आतिर खान
प्रकृति और समाज, दोनों में संतुलन की अहमियत है. जब भी ऋतुएं अपने चरम पर होती हैं, तो यह असुविधा का कारण बनती है. गर्मियों की तपिश, मानसून की बाढ़, या सर्दियों की कठोरता - हर अतिशयता असुविधा लाती है. प्रकृति को जैसे संतुलन चाहिए, वैसे ही समाज को भी.
आज के भारत में यह संतुलन तलाशने की कोशिशें कई स्तरों पर देखी जा सकती हैं. जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत संयम और समानता की वकालत करते हैं, तो उनके विचारों का विरोध कई धार्मिक नेता करते हैं. इसी तरह, जब मुस्लिम बुद्धिजीवी बांग्लादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न की आलोचना करते हैं, तो उनके भीतर भी अलग-अलग प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं.
यह विरोधाभास मानव स्वभाव को दर्शाता है: हम शांति और संतुलन चाहते हैं, लेकिन इसे हासिल करने के प्रयासों का विरोध भी करते हैं.भारतीय समाज में आज ध्रुवीकरण की लहरें इतनी तेज़ हैं कि समझदारी की आवाज़ें दब सी जाती हैं.
मंदिर और मस्जिद को सह-अस्तित्व के रूप में देखने की कल्पना मुश्किल होती जा रही है. लेकिन इसका अपवाद भारतीय सेना में देखने को मिलता है, जहां पूजा स्थल - मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च - एक ही परिसर में, एक ही पंक्ति में होते हैं. वहां के जवान, शायद देश के सबसे संतुलित और खुशहाल लोग हैं.
इसके विपरीत, समाज में कुछ स्वयंभू धार्मिक और राजनीतिक नेता सांप्रदायिक नफरत फैलाने में व्यस्त हैं. इनकी सक्रियता चिलचिलाती गर्मी की लू की तरह तर्क और सहिष्णुता को सूखा देती है. सोशल मीडिया इस नफरत को और हवा देता है, जहां गलत सूचनाएं और नकारात्मक चर्चाएं सकारात्मक बहसों पर हावी रहती हैं.
हमारा समाज ऐसी असहिष्णुता से ग्रस्त हो गया है, जो सह-अस्तित्व को चुनौती देती है. यह स्थिति प्रदूषित सर्दियों की तरह है, जहां पराली का धुआं और प्रदूषण हमारे शहरों को घुटन भरा बना देते हैं. हिंदू और मुस्लिम चरमपंथियों की असहिष्णुता शांति की संभावनाओं को खत्म कर देती है.
चरमपंथ क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग हो सकता है, लेकिन इसका असर गरीबों पर सबसे अधिक पड़ता है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो.इस सबके बीच, हम प्रकृति के संतुलन की अहमियत भूल जाते हैं. गर्मी और ठंड, सूखा और बारिश - ये संतुलन ही जीवन को सुंदर बनाते हैं.
भारत की धार्मिक विविधता भी ऐसा ही एक संतुलन है. लेकिन इसे पहचानने के बजाय, हम अक्सर ध्रुवीकरण की ओर झुक जाते हैं.
चरमपंथी विचारधाराएं हमारी राष्ट्रीय चेतना पर गहरा प्रभाव डालती हैं. वे हमारे समाज को विभाजित करती हैं और शांति के लिए काम करने वाली आवाज़ों को कमजोर करती हैं. ऐसे में, संतुलन और संयम की मांग करने वाली आवाज़ों को सुनना जरूरी हो जाता है..
हम महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, गुरु नानक, कबीर, दारा शिकोह और मदर टेरेसा जैसी हस्तियों के सह-अस्तित्व के संदेश को भूल गए हैं. उन्होंने हमेशा मानवता को प्राथमिकता दी, और यह दिखाया कि विविधता कैसे एकता में तब्दील हो सकती है.
भारत की धार्मिक विविधता, हालांकि चुनौतीपूर्ण है, लेकिन यह एकता और आपसी सम्मान की नींव भी रखती है. जैसे गर्मी के बाद बारिश राहत देती है, वैसे ही धार्मिक विविधता हमारे समाज को समृद्ध बनाती है.हमारे समुदाय आज बीस साल पहले की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं. लेकिन ध्रुवीकरण और संघर्ष ने हमें असंतुष्ट बना दिया है.
यह दौर भी बदलेगा, जैसे ऋतुएं बदलती हैं। लेकिन हमें समाज और प्रकृति, दोनों में संतुलन का महत्व समझना होगा.जैसा कि उर्दू शायर बशीर बद्र ने कहा है:
"दुश्मनी जम के करो, लेकिन ये गुंजाइश रखना,
जब हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों!"
इस संदेश को अपनाकर, हम अपने समाज को एक बेहतर, अधिक शांतिपूर्ण भविष्य की ओर ले जा सकते हैं.
लेखक आवाज द वाॅयस के प्रधान संपादक हैं