि बनना सिर्फ दिखावा भर नहीं था. तुर्की और सीरिया में इस साल आए भूकंप के बाद सबसे पहले सहायता का हाथ बढ़ाने वाले देशों में भारत भी था. सीरिया के साथ भारत के रिश्ते पहले से बेहतर हैं, पर तुर्की में उसकी पहले की सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई थी.
भारत ने विश्व के कई मुस्लिम देशों से अपने संबंध बेहतर किए. 2019में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370हटाने के बाद प्रधानमंत्री ने यूएई और सऊदी अरब का दौरा किया. उस समय तुर्की और मलेशिया के अलावा किसी मुस्लिम देश ने पाकिस्तान के समर्थन में बयान तक जारी नहीं किया. मलेशिया में उस समय महातिर मुहम्मद प्रधानमंत्री थे, जिनके आत्यंतिक दृष्टिकोण से बाद में मलेशिया की सरकार ने खुद को अलग कर लिया था.
पटरी बदली
जब इजराइल, यूएई और भारत के साथ अमेरिका ने आई2यू2 बनाया तो कुछ समय तक लगा कि सऊदी अरब भी इसमें शामिल होगा. ऐसा हुआ नहीं. संभवतः पटरी बदल चुकी है. राजनीतिक दृष्टि से भारत को अब इजरायल के साथ बढ़ती नजदीकियों पर रोक लगानी होगी.
इस इलाके में भारत को राजनीतिक समर्थन मिलता रहा है, जिसकी वजह से इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी में कश्मीर के मसले पर पाकिस्तानी कोशिशें सफल नहीं हो पाती हैं. पर अब इस इलाके में चीन के सक्रिय रहने से पाकिस्तानी कोशिशों को भी बल मिलेगा.
अमेरिका से कन्नी काटने और चीन को उसका स्थानापन्न बनाने की कोशिशें सफल भी हुईं, तो अगले एक दशक में भी वे किसी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचेंगी. सऊदी अरब का अमेरिका से मोहभंग हुआ है, पर चीन अब उसके वास्ते अमेरिका की जगह ले लेगा, ऐसा कहने के पहले कुछ समय देखना होगा कि होता क्या है.
फलस्तीन की समस्या
पश्चिम एशिया में राजनीतिक-दृष्टि से सबसे बड़ा काँटा फलस्तीन की समस्या है. पाँच साल पहले चीन ने फलस्तीनियों और इज़रायल के बीच शांति-वार्ता की पहल की थी. तब शी चिनफिंग ने इस समस्या के समाधान के लिए चार-सूत्री प्रस्ताव दिया था. इसके अलावा भी चीन इस समस्या के समाधान के प्रयास करता रहा है.
रिश्तों का फौरी तौर पर सामान्य हो जाना एक बात है और उसमें दूरगामी सुधार दूसरी बात है. यदि भविष्य में रिश्ते बिगड़े, तो उसके छींटे चीन पर भी पड़ेंगे. सऊदी-अरब और ईरान के रिश्तों के बाद क्या इज़रायल और ईरान के रिश्तों को सामान्य बनाने में चीन की कोई भूमिका होगी?
भारतीय विदेश-नीति को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उसने सबके साथ अच्छे रिश्ते बनाकर रखे. पाकिस्तान की नकारात्मक गतिविधियों के बावजूद. खासतौर से मुस्लिम देशों के संगठन ओआईसी में पाकिस्तान ने भारत के हितों पर चोट करने में कभी कसर नहीं रखी.
युद्ध नहीं, सहयोग
भारत ऊर्जा सुरक्षा के लिए पश्चिम एशिया पर निर्भर है. क़रीब 90लाख भारतीय खाड़ी देशों में काम करते हैं और अरबों डॉलर कमाकर देश में भेजते हैं. तकनीकी, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस इलाके का भारत के लिए महत्व है. भारत ने यूएई के साथ वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग के समझौते किए हैं. यूएई के अंतरिक्ष कार्यक्रम में भी भारत की भागीदारी है.
भारतीय नजरिए से पश्चिम एशिया ‘समस्या-क्षेत्र’ रहा है. पर पश्चिम एशिया ‘समस्याओं की जगह संभावनाओं का क्षेत्र’ बन सकता है. इलाके में अब युद्ध के बजाय सहयोग की बातें हो रही हैं. क्षेत्रीय देशों को तनाव को दूर करने और अपने पड़ोसियों के साथ जीने की जरूरत है.
( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )
अगले अंक में पढ़ें इस श्रृंखला का पाँचवाँ लेख:क्यों नहीं बन पाया दक्षिण-एशिया में सहयोग का माहौल ?
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