गुजरात की राजनीतिक जमीन पर हो रहे हैं कुछ बदलाव

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 03-03-2025
गुजरात की राजनीतिक जमीन पर हो रहे हैं कुछ बदलाव
गुजरात की राजनीतिक जमीन पर हो रहे हैं कुछ बदलाव

 

harjinder हरजिंदर

राष्ट्रीय या फिर राज्य के ही राजनीतिक परिदृश्य के हिसाब से स्थानीय निकायों के चुनावों को ज्यादा गंभीरता से लेने की परंपरा नहीं रही. यह मान लिया जाता है कि अगर कोई राजनीतिक लहर न हो तो आमतौर पर ऐसे चुनाव में  उसी पार्टी के लोग जीतते हैं जो कि राज्य में सत्ता में होती है.

पिछले दिनों गुजरात में स्थानीय निकायों के जो चुनाव हुए उसके नतीजों की भी यही कहानी है, लेकिन ये नतीजे इसके अलावा कोई और कहानी भी कहते हैं.बहुत साल बाद पहली बार यह हुआ कि गुजरात में बड़ी संख्या में मुस्लिम पार्षद भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर जीत कर आए.

भारतीय जनता पार्टी ने 103 मुसलमानों को टिकट दिया जिनमें से 82 ने चुनाव जीता. इसके पहले 2018 में प्रदेश की 75 नगरपालिकाओं के चुनाव हुए थे. इस बार अभी तक सिर्फ 66 नगर पालिकाओं के चुनाव  हुए हैं..

पिछली बार भाजपा के टिकट पर सिर्फ 46 मुस्लिम पार्षद बने थे. तब ऐसी बहुत सी नगरपालिकाएं थीं जहां भाजपा के टिकट पर एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीता था. इस बार ऐसी जगहों से भी पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं.

पिछली बार मुस्लिम पार्षदों की कुल संख्या में भाजपा की हिस्सेदारी 18 फीसदी थी जो अब बढ़कर 28 फीसदी हो गई है.इनमें से कईं नगर पालिकाएं ऐसी भी हैं जहां पिछले कुछ समय में बुलडोजर चलाने और इमारतों, दुकानों और झोपड़ियों को ध्वस्त करने की घटनाएं हुईं थीं.

इनमें ऐसी संपत्तियां भी काफी थी जो मुसलमानों की थी. इसलिए डर था कि वहां मुस्लिम आबादी शायद भाजपा को वोट नहीं देगी. लेकिन लोग वोट देने के लिए घरों से निकले तो उन्होंने भाजपा को भी वोट दिया.

बेशक, कांग्रेस के मुस्लिम पार्षदों की संख्या अभी भी भाजपा के मुस्लिम पार्षदों की संख्या से ज्यादा है. इस बार कांग्रेस के 109 मुस्लिम पार्षद चुने गए. जबकि पिछली बार कांग्रेस से चुने गए मुस्लिम पार्षदों की संख्या 133 थी.

यानी इस चुनाव में कांग्रेस के जितने मुस्लिम पार्षद घटे हैं उससे ज्यादा भाजपा के बढ़े हैं. एक और चीज पर ध्यान देना जरूरी है. कांग्रेस के कुल पार्षदों की संख्या भी इस बार काफी ज्यादा कम हुई.  

यहां एक बात का जिक्र और जरूरी है. आम आदमी पार्टी ने भी यह चुनाव लड़ा था. उसके टिकट पर 13 मुस्लिम पार्षद चुन कर आए हैं.इनमें से 11 पार्षद जामनगर की एक नगरपालिका से चुने गए हैं.

वैसे भाजपा को एक पार्टी के तौर पर अभी तक की चुनाव लड़ने की सबसे सटीक मशीन माना जाता है. वह अपना जितना जोर संसद और विधानसभा चुनाव में दिखाती है.

उतना ही जोर स्थानीय निकायों और पंचायत चुनावों तक में दिखाती है. गुजरात मं हुए स्थानीय निकायों के चुनाव भी इसके अपवाद नहीं हैं. लेकिन एक मामला जरूर ऐसा है जिसे अपवाद की तरह ही देखना चाहिए.

भाजपा के पास इस समय एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है. न लोकसभा में और न राज्यसभा में. विधानसभा चुनाव में भी उसने अपवाद स्वरूप ही किस मुसलमान को टिकट दिए हैं.

लेकिन अगर वह स्थानीय निकाय चुनाव में इतनी संख्या में मुसलमानों को टिकट दे रही है तो यह गौर करने लायक है. भले ही इसका कारण स्थानीय स्तर के राजनीतिक दबाव ही क्यों न हों.

आमतौर पर ये टिकट ऐसी जगहों से दिए जाते हैं जहां मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में है . वह नतीजों को प्रभावित करने की स्थिति में है. भाजपा का ऐसी जगहों से मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करना तो समझ में आता है. अगर लोग भी उसके मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट दे रहे हैं तो इसे किस तरह से देखा जाए?

क्या इसका यह अर्थ यह लगाया जाए कि गुजरात में 2002 के दंगों के बाद जो हालात बने थे और जिस तरह की सोच बनी थी अब लोग उससे उबरने लग गए हैं? तब से दो दशक से ज्यादा का समय बीत चुका है .

अतीत को घावों को भूलने के लिहाज से इतना वक्त कम नहीं होता. बावजूद इसके कि कुछ घाव ऐसे होते हैं जो कभी नहीं भरते..हालांकि गुजरात में जमीन पर जो हो रहा है उसका हाल-फिलहाल में कोई अध्ययन सामने नहीं आया है.

इसलिए कुछ भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. लेकिन नगरपालिकाओं के नतीजे यह तो बताते ही हैं कि कुछ तो बदल रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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