हरजिंदर
यह कहानी 17 सदी के शुरुआती दौर की है. जब सिखों के छठे गुरु हरगोबिंद जी ने गुरुगद्दी संभाली तो वह दौर खत्म हो चुका था जब अकबर ने सभी धर्मों को पास लाने की बड़ी कोशिशें की थी. जहांगीर के शासनकाल में तरह-तरह के वैमनस्य पूरे भारत में ही सतह पर आने लगे. हरगोबिंद जी को बहुत जल्दी यह समझ में आ गया कि जिस तरह के खतरे चारो ओर हैं सिर्फ आध्यात्म के भरोसे काम चलने वाला नहीं है.
इसके बाद गृरु हरगोबिंद जी ने दो तलवारे पहननी शुरू कर दीं. वे कहते थे इनमें एक पीरी की तलवार है और दूसरी मीरी की. यानी एक अध्यात्म की तलवार है और दूसरी सत्ता की. इस दौरान उन्होंने एक सेना भी तैयार की और उन्हें कईं युद्ध भी लड़ने पड़े.
ऐसे ही एक युद्ध अभियान के बाद उन्होंने ब्यास नदी के किनारे डेरा जमाया. जल्द ही यहां एक बड़ी बस्ती बन गई. जिसे नाम दिया गया हरगोबिंदपुर. अगर हम होशियारपुर से बटाला की तरफ जाएं तो नदी पार करते ही हम हरगोबिंदपुर पहंुच जाते है.
वहां की आबादी में सभी धर्मों के लोग थे. वहां मंदिर भी बन गया और गुरुद्वारा भी. मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या कम थी और उनके लिए इबाबत की कोई जगह नहीं थी. इतनी कम संख्या होने के कारण यह संभव नहीं था कि वे खुद अपने लिए मस्जिद बनवा पाते. वे गुरु जी के पास गए और उन्हें अपनी समस्या बताई.
गुरु हरगोबिंद जी ने अपने साथियों को निर्देश दिया कि मुस्लिम भाइयों के लिए मस्जिद बनाई जाए. जल्द ही ब्यास नदी के किनारे एक छोटी सी पहाड़ी पर इस मस्जिद का निर्माण हो गया। आने वाले कईं सौ साल तक इस मस्जिद से अजान की अवाज सुनाई देती रही.
लेकिन 1947 के बाद यह मस्जिद वीरान हो गई. हरगोबिंदपुरा के सारे मुस्लिम परिवार विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए. जो इमारत बची उसका संबंध क्योंकि गुरु जी से था इसलिए निंहग सिखों ने वहां एक गुरुद्वारा बना दिया. अब वहां सुबह-शाम गुरबाणी के स्वर गूंजने लगे.
बीसवीं सदी के आखिरी दशक में पंजाब वक्फ बोर्ड के मुहम्मद रिजवानुल हक वहां आएं और तमाम सिख नेताओं से मुलाकात की. उन्होंने अनुरोध किया कि यह मस्जिद क्योंकि गुरु जी के आदेश पर बनी थी इसलिए इसे मस्जिद ही रहने दिया जाए. सिख नेताओं ने कईं इतिहासकारों से संपर्क किया और उन्होंने भी वही बात कही जो रिजवानुल हक कह रहे थे.
जल्द ही सहमति भी बन गई. एक बार फिर कार सेवा शुरू हुई और उस मस्जिद का जीर्णोंद्धार किया गया. पंजाब वक्फ बोर्ड के कुछ लोग भी वहां आए लेकिन ज्यादातर कार सेवा सिखों ने ही की.
कार सेवा पूरी हुई तो मस्जिद पहले की तरह ही तैयार थी. यह साल 2002 की बात है, उस साल ईद मार्च महीने में थी. यह तय हुआ कि सबसे पहले यहां ईद की नमाज ही पढ़ी जाएगी. इसके लिए खासतौर पर अमृतसर की जामा मस्जिद के इमाम मौलान हामिद हुसैन कासमी को बुलाया गया. यह एक ऐसी ईद की नमाज थी जिसके उदाहरण बहुत कम ही मिलते हैं.
आज भी हरगोंिबंदपुर में मुस्लिम आबादी नहीं है लेकिन यह मस्जिद शान से खड़ी है. इसे गुरु की मसीत नाम दिया गया. इसकी देख-रेख का काम कुछ निहंग सेवादार करते हैं. कुछ ही समय पहले यूनेस्को ने इसे वल्र्ड हेरिटेज घोषित कर दिया.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)