पल्लवी भारती
पूरी दुनिया में इस समय पर्यावरण और इससे जुड़े मुद्दे सबसे अहम माने जा रहे हैं. विशेषकर घरों से निकलने वाला कचरा सबसे अधिक संवेदनशील मुद्दा बना हुआ है. इससे न केवल वातावरण बल्कि मानव सभ्यता भी प्रभावित हो रही है. एक अनुमान के मुताबिक अकेले भारत में ही प्रतिदिन डेढ़ लाख मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है. जिसमें 90 फीसद का उचित निस्तारण होता है, बाकी अपशिष्ट पदार्थ खुले वातावरण में छोड़ दिए जाते हैं.
जिनसे कई प्रकार की गंभीर बीमारियां उत्पन्न होती हैं. कचरा प्रबंधन की यह समस्या केवल शहरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश के ग्रामीण क्षेत्र भी इससे प्रभावित हो रहे हैं. कचरा प्रबंधन तंत्र की पर्याप्त सुविधाओं का नहीं होना और जागरूकता की कमी के कारण यह समस्या लगातार विकट होती जा रही है. देश के अन्य ग्रामीण इलाकों की तरह बिहार के मुजफ्फरपुर के कई ग्रामीण इलाके भी अब इस समस्या से जूझ रहे हैं.
हालांकि भारत के ग्रामीण क्षेत्र अपनी प्राकृतिक सुंदरता, सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं के लिए माना जाता है. लेकिन शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के प्रभाव से अब ये क्षेत्र भी कचरा प्रबंधन की गंभीर समस्या का सामना कर रहे हैं.
इस संबंध में मुजफ्फरपुर के मड़वन ब्लॉक स्थित गोरियरा गांव के 52 वर्षीय किसान किशन शर्मा बताते हैं कि पहले गांव में कचरे की मात्रा कम हुआ करती थी. जिसका निपटान लोग आसानी से कर लिया करते थे. चूंकि पहले ऐसे पदार्थों का उपयोग किया जाता था जो प्रकृति में आसानी से घुल जाया करता था.
इसलिए पहले के लोग कचरे को गड्ढे में डाल कर उसका प्राकृतिक खाद बनाया करते थे, जिसका उपयोग खेतों में खाद के रूप में किया जाता था. यह पूरी तरह से एक प्राकृतिक प्रक्रिया हुआ करती थी. लेकिन अब इन प्राकृतिक पदार्थों की जगह प्लास्टिक ने ले ली है. जो न केवल सेहत बल्कि प्रकृति के लिए भी हानिकारक बन चुका है.
वहीं 71 वर्षीय बुजुर्ग महिला रेशमी देवी अनुभव के आधार पर बताती हैं कि हमारे समय में तो गांव में इतना कचरा होता ही नहीं था. प्लास्टिक का उपयोग करना लोग जानते ही नहीं थे. इसके स्थान पर लोग कपड़े के बने झोला का उपयोग किया करते थे.
इसके अतिरिक्त दौरी (बांस की बनी टोकरी) का भी अधिकाधिक उपयोग किया जाता था. ऐसे में प्रकृति को नष्ट करने वाले कारकों का उपयोग नहीं होता था. जिससे कचरा निस्तारण की समस्या गंभीर नहीं होती थी.
एक अन्य ग्रामीण वीरेंद्र साह बताते हैं पुराने ज़माने में लोग कचरे को निपटाने के लिए कई तरीके इस्तेमाल करते थे. जो पूरी तरह से प्राकृतिक हुआ करता था. इनमें से कुछ तरीके आज भी इस्तेमाल किए जाते हैं, लेकिन प्लास्टिक के आने से अब यह पर्यावरण के लिए हानिकारक हो चुके हैं.
वीरेंद्र साह कहते हैं कि आधुनिकता के नाम पर प्लास्टिक ने अपनी जगह ले ली है. जिसका न केवल निस्तारण बल्कि रिसाइकिल भी प्रकृति और वातावरण को नुकसान पहुंचा रहा है. प्लास्टिक ने खेतों की उर्वरा शक्ति को भी प्रभावित किया है.
अक्सर लोग इस्तेमाल के बाद प्लास्टिक को खुले में छोड़ देते हैं जो हवा के साथ उड़कर खेतों में पहुंच रहा है. वह कहते हैं कि हमें कचरे को निपटाने के लिए पर्यावरण-मित्र तकनीकों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है. हमें कंपोस्ट बनाने, रीसाइक्लिंग करने और कचरे को सही तरीके से निपटाने के ऐसे माध्यमों को बढ़ावा देने की ज़रूरत है जिससे प्रकृति को किसी प्रकार का नुकसान न पहुंचे और इंसानी ज़रूरतें भी पूरी होती रहें.
वहीं सलाहपुर गांव की 35 वर्षीय निर्मला देवी कहती हैं कि कचरा फेंकने का कोई निश्चित स्थान नहीं होने के कारण लोग जहां तहां खुले में घर का कचरा फेंक देते हैं. जिससे निकलने वाली बदबू पूरे गांव के वातावरण को दूषित कर रही है.
इसके कारण लोग पहले की अपेक्षा अधिक बीमार हो रहे हैं. विशेषकर इसका सबसे बुरा प्रभाव छोटे बच्चों की सेहत पर पड़ रहा है. वह कहती हैं कि सरकार की ओर से गांव में कचरा उठाने वाली गाड़ी की व्यवस्था है, लेकिन नियमित रूप से गाड़ी के नहीं आने से लोग खुले में कचरा फेंक देते हैं.
निर्मला कहती हैं कि पहले की तुलना में गांव अधिक विकसित हो गया है. पक्की सड़कें बन गई हैं. बिजली की व्यवस्था सुधर गई है. जल जीवन मिशन के तहत पीने का साफ़ पानी उपलब्ध हो रहा है. लेकिन दूसरी ओर कचरा निपटान के मामले में लोग और भी अधिक पिछड़ते जा रहे हैं. जिसके लिए समाज को ही पहल करनी होगी.
वहीं समाजसेवी कैलाश कहते हैं कि कुछ साल पहले इस चीज को सुधारने और गांव में जन जागरूकता अभियान चलाने के उद्देश्य से मानव श्रृंखला भी बनाई गई थी. लेकिन इसका कोई विशेष लाभ नहीं हुआ. अभी तो हालत ऐसी हो गई है कि पहले की अपेक्षा गांव में और अधिक कचरा फैलने लगा है.
जिससे बीमारी फैलाने वाले मक्खी और मच्छर बढ़ते जा रहे हैं. जो स्वास्थ्य के दृष्टि से चिंता का विषय है. कैलाश बताते हैं कि राज्य सरकार की ओर से प्रत्येक जिला में एक वेस्ट प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित किया गया है. मुजफ्फरपुर ज़िले का कचड़ा निपटापन के लिए मड़वन प्रखंड के रौतिनियां गांव में प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित किया गया है.
जिस पर सुचारू रूप से काम जारी है. विज्ञान में रुचि रखने वाली निलामबरी गुप्ता कहती हैं कि पहले गांव के लोग प्रकृति से जुड़े थे और वैज्ञानिक पद्धतियों का उपयोग करते हुए कचरे के निस्तारण की व्यवस्था करते थे. यहां तक कि भोजन पकाने वाली लकड़ी को जलाने के बाद उसके बचे हुए राख को खेतों में इस्तेमाल किया जाता था क्योंकि इसमे प्रमुख रूप से कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस और सल्फर होता है जो हमारे खेत या फसल के लिए आवश्यक माइक्रोन्यूट्रिएंट (सूक्ष्म तत्व) प्रदान करती है. लेकिन अब लोग इसे फेंक देते हैं.
एक आंकड़े के अनुसार बिहार में प्रतिदिन 6500 से 6800 मीट्रिक टन कचरा निकलता है. लेकिन इनमें से मात्र 11 फीसदी की ही प्रोसेसिंग हो पाती है. बाकी कचरा लैंडफिल में चला जाता है, जिसके चलते शहर से लेकर गांव तक कूड़े के ढ़ेर लगते जा रहे हैं.
हालांकि जुलाई 2024 में प्रकाशित खबर के अनुसार लोहिया स्वच्छ बिहार अभियान के दूसरे चरण में ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस और तरल अपशिष्ट (कचरा) प्रबंधन के लिए 5489 ग्राम पंचायतों के 74326 वार्डों में कार्य प्रारंभ हो चुका है.
इसके अलावा इस वित्तीय वर्ष में शेष 2534 ग्राम पंचायतों के 35 हजार वार्डों में ठोस कचरा प्रबंधन की व्यवस्था की जानी है. इसके लिए वित्तीय वर्ष 2024-25 में कुल 40 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे. राज्य के 8053 ग्राम पंचायतों के एक लाख नौ हजार 332 वार्डों से कचरा उठाया जाना है.
पंचायती राज विभाग द्वारा हर वार्ड में ठोस व तरल कचरा उठाव की व्यवस्था करने की तैयारी की है. गांवों में भी शहर की भांति साफ रखने और उसके परिवहन की व्यवस्था की गयी है.अभी तक राज्य भर में गांवों से कचरा उठाव और परिवहन के लिए ग्राम पंचायत स्तर पर 5584 इ-रिक्शा और 76345 पैडल रिक्शा का उपयोग किया जा रहा है.
ठोस कचरा का समुचित निष्पादन के लिए ग्राम पंचायत स्तर पर अपशिष्ट प्रसंस्करण इकाई का निर्माण किया जा रहा है. राज्य में अभी तक 4018 ग्राम पंचायतों में वेस्ट प्रोसेसिंग यूनिट का निर्माण किया जा चुका है. गांवों में प्लास्टिक से खेतों को नुकसान हो रहा है.
इसे ध्यान में रखते हुए प्लास्टिक का भी प्रबंधन की व्यवस्था की जा रही है. विभाग द्वारा प्लास्टिक अपशिष्ट के निपटारे के लिए प्रखंड व अनुमंडल स्तर पर अब तक 133 प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन निर्माण केंद्र का निर्माण किया जा चुका है.
सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास सराहनीय है. इससे सतत विकास के लक्ष्य को समय रहते प्राप्त करने में भी आसानी होगी. लेकिन केवल प्रशासनिक स्तर पर उठाये जाने वाले क़दमों से स्वच्छता लाना मुमकिन नहीं है. इसे सफल बनाने के लिए सामाजिक स्तर पर जागरूकता फैलाने की भी आवश्यकता है. नए साल में हम जीवन के कई नए संकल्प लेते हैं. इस नए साल गांव को कचरा मुक्त बनाने का संकल्प लें.