कुरबान अली
सन 1978-79 के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे जेड ब्रेजेंस्की ने एक इंटरव्यू में 1979 में अफगानिस्तान में यूएसएसआर (सोवियत) फौजों के दाखिल होने के बारे में कहा था कि ‘हमने वहां यूएसएसआर (रुसी) फौजों के लिए एक जाल बिछाया था और वह उसमें फंस गया.‘ साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका ने सोवियत रूस विरोधी मुजाहिदीन को आर्थिक रूप से मदद पहुंचाई थी.
इस बारे में राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 3 जुलाई 1979 को एक खुफिया दस्तावेज पर दस्तखत किए थे. उल्लेखनीय है कि सोवियत रूस की फौजें दिसंबर 1979 में अफगानिस्तान में दाखिल हुई थी. उनका विरोध करने वालों में ओसामा बिन लादेन और उसके लड़ाके भी शामिल थे. इन लड़ाकों को एक दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने भी मदद दी थी.
1980 के दशक में ईरान-इराक के बीच युद्ध हुआ. इस युद्ध में अमेरिका ने खुलकर इराक का समर्थन किया. यहां तक की उसपर इराक को रासायनिक हथियार तक उपलब्ध कराने के आरोप लगे. बाद में 1990 के खाड़ी युद्ध में जो कुवैत पर इराक के हमले से शुरू हुआ अमेरिका ने खुलकर उसमें हिस्सा लिया. सऊदी अरब सहित कई अरब देशों को जिनमें कुवैत और कतर भी शामिल हैं, उनकी सुरक्षा के नाम पर काफी पैसे वसूले
और उनपर भारी कर्ज लाद दिया, जो अभी तक चुका रहे है. बाद में इराक का क्या हश्र हुआ किसी से छिपा नहीं है. इसके बाद 1992 में एक अमेरिकी राजनीतिक विज्ञानी सैमुएल पी हटिंगटन ने एक थीसिस गढ़ी जिसमें कहा गया कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद युद्ध अब देशों के बीच नहीं, बल्कि सभ्यताओं के बीच लड़े जाएंगे. इसमें लोगों के धर्म और उनकी सांस्कृतिक पहचान मुख्य रूप से विवाद के मुद्दे होंगे.
बाद में एक पुस्तक की शकल में उन्होंने अपनी इस थीसिस को विस्तार दिया, जिसका शीर्षक था ‘द क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन एंड रीमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर.‘ इस थीसिस में मुसलमानों खासकर अरबों का अप्रत्यक्ष जिक्र करते हुए कहा गया कि ये सभ्य लोग नहीं हैं. इनके साथ शालीनता के साथ बर्ताव नहीं किया जा सकता.
फिर 9 /11 को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में वर्ल्ड ट्रेड टावर को गिराए जाने की घटना हुई जिसने पूरी दुनिया में एक तूफान बरपा कर दिया. इस घटना के बाद अमेरिका ने आतंकवाद की एक नई परिभाषा गढ़ी. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश ने आतंकवाद के खिलाफ जंग का ऐलान करते हुए कहा कि यह ‘क्रूसेड‘ (धार्मिक युद्ध के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द) है.
इसमें या तो आप हमारे दोस्त हैं या दुश्मन. उन्होंने 9/11 की घटना के लिए ओसामा बिन लादेन और उसके आतंकवादी संगठन अलकायदा को जिम्मेदार ठहराते हुए अफगानिस्तान में जंग का ऐलान कर दिया. हालांकि अब अफगानिस्तान में तालिबान सरकार की ओर से कहा गया है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि ओसामा बिन लादेन 9/11 के हमलों में शामिल था. तालिबान ने कहा कि 20 साल की जंग के बाद भी इस बात का कोई सबूत मौजूद नहीं है.
तालिबान के तरजुमान जबीहुल्लाह मुजाहिद ने कहा कि इस जंग का कोई औचित्य नहीं था. इसे अमेरिकियों के जरिए जंग के बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया गया था. जब लादेन, अमेरिकियों के लिए मुसीबत बना तो वह अफगानिस्तान में था, लेकिन उसके उस हमले में शामिल होने का कोई सबूत नहीं था.
सन 2003 में अमेरिका ने यह कहकर इराक पर हमला किया था कि उसके पास ‘महाविनाश के हथियार‘ हैं.जब यह बात उसके वैज्ञानिक तक साबित नहीं कर पाए तो जॉर्ज डब्लू बुश ने कहा की ‘इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के बिना दुनिया ज्यादा सुरक्षित होगी‘ और पूरी दुनिया को एक और युद्ध में धकेल दिया जिसके परिणाम पूरा अरब जगत आजतक भुगत रहा है.
तो फिर क्या यह माना जाए कि अमेरिका अपने छुद्र राजनीतिक-कूटनीतिक हितों के लिए साजिशें करता है और उसमें दूसरे देशों, धर्मों और सांस्कृतिक समूहों को फंसा कर अपनी दीर्घ कालीन राजनीति करता है? उसका पिछले पचहत्तर वर्षों का इतिहास तो यही बताता है.
चाहे दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बम गिराने का मामला हो या वियतनाम वॉर. सोमालिया, यमन और लीबिया हो या इराक और अफगानिस्तान का युद्ध हर जगह अमेरिकी साजिशों के सबूत देखने को मिलते हैं.
तो क्या 9 /11 की घटना के बाद जिसके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और अभी तक पुख्ता तौर पर यह साबित नहीं हुआ है कि इसके पीछे साजिश में कौन शामिल था, यह माना जाए कि यह घटना मुसलमानों खासकर अरबों को सबक सिखाने के लिए की गई?और क्या अरब और मुसलमान इस जाल में फंस गए. आखिर इस जाल से निकलने का उनके पास कोई रास्ता बचा है या नहीं ?
इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले 40-42 वर्षों में मुसलमानों के आतंकवादी संगठनों में तेजी से इजाफा हुआ है. उनकी वहाबी-सलाफी विचारधारा ने अमेरिकी प्रचार की इस मामले में मदद ही की है कि ज्यादातर आतंकवादी मुसलमान ही होते है.
इनके साथ सख्ती से निपटा जाना चाहिए. हालांकि जिन तालिबान को अमेरिका अलकायदा का सहयोगी और समर्थक मानता था और 2001 में जिनकी सरकार को नेस्तनाबूद करके अफगानिस्तान में उसने एक नई सरकार बनवाई थी, फिर दो वर्ष पहले उन्हीं तालिबान को ‘गुड‘ और ‘बैड‘ बताकर उनके साथ समझौता किया. 20 साल की जंग के बाद उन्हें ही अफगानिस्तान सौंप कर निकल लिया.
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है यह अमेरिका का पुराना तरीका रहा है. सवाल ये भी है कि आखिर मुसलमान क्या करे ? 2001 के अफगान युद्ध से पहले इस सवाल पर बात करने के लिए बाइस अरब देशों ने अरब लीग के बैनर तले काहिरा में एक शिखर बैठक की थी.
इन पंक्तियों का लेखक उस बैठक को कवर करने के लिए काहिरा में मौजूद था. दो दिनों के गंभीर विचार विमर्श के बाद सौ से अधिक अरब बुद्धिजीवियों और बाईस अरब देशों के मंत्रियों ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया था कि ‘अपनी खराब छवि को बेहतर बनाने के लिए अरब देशों को पश्चिम की एक ‘पब्लिक रिलेशन कंपनी‘ की सेवाएं लेनी चाहिए.
अपना एक टेलीविजन चैनल शुरू करना चाहिए.‘ इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अरब देशों और उसके बुद्धिजीवियों की सोच कितनी सीमित है. वह उस देश से मुकाबला करने की सोच रहे थे जो उनसे हर मामले में कम से कम पचास वर्ष आगे है. मीडिया में भी और कूटनीति में भी !
लेकिन दुनिया भर के मुसलमानों को अब इस बात पर जरूर गौर करना चाहिए की इस ‘ट्रैप‘ (जाल) से निकलने का रास्ता क्या है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और बीबीसी में रहते अफगान और इराक युद्ध कवर कर चुके हैं)