सामाजिक न्याय की खोज: अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक अल्पसंख्यक संस्था के रूप मे

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 19-11-2024
The Quest for Social Justice: Aligarh Muslim University as a Minority Institution
The Quest for Social Justice: Aligarh Muslim University as a Minority Institution

 

अब्दुल्लाह मंसूर

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट का 8नवंबर 2024 का फैसला एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ.सात न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से 1967के एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में दिए गए फैसले को पलट दिया.इस पुराने फैसले में कहा गया कि AMU को अल्पसंख्यक संस्था नहीं माना जा सकता.नए फैसले में स्पष्ट किया गया कि किसी संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा उसकी स्थापना के आधार पर निर्धारित होता है.

यदि किसी अल्पसंख्यक समुदाय ने संस्थान की स्थापना की है, तो वह संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है.इस निर्णय से AMU को अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है, लेकिन यह मामला अब तीन न्यायाधीशों की नियमित पीठ को सौंपा गया है, जो इस नए फैसले में निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर निर्णय करेगी.

पसमांदा आंदोलन का आरोप है कि अल्पसंख्यक संस्थान जैसे AMU केवल अशरफ वर्ग के हितों की पूर्ति करते हैं और पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते.यह लेख इस मुद्दे का विश्लेषण करेगा.देखेगा कि कैसे AMU अपने जन्म से ही मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय के खिलाफ खड़ा रहा है.

सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की, जो आधुनिक शिक्षा का केंद्र बना.हालांकि, यह संस्थान प्रारंभिक दिनों में केवल संभ्रांत मुसलमानों पर केंद्रित था.सर सैयद की दृष्टि में 'कौम' की अवधारणा में पसमांदा मुसलमान शामिल नहीं थे.उनकी प्राथमिकता अशराफ वर्ग के लिए थी, जो उच्च सरकारी पद प्राप्त कर सके.पाकिस्तानी इतिहासकार मुबारक अली के अनुसार, सर सैयद का उद्देश्य सामंती वर्ग को लाभ पहुंचाना था.

 मुबारक अली लिखते हैं कि सर सैयद की शिक्षा की पूरी योजना वर्गों पर आधारित थी.उच्च पश्चिमी शिक्षा को सर सैयद सिर्फ अशराफ लड़कों के लिए ही जरूरी समझते थे, जबकि पसमांदा जनता को सिर्फ धार्मिक शिक्षा में उलझाए रखना चाहते थे.अपनी इस सोच का प्रदर्शन वह बार-बार खुलकर करते थे.एक उदाहरण उस समय आया जब बरेली के ‘मदरसा अंजुमन-ए-इस्लामिया’ के भवन की नींव रखने के लिए सर सैयद साहब को बुलाया गया, जहां मुसलमानों की ‘नीच’ कही जाने वाली जाति के बच्चे पढ़ते थे.

इस अवसर पर उन्होंने कहा था कि ऐसे मदरसे में अंग्रेजी पढ़ाने का विचार एक बड़ी गलती है.(संदर्भ:सर सय्यद अहमद खानः व्याख्यान एवं भाषणों का संग्रह, संकलन: मुंशी सिराजुद्दीन, प्रकाशन: सिढौर-1892, ससंदर्भ अतीक सिद्दीकी: सर सय्यद अहमद खां एक सियासी मुताला, अध्याय: 8, तालीमी तहरीक और उसकी मुखालिफत, शीर्षक: गुरबा को अंग्रेजी तालीम देने का खयाल बड़ी गलती है, पृष्ठः 144,)

मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (AMU का पूर्ववर्ती) में छात्रावासों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था: उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग के छात्र.यह विभाजन सामाजिक असमानता को दर्शाता है.वहाँ सिर्फ़ पिछड़ी बिरादरियों के साथ ही अमानवीय और ग़ैर इस्लामी व्यवहार नहीं किया जाता था बल्कि तथाकथित शरीफ़ वर्ग को भी उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार विभिन्न समूहों में विभाजित किया गया था.

 हिंदुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान किताब के लेखक प्रोफेसर मसऊद आलम फलाही कहते हैं कि मैंने 1999से 2003 तक AMU में बी.ए. और बी.एड. की पढ़ाई करते हुए देखा कि यहाँ जात-पात की जड़ें काफी गहरी हैं.चतुर्थ श्रेणी (क्लर्क, बैरा अर्थात खाना खिलाने वाला, कुक तथा माली आदि) के पेशे यहाँ के माहौल में रज़ील (नीच) समझे जाते हैं.किसी को बैरा या माली कह देना शरीफाना गाली समझी जाती है. यहाँ तक कि प्रायः यह भी देखने में आता है कि बैरा एवं कुक तक स्वयं के इस पेशे के बारे में बताने में हिचकते हैं.

AMU में आज भी किसी महत्वपूर्ण प्रोफेशनल कोर्स जैसे मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में पिछड़ी जाति से संबंध रखने वाले छात्रों को आरक्षण नहीं दिया जाता.SC/ST और OBC छात्रों के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, जबकि खिलाड़ियों और कर्मचारियों के बच्चों को आरक्षण मिलता है.हालाँकि जाति का कॉलम फॉर्म पर मौजूद रहता है और विधार्थी अपनी जातियाँ भरते हैं.मैंने 2018में एक RTI  द्वारा अलीगढ़ में सामाजिक न्याय की जाँच के लिए आंकड़े मांगे आकड़े चौकाने वाले थे.

भारत में आरक्षण व्यवस्था चार मुख्य वर्गों में विभाजित है: अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग की है.इसके अलावा, अलीगढ़ जैसे अल्पसंख्यक संस्थान में अल्पसंख्यक वर्ग के लिए भी आरक्षण का प्रावधान है.

पसमांदा समुदाय के 85%लोग अक्सर ओबीसी या एसटी वर्ग में शामिल होते हैं.कोई भी ओबीसी, एससी या एसटी व्यक्ति सामान्य वर्ग से आवेदन कर सकता है,पर कोई  सामान्य वर्ग का विद्यार्थी ओबीसी एससी, एसटी वर्ग में आवेदन नहीं कर सकता.इसी तरह, मुस्लिम ओबीसी या एसटी व्यक्ति अल्पसंख्यक वर्ग में (बिना अपनी जाति बताए) आवेदन कर सकता है,इस तरह RTI से प्राप्त आंकड़ो से यह पता चलता है कि अल्पसंख्यक वर्ग दरअसल सामान्य वर्ग ही है.

2001-2002से 2017-2018के बीच कुल 5,01,507छात्रों को प्रवेश दिया गया.इस अवधि में वर्गवार वितरण पर नजर डालें तो सामान्य वर्ग के छात्रों की संख्या 4,57,918थी, जो कुल प्रवेश का 91.31%है.इसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के छात्रों की संख्या 39,054रही, जो 7.79%है.अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के छात्रों का प्रतिनिधित्व क्रमशः 4,273 (0.85%) और 262 (0.05%) था.प्रवृत्तियों में देखा गया कि सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक था.

OBC छात्रों का प्रतिशत दूसरे स्थान पर था, लेकिन यह केवल 7.79%था.SC और ST छात्रों का प्रतिनिधित्व बहुत कम रहा.वर्षवार विश्लेषण से पता चलता है कि 2001-2002में कुल प्रवेश 24,301था, जिसमें SC/ST छात्रों की संख्या मात्र 70 (0.29%) थी.

 2017-2018में कुल प्रवेश बढ़कर 33,879हो गया, जिसमें SC/ST छात्रों की संख्या 448 (1.32%) तक पहुंच गई.इन 17वर्षों में SC/ST छात्रों के प्रतिशत में मामूली वृद्धि हुई है, लेकिन यह अभी भी बहुत कम है.सामाजिक संरचनाओं और नीतियों ने भी सामान्य वर्ग को अधिक लाभान्वित किया है, जबकि अन्य वर्गों के लिए समान अवसरों की कमी रही है.

कर्मचारियों के वर्गीकरण में कुल 1,222शैक्षणिक कर्मचारी शामिल हैं, जिनमें अल्पसंख्यकों अर्थात अशराफ वर्ग का अनुपात सबसे अधिक है, जो 1,152 (94.27%) है.अन्य वर्गों में, OBC कर्मचारियों की संख्या 67 (5.48%) है, जबकि SC और ST कर्मचारियों की संख्या क्रमशः 2 (0.16%) और 1 (0.08%) है.

पदवार वितरण के अनुसार, प्रोफेसरों की कुल संख्या 463है, जिसमें से 446अल्पसंख्यक हैं, 1 SC और 16 OBC हैं.एसोसिएट प्रोफेसरों की संख्या 255है, जिनमें से 250अल्पसंख्यक और 5 OBC हैं.सहायक प्रोफेसरों की संख्या 504है, जिसमें 456 अल्पसंख्यक, 1 SC, 1 ST और 46 OBC शामिल हैं.यह आंकड़े दर्शाते हैं कि शैक्षणिक कर्मचारियों में अल्पसंख्यकों अशरफ वर्ग का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक है, जबकि अन्य वर्गों का प्रतिनिधित्व अपेक्षाकृत कम है.

गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों के वर्गीकरण में कुल 5,844कर्मचारी शामिल हैं, जिनमें सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक है, जो 3,910 (66.91%) है.अन्य वर्गों में, OBC कर्मचारियों की संख्या 1,470 (25.15%) है, जबकि SC और ST कर्मचारियों की संख्या क्रमशः 450 (7.70%) और 14 (0.24%) है.

समूहवार वितरण के अनुसार, समूह A में कुल 130कर्मचारी हैं, जिनमें से 128सामान्य वर्ग के और 2 OBC हैं.समूह B में 904कर्मचारी हैं, जिनमें 822सामान्य वर्ग के, 80 OBC और 2 SC हैं.समूह C में सबसे अधिक 4,810कर्मचारी हैं, जिनमें से 2,960सामान्य वर्ग के, 1,388 OBC, 448 SC और 14 ST हैं.यह आंकड़े दर्शाते हैं कि गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों में सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक है, जबकि OBC का भी महत्वपूर्ण योगदान है.SC और ST का प्रतिनिधित्व अपेक्षाकृत कम है.

प्राप्त RTI से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं

1:-पिछले 17वर्षों में SC/ST और OBC छात्रों का प्रतिनिधित्व बहुत कम रहा है.इसमें केवल मामूली सुधार हुआ है.यह दर्शाता है कि इन वर्गों के छात्रों के लिए उच्च शिक्षा में प्रवेश के अवसर सीमित रहे हैं.

2:-शैक्षणिक कर्मचारियों में अल्पसंख्यकों अशरफ वर्ग का प्रतिनिधित्व 94%से अधिक है, जो दर्शाता है कि इस क्षेत्र में अन्य वर्गों की तुलना में अल्पसंख्यकों अशराफ वर्ग का प्रभुत्व है.वहीं, SC/ST का प्रतिनिधित्व नगण्य है, जो विविधता की कमी को इंगित करता है.

3:-गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों में OBC और SC का प्रतिनिधित्व अपेक्षाकृत बेहतर है. हालांकि ST का प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है.यह इंगित करता है कि गैर-शैक्षणिक पदों विशेषत: समूह C पर कुछ हद तक विविधता मौजूद है.इस वर्ग समूह C की नौकरी को अशराफ वर्ग अच्छा नहीं मानता.

4:-उच्च पदों (समूह A और B) में SC/ST का प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य है.यह दर्शाता है कि इन वर्गों के लोगों को उच्च स्तर के पदों पर पहुंचने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिल रहे हैं, जिससे पदानुक्रम में असमानता बनी हुई है.

इन निष्कर्षों से स्पष्ट है कि संस्थान में विभिन्न वर्गों के बीच प्रतिनिधित्व की असमानता मौजूद है, जिसे दूर करने के लिए नीतिगत सुधार और समावेशी उपायों की आवश्यकता है.अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इतिहास और वर्तमान स्थिति यह दर्शाते हैं कि सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में अभी भी कई चुनौतियाँ हैं.

सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला एक सकारात्मक कदम हो सकता है, लेकिन इसे सही मायनों में लागू करना आवश्यक होगा ताकि पसमांदा समुदायों को समान अवसर मिल सके.इसके लिए न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक स्तर पर भी प्रयास करने होंगे ताकि AMU वास्तव में एक समावेशी शैक्षणिक संस्थान बन सके.

( लेखक pasmanda democracy के youtube चैनल के संचालक हैं. यह लेखक के विचार हैं.)