प्रमोद जोशी
वैश्विक-राजनीति में यूक्रेन और पश्चिम एशिया में शांति-प्रयासों ने एक कदम आगे बढ़ाया है वहीं दक्षिण एशिया में भारत और अफ़ग़ान तालिबान के बीच रिश्तों का नया अध्याय शुरू होने की संभावनाएँ दिखाई पड़ रही हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार वैश्विक-वास्तविकताओं को देखते हुए बड़ी तेजी से कदम बढ़ा रही है. अनुमान है कि प्रधानमंत्री मोदी की हाल की वाशिंगटन-यात्रा के दौरान भारत ने अमेरिकी-प्रशासन के सामने भी स्पष्ट किया कि हमारी अफ़ग़ान-नीति राष्ट्रीय हितों के अनुरूप है.
तथ्य यह है कि चालीस से अधिक देश, तालिबान के साथ किसी न किसी रूप में संपर्क में है या वे काबुल में राजनयिक रूप से प्रतिनिधित्व करते हैं. इस तथ्य ने भारत के संपर्कों के लिए आधार प्रदान किया. भारत इस इलाके के महत्वपूर्ण शक्ति है और उसे इस मामले में पिछड़ना नहीं चाहिए.
दूसरी तरफ ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, दक्षिण कोरिया, फ्रांस समेत कम से कम 16देशों ने तालिबान-नामित व्यक्तियों को अस्वीकार कर दिया है, और उनके यहाँ अब भी पुराने राजदूत काम कर रहे हैं.
विदेश सचिव की भेंट
गत 8जनवरी को भारत के विदेश-सचिव विक्रम मिस्री और तालिबान सरकार के विदेशमंत्री आमिर खान मुत्तकी के बीच हुई बैठक ने एक साथ कई तरह की संभावनाओं ने जन्म दिया था. काबुल में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से भारत सरकार का तालिबान के साथ वह उच्चतम स्तर का आधिकारिक-संपर्क था.
उसी बातचीत की परिणति है कि अब खबरें हैं कि दिल्ली में अफगानिस्तान का दूतावास खुलने वाला है, जिसका परिचालन दिसंबर 2023से बंद है. मुंबई और हैदराबाद में भी अफ़ग़ान वाणिज्य दूतावास हैं.
भारत, यदि तालिबान-नामित व्यक्ति को दिल्ली में अफ़ग़ान दूतावास का प्रमुख बनने की अनुमति देगा, तो वह चीन, पाकिस्तान, रूस, ईरान, यूएई, कतर और मध्य एशियाई देशों और कुछ अन्य देशों में सूची में शामिल हो जाएगा.
साउथ चायना मॉर्निंग पोस्ट के अनुसार तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार ने दिल्ली में अफगान दूतावास का प्रभार संभालने के लिए दो संभावित उम्मीदवारों की पहचान की है. उसके पहले फरवरी के आखिरी हफ्ते में अफ़ग़ान मीडिया अमू टीवी ने खबर दी थी कि तालिबान विदेश मंत्रालय और भारत सरकार एक समझौते के करीब हैं, जिसके तहत नई दिल्ली में अफगानिस्तान के दूतावास का नियंत्रण तालिबान को सौंप दिया जाएगा.
वैश्विक मान्यता में अड़चनें
ज्यादा बड़ा मसला अफगानिस्तान को वैश्विक-मान्यता से जुड़ा है, जो अमेरिकी सहयोग के बगैर संभव नहीं. दुनिया के किसी भी देश ने औपचारिक रूप से तालिबान-शासन को मान्यता नहीं दी है.भारत सरकार को इस सिलसिले में सभी तरह के विचारों को ध्यान में रखना होगा.
अफगानिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटेजिक स्टडीज (जो अब लंदन में स्थित है) द्वारा मैड्रिड में हाल में आयोजित हेरात सुरक्षा वार्ता को दौरान निर्वासित अफ़ग़ान वक्ताओं ने भारत सरकार से आग्रह किया कि तालिबान के साथ रिश्ते न बनाए.
काबुल पर तालिबान के नियंत्रण के बाद से निर्वासित अफ़ग़ानों और पश्चिमी देशों के संवाद का यह मंच है. इस फोरम में ऐसी राय भी व्यक्त करने वाले भी थे कि तालिबान से बातचीत करना इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि वह वास्तविकता है. उसे मान्यता दिए बगैर संबंध बनाने चाहिए.
तालिबान-प्रशासन अपनी तरफ से भी तमाम देशों के साथ संपर्क कायम कर रहा है. तालिबान नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल गत 16फरवरी 2025को उच्च स्तरीय वार्ता के लिए जापान गया. सप्ताह भर की यह यात्रा तालिबान प्रशासन के सबसे उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय जुड़ावों में से एक है.
अमेरिका में ट्रंप-प्रशासन का सारा ध्यान इस समय पश्चिम एशिया और यूक्रेन पर है, पर इस विमर्श में अफ़ग़ानिस्तान भी एक महत्वपूर्ण कड़ी है. ईरान, पाकिस्तान और मध्य एशिया के देशों से घिरा यह देश आने वाले वर्षों में आर्थिक-गतिविधियों और इस्लामिक-आतंकवाद पर नियंत्रण का महत्वपूर्ण केंद्र बनेगा.
कदम-कदम पर सावधानी
विश्व-समुदाय ने तालिबान प्रशासन को मान्यता नहीं दी है, इसलिए भारत सरकार हाथ बचाकर ही काम करेगी. संभवतः नई दिल्ली स्थित दूतावास को पहले की तरह अफ़ग़ानिस्तान के ‘इस्लामी गणराज्य’ के दूतावास के नाम से ही पहचाना जाएगा, ‘इस्लामी अमीरात’ के रूप में नहीं, जिस नाम का वरण तालिबान-प्रशासन ने किया है.
संकेत हैं कि भारत सरकार किसी ऐसे व्यक्ति के नाम पर सहमत होगी, जिसके साथ पहले से संबंध रहे हों. पिछले साल नवंबर में भारत ने मुंबई वाणिज्य दूतावास में तालिबान-नामित इकरामुद्दीन क़ामिल की नियुक्ति को स्वीकार कर लिया था, क्योंकि उनके साथ पहले से संपर्क रहा है.
तालिबान के झंडे की अनुमति फिर भी नहीं होगी, अफ़ग़ान गणराज्य के काले, लाल और हरे रंग के ध्वज को ही मान्यता देगी. दूतावास खुलने के बाद भी संभवतः दिल्ली में तालिबान-प्रतिनिधि को राजनयिक का औपचारिक दर्जा नहीं मिलेगा. दफ्तर, कार्यक्रमों या आधिकारिक वाहनों पर तालिबान की झंडा नहीं लगेगा.
अनेक पेचीदगियाँ
ऐसी अन्य पेचीदगियाँ भी हैं. इसीलिए लगता है कि बहुत सी औपचारिकताओं से अभी बचा जाएगा. संभावित समझौते के तहत अफगानिस्तान में भी भारत के दूतावास और वाणिज्य दूतावासों में कामकाज पूरी तरह से शुरू होगा. वहाँ काम करने वालों की सुरक्षा-गारंटी तालिबान देगा.
इस साल जनवरी में विदेश सचिव और अफ़ग़ान विदेशमंत्री की बैठक के पहले तक संयुक्त सचिव स्तर के एक भारतीय अधिकारी मुत्तकी और रक्षामंत्री मोहम्मद याकूब सहित तालिबान के मंत्रियों से मिलते रहे हैं. लेकिन विदेश सचिव की मुलाकात से रिश्तों को एक नया आयाम मिला था.
उस मुलाकात के पहले भारत ने पाकिस्तानी वायुसेना द्वारा अफगानिस्तान के पक्तिका प्रांत में किए गए हमलों की निंदा करके प्रतीक रूप में संकेत दे दिया था कि वह किसी बड़ी राजनयिक-पहल के लिए तैयार है.
भारत की सुरक्षा-चिंताओं के बरक्स भी तालिबान से संपर्क ज़रूरी है. तहरीके तालिबान पाकिस्तान की गतिविधियों के कारण पाकिस्तान और तालिबान के बीच तनाव है. तालिबान ने इस साल की शुरुआत में पाकिस्तान पर इस्लामिक स्टेट-खुरासान के प्रमुख सदस्यों को शरण देने का आरोप लगाया था.
डिप्लोमैटिक रिश्ते
क्षेत्रीय गतिशीलता को देखते हुए भारत ने तालिबान के साथ संपर्कों को बढ़ाया है. मध्य एशिया में रूस के बदलते रुख, चीन और पाकिस्तान की स्थिति और अमेरिका का ध्यान केंद्रित होने से स्थिति बेहद संवेदनशील हो गई है. प्रमुख क्षेत्रीय शक्ति के रूप में, भारत इन भू-राजनीतिक बदलावों में पीछे रह जाने का जोखिम नहीं उठाएगा.
इसे चीन के बढ़ते प्रभाव के जवाब के रूप में भी देखा जा रहा है. व्यावहारिक बात यह भी है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण करीब-करीब पूरा हो चुका है. काबुल में चीन, पाकिस्तान, रूस समेत कुछ देशों के दूतावास चल भी रहे हैं. भारतीय दूतावास में भी एक तकनीकी टीम काम कर रही है.
नई वास्तविकताएँ
वैश्विक-राजनीति की नई वास्तविकताओं के साथ भारत सरकार भी तादात्म्य बैठा रही है. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान की वास्तविकता को जल्दी पहचाना और तालिबान के साथ अपने रिश्तों को सावधानी से आगे बढ़ाया है.
तालिबान के साथ भारत के बढ़ते रिश्तों की सबसे बड़ी वजह है राष्ट्रीय हित, जो अफ़ग़ानिस्तान, ईरान से होते हुए मध्य एशिया के देशों तक जाते हैं. चीन, पाकिस्तान और रूस सहित कुछ देशों ने तालिबान के राजनयिकों को स्वीकार किया है. हाल में तालिबान-प्रतिनिधिमंडल जापान होकर भी आया है.
पिछले साल 30जनवरी को चीन ने असदुल्लाह बिलाल करीमी को अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत के रूप में स्वीकार कर लिया था. चीन ने इसके फौरन बाद एक स्पष्टीकरण भी जारी किया कि राजदूत के परिचय पत्र को स्वीकार करने का मतलब देश के रूप में मान्यता देना नहीं है.
सहायता कार्यक्रम
अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आने के बाद से भारत ने 50,000मीट्रिक टन गेहूँ, 300टन दवाइयाँ, 27टन भूकंप राहत सहायता, 40,000लीटर कीटनाशक, 10करोड़ पोलियो खुराक, 1.5लाख कोविड वैक्सीन, नशा मुक्ति कार्यक्रम के लिए 11,000यूनिट स्वच्छता किट, 500यूनिट सर्दियों के कपड़े और 1.2टन स्टेशनरी किट सहित कई खेप भेजी हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में प्रशासन किसी का भी रहा हो, पर भारत की छवि हमेशा अच्छी रही है. अगस्त 2021में सत्ता परिवर्तन के कुछ समय बाद ही जब मानवीय सहायता की ज़रूरत महसूस की गई, तब भारत ही आगे आया.
काबुल में तालिबान के नियंत्रण के बाद विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी जेपी सिंह के बीच कम से कम चार बैठकें हुईं. पर भारत ने अपना पहला कदम 31अगस्त, 2021को ही उठा लिया था, जब कतर में उसके राजदूत दीपक मित्तल ने तालिबान के दोहा कार्यालय के प्रतिनिधियों से मुलाकात की, जिसका नेतृत्व शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ाई कर रहे थे.
उस बैठक में तालिबान अधिकारियों ने साफ कहा था कि पिछले 20वर्षों में अनुमानित तीन अरब डॉलर की भारत की परियोजनाएं बेहद उत्पादक रही हैं और हम चाहेंगे कि भारत, अफ़गानिस्तान में निवेश करता रहे.
भारत का महत्व
हमें व्यावहारिक बातों पर भी विचार करना चाहिए. हम अफ़गानिस्तान की आंतरिक राजनीति को बदल नहीं सकते. इसलिए हमें काबुल की सत्ता में आने वाली किसी भी सरकार के साथ संपर्क बनाकर रखना चाहिए. बेशक तालिबान के दमनकारी शासन पर अपने दृष्टिकोण को भी स्पष्ट करते रहना चाहिए.
भारत को अफगानिस्तान के अंदर सकारात्मक बदलावों को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त अरब अमीरात और अन्य उदार अरब राज्यों के साथ काम करना चाहिए. इसके साथ ही तालिबान के सत्ता में आने के बावजूद भारत को अफगानिस्तान में अपने पुराने मित्रों को भूलना नहीं चाहिए.
केवल 1996 से 2001 के तालिबान शासन को छोड़ दें, तो अफगानिस्तान के साथ भारत के रिश्ते हमेशा अच्छे रहे हैं. दूसरी तरफ 1947 में भारत के विभाजन के बाद उनके पाकिस्तान के साथ शायद ही कभी अच्छे रिश्ते रहे हों. 1947 में अफगानिस्तान अकेला देश था, जिसने पाकिस्तान को संरा का सदस्य बनाने का विरोध किया था.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)