- हरजिंदर
कई कारणों से महाराष्ट्र के यवतमाल की आदिबा अमन का नाम उस तरह से खबरों में नहीं आ सका जिस तरह से आना चाहिए था. लेकिन आदिबा ने जो उपलब्धि हासिल की है वह काफी महत्वपूर्ण है. उसके पिता यवतमाल में रिक्शा चलाते हैं और कमजोर माली हालत के बावजूद आदिबा ने इस बार आईएएस की परीक्षा में कामयाबी हासिल कर ली है.
वह महाराष्ट्र के पूरे इतिहास की पहली मुस्लिम लड़की है जिसने इस परीक्षा के फाइनल में कामयाबी हासिल की है. वैसे और भी मुस्लिम लड़कियां हैं जिन्होंने इस परीक्षा को पास किया है. इनमें इमरान चौधरी है, फरखंदा कुरैशी है, लेकिन जिस तरह की पृष्ठभूमि आदिबा की है वह उसकी कहानी को सबसे महत्वपूर्ण बनाती है.
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मुस्लिम लड़कों की बात की जाए तो उनमें से भी कईं की मेहनत रंग लाई है. यहां उनमें से एक वसीम उर रहमान का जिक्र जरूरी है. वसीम की खास बात यह है कि वे एमबीबीएस डॉक्टर हैं और दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में बतौर जूनियर डॉक्टर काम कर रहे हैं.
आप अगर देश के किसी भी भीड़ वाले सरकारी अस्पताल में जाएं तो वहां सबसे ज्यादा मेहनत जो करते हैं वे जूनियर डाॅक्टर ही होते हैं. कईं बार तो इन डॉक्टरों को खाने और आठ घंटे सोने तक की फुरसत नहीं मिलती.
इतना व्यस्त होने के बावजूद वसीम ने मेहनत की और देश की सबसे कठिन समझी जाने वाली परीक्षा को पास किया तो यह कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है.माना जाता है कि ये ऐसी परीक्ष़्एं हैं जिनमें आखिर में मेहनत ही रंग लाती है और मेहनत को किसी समुदाय के हिसाब से नहीं देखना चाहि.
लेकिन इस पर ध्यान देना तब जरूरी हो जाता है जब किसी समुदाय की कामयाबी की दर कम हो रही हो या बहुत ज्यादा हो गई हो. तब इन कारणों की पड़ताल जरूरी हो जाती है कि किसी समुदाय के बहुत ज्यादा पिछड़ने के पीछे वजह क्या है?
इस बार आईएएस की फाइनल परीक्षा में चुने गए कुल 1009 लोगों में मुस्लिम समुदाय से 30 लोग चुने गए. पिछली बार यह संख्या 50 थी. 2021 में समुदाय के सिर्फ 25 लोगों का चयन हुआ था लेकिन प्रतिशत में वह ज्यादा था क्योंकि तब सिर्फ 685 लोगों का चयन ही होना था.
पिछले दो दशक के आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद कुछ लोगों ने यह नतीजा निकाला है कि आईएएस परीक्षा में चुने जाने वाले मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या धीरे-धीरे ही सही पर लगातार कम हो रही है.
पिछले कुछ साल में ऐसी खबरें लगातार सुनने में आती रहीं कि समुदाय के कुछ सामाजिक संगठन आईएस समेत विभिन्न कंपटीटिव परीक्षाओं के लिए कोचिंग चला रहे हैं जिनमें मुस्लिम समुदाय के नौजवानों को इन परीक्षाओं को पास करने की मुफ्त शिक्षा दी जाती है.
कुछ साल पहले तक जब नतीजे अच्छे आ रहे थे तो ये संस्थाएं इसका श्रेय लेने के लिए भी आगे आ रही थीं.. अब जब नतीजे उतने अच्छे नहीं हैं तो क्या कुछ जिम्मेदारी इन संस्थाओं की नहीं बनती?
यहां एक और चीज का जिक्र भी जरूरी है. जब नतीजे अच्छे आ रहे थे तो नफरत फैलाने वालों ने इसे मुद्दा बनाने की भी कोशिश की थी. तब सिविल सर्विसेज़ जेहाद जैसे शब्द भी गढ़े गए थे. हालांकि इसका कोई खास असर नहीं पड़ा, पड़ना भी नहीं था.हालांकि पहले भी जो नतीजे थे वे बहुत संतोषजनक नहीं थे लेकिन अब जो नतीजे आ रहे हैं उन पर विचार जरूरी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)