समस्थ @100: परंपरा और परिवर्तन के बीच एक शताब्दी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 26-04-2025
Samastha @100: A century between tradition and change
Samastha @100: A century between tradition and change

 

मुजीब जैहून

जैसे-जैसे समस्थ केरल जमीयतुल उलेमा Samastha Kerala Jamiatul Ulama(समस्थ) 2026 में अपनी शताब्दी मनाने जा रहा है, यह समय इसके ऐतिहासिक योगदान, वर्तमान प्रासंगिकता और भविष्य की दिशा पर गंभीर विचार-विमर्श का है. 1926 में मप्पिला विद्रोह और सलाफी व जमात-ए-इस्लामी जैसे सुधारवादी आंदोलनों के जवाब में स्थापित यह संगठन केरल में सुन्नी-शाफई परंपरा का एक प्रमुख स्तंभ बनकर उभरा.

ई.के. अबूबकर मुसलियार जैसे विद्वानों के नेतृत्व में समस्थ ने मदरसों के एक मजबूत नेटवर्क के माध्यम से पारंपरिक इस्लामी शिक्षाओं—फ़िक़्ह, तौहीद और अरबी शास्त्र—को संरक्षित किया.

धार्मिक शिक्षा से सामाजिक चेतना तक

समस्थ ने केवल धार्मिक शिक्षा में योगदान नहीं दिया, बल्कि केरल के मुसलमानों की सामाजिक और राजनीतिक चेतना को भी गहराई से प्रभावित किया. भले ही यह संगठन औपचारिक रूप से अराजनीतिक रहा हो, परंतु इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) के साथ इसका जुड़ाव अक्सर जनभावनाओं को आकार देता रहा.

1989 में इसके ई.के. और ए.पी. गुटों में बंटने के बावजूद, दोनों शाखाएं आज भी धार्मिक नैतिक अधिकार बनाए हुए हैं.इस्लामिक कॉलेजों के समन्वय (CIC) के जरिए समस्थ ने एक नई पीढ़ी के विद्वानों—वाफी और वाफ़िया—को तैयार किया है, जो पारंपरिक इस्लामी विरासत के साथ-साथ समकालीन चुनौतियों का भी सामना कर सकें.

औपनिवेशिक युग से डिजिटल युग तक की यात्रा

समस्थ की उत्पत्ति को उस दौर की आधुनिकता के संदर्भ में देखा जाना चाहिए जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था. जिस तरह ब्रह्मो समाज ने सामाजिक सुधारों की मांग की, उसी तरह समस्थ ने इस्लामी नेतृत्व को संरक्षित करने के लिए काम किया. ब्रिटिश शासन ने प्रिंट संस्कृति, कानूनी ढांचे और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के ज़रिये धार्मिक संस्थानों को सार्वजनिक जीवन में स्थान दिया—लेकिन यह भी एक नियंत्रित सहभागिता थी.

कासिम ज़मान, बारबरा मेटकाफ़ और फ्रांसिस रॉबिन्सन जैसे विद्वानों का कार्य यह समझने में मदद करता है कि ऐसे धार्मिक संगठन आधुनिकता और परंपरा के बीच कैसे संतुलन बनाते हैं.

क्या समस्थ एक सामूहिक 'मुजद्दिद' है?

इस्लामी परंपरा में माना जाता है कि हर सदी में एक सुधारक (मुजद्दिद) आता है. समस्थ की शताब्दी इस प्रश्न को उठाने का अवसर देती है: क्या यह संगठन केरल के मुसलमानों के लिए सामूहिक मुजद्दिद रहा है?

शाह वलीउल्लाह की 'इर्तिफाक' की अवधारणा, यानी सामाजिक संरचनाओं का स्वाभाविक विकास, समस्थ के उदय के संदर्भ में सटीक बैठती है.लेकिन सच्चा सुधार केवल अतीत की प्रशंसा में नहीं, बल्कि भविष्य के लिए गंभीर आत्ममंथन में निहित है. सवाल यह है कि क्या समस्थ डिजिटल युग की जरूरतों के साथ अपने आप को ढाल पाएगा?

समकालीन ज्ञान और एकीकृत छात्रवृत्ति की जरूरत

केरल का बौद्धिक वातावरण तेजी से बदल रहा है. समस्थ को पारंपरिक इस्लामी शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान प्रणाली को भी अपनाना होगा. सीआईसी विवाद केवल आंतरिक मतभेद नहीं, बल्कि इस गहरे संघर्ष का संकेत है कि इस्लामी शिक्षा को कैसे समकालीन यथार्थ के अनुरूप ढाला जाए.

यह बहस मिस्र के अल-अजहर विश्वविद्यालय में 1960 के दशक में हुए उस संवाद से मिलती-जुलती है, जब आधुनिक शिक्षित उलेमा ने पारंपरिक इस्लामी विमर्श को नया रूप दिया था.

समस्थ को चाहिए कि वह अपने निर्णय लेने वाले निकायों में आधुनिक इस्लामी संस्थानों के स्नातकों को स्थान दे. जिस तरह उसने व्यक्तिगत फतवों से सामूहिक इज्तिहाद की ओर रुख किया, उसी तरह अब उसे इस इज्तिहाद में वैचारिक और शैक्षणिक विविधता को भी शामिल करना चाहिए.

महिलाओं की भागीदारी और संगठनात्मक नवाचार

समस्थ की एक बड़ी कमी है—महिलाओं की सीमित भागीदारी। मदरसों में उनकी भूमिका के बावजूद, सामुदायिक नेतृत्व में उन्हें पर्याप्त स्थान नहीं मिला. जब महिलाएं शिक्षा और अर्थव्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं, समस्थ को मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों से सीख लेते हुए उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए.

साथ ही, संगठन को राजनीतिक निष्क्रियता और सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धा से बचते हुए एक नैतिक मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए.

डिजिटल युग और वैचारिक संवाद

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर इस्लामिक विमर्श अक्सर संकीर्ण हो गया है. विविधता को स्थान देने के बजाय उपहास और बहिष्कार का वातावरण बन गया है. यह प्रवृत्ति समस्थ जैसे संगठन की साख को भी प्रभावित करती है.

जब एक प्रतिष्ठित मुस्लिम इतिहासकार को अपने विचारों के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी, तो यह इस ओर इशारा करता है कि संगठनात्मक कठोरता बौद्धिक स्वतंत्रता को कैसे दबा सकती है।

समस्थ को अब्बासी स्वर्ण युग की तरह बौद्धिक बहसों और संवाद के लिए एक मंच बनना होगा—not silence, but space for disagreement.

आधुनिक मुद्दों पर रुख़ और दिशा

समस्थ को अब केवल अनुष्ठानों की बात करने वाला निकाय नहीं रहना चाहिए. सिनेमा, बीमा, अंगदान, डिजिटल फाइनेंस, निकाह और ज़कात जैसे आधुनिक विषयों पर स्पष्ट, सूचित और आत्मीय मार्गदर्शन देना उसकी जिम्मेदारी है.

इंटरनेट पर फैली अधूरी जानकारी और कट्टरता से मुकाबला करने के लिए समस्थ को डिजिटल स्पेस में भी एक मजबूत, करुणामय और भरोसेमंद उपस्थिति दर्ज करानी होगी.

शताब्दी समारोह से आगे: एक प्रतिबद्धता

समस्थ की शताब्दी सिर्फ भव्य आयोजनों का अवसर न बन जाए. यह उस संकल्प का प्रतीक बने कि यह संगठन आने वाले समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है—परंपरा में गहराई से जुड़ा हुआ, लेकिन समय के साथ जागरूक.

यदि समस्थ परंपरा को तोड़े बिना और मूल्यों से समझौता किए बिना अपने ढांचे में सुधार करता है, तो यह न केवल अपनी विरासत को जीवित रखेगा, बल्कि केरल ही नहीं, बल्कि पूरी मुस्लिम दुनिया में इस्लामी बौद्धिकता के लिए नई दिशा भी तय कर सकता है.


(मुजीब जैहून एक लेखक हैं जो आधुनिक मुस्लिम दुनिया में आस्था, संस्कृति और समाज के बीच संवाद की तलाश करते हैं। अधिक जानकारी के लिए देखें: www.jaihoon.com)