फ़ैज़ान अहमद
आजादी के बाद भारत के मुसलमानों पर गहन अध्ययन सच्चर कमेटी रिपोर्ट द्वारा 2006 में किया गया. पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों की सामाजिक राजनीतिक स्थिति पर विश्लेषण किया गया. इस रिपोर्ट में, इस बात की पुष्टि होती है कि मुस्लिम समाज विकास के हर क्षेत्र में पिछड़ गया है. रिपोर्ट के प्रकाशन ने मुस्लिम पिछड़ेपन को भारत के सार्वजनिक बहस में सबसे आगे ला दिया था.
लेकिन भारतीय मुसलमानों की सामाजिक आर्थिक स्थिति एकसमान नहीं हैं, बल्कि ये विभेदित है. सच्चर रिपोर्ट के आँकड़ों में सभी मुसलमानों की स्थिति पर ज्यादा बल दिया गया है, जबकि मुसलमानों के बीच पसमांदा या पिछड़ी जातियों से संबंधित आँकड़ों का अभाव रहा है. ये लेख सच्चर कमेटी रिपोर्ट के संदर्भ में पसमांदा मुसलमानों के स्थिति की जाँच करता है.
साथ ही मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिगत पहचान को रेखांकित करता है.भारतीय मुसलमानों पर एक तरफ अपने क्षेत्रीय प्रसार, सांस्कृतिक और भाषाई विभाजन, सामाजिक-वर्ग स्तरीकरण और सांप्रदायिक सैद्धांतिक विभाजन के बावजूद उनको लेकर जो अध्ययन किया जाता रहा है.
वो एक धार्मिक अल्पसंख्यक समूह की विशेषताओं पर आधारित होती हैं. यह न केवल विशिष्ट मुस्लिम वर्ग की स्वंय की धारणा है कि वे सामाजिक-राजनीतिक स्थिति के सन्दर्भ में एक धार्मिक अल्पसंख्यक का गठन करते हैं, बल्कि अन्य लोगो की भी धारणा है कि उन्हें एक सचेत अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाता है.
इसी प्रकार, भारतीय मुसलमानों के सामाजिक- आर्थिक पिछड़ेपन को लेकर दिए गये स्पष्टीकरण से यह मालूम पड़ता है कि विकास-कार्यक्रमों से लाभ प्राप्त करने में मुसलमान(पसमांदा) विफल रहे हैं. अथार्त उनको सामाजिक- आर्थिक विकास प्रक्रिया का लाभ प्राप्त नहीं हुआ। फिर भी मोटे तौर पर इसको दो अलग नजरिये से समझ सकते है.
पहले दृष्टिकोण के अनुसार, भारतीय मुसलमानों में आधुनिक या सामाजिक परिवर्तन में पीछे रहने के कारण एक तीव्र अल्पसंख्यक परिसर है, जो भारत में मुसलमानों की विशेषता भी है.साथ ही साथ हिन्दू समाज में, अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में उनकी बढ़ती आत्म चेतना भी है.
स्पष्टीकरण दिया रहा है कि सामाजिक-आर्थिक विकास की मुस्लिम विफलता का मुख्य कारण समुदाय की रुढ़िवादी सामाजिक व सांस्कृतिक आस्था में निहित है. लगभग हर कोई जो उनके बारे में लिखता हैं. वह मानता है कि मुस्लिम एक एकल अविभेदित समरूप समुदाय का गठन करते हैं.
मसलन की यह मान्यता है कि भारतीय मुसलमान एक अखंडित समुदाय है, और उनकी समस्या पर्याप्त विशिष्ट प्रकार की है. लेकिन हकीकत तो यह है कि वे फिरके, जाति, वर्ग, क्षेत्रीयता और भाषाई विभेदों से इतने अधिक विभक्त है कि कभी कभी उनमें भी बड़ा टकराव होता हैं, और प्राय उनमें आपस में स्पष्ट मतभेद और प्रतिस्पर्धा रहती हैं.
बंगाल में रहने वाले मुस्लिम और केरल में बसने वाले मुस्लिम में बहुत भिन्नता समाजिक- सांस्कृतिक स्तर पर देखने को मिल सकती है. मसलन, उनके बीच आम बोल-चाल से लेकर खान-पान और रहन-सहन के तरीकों में भिन्नता देखी जा सकती हैं. भारतीय मुस्लिम एक बड़े और विविध समूह है, जिसमें सामाजिक व धार्मिक विविधता और आर्थिक विखंडन दोनों शामिल है.
हालांकि, मुसलमान एक समान विशवास से एकजुट है, मगर वे बहुत सारे जातीय-भाषायी समूहों में विभाजित है. मुसलमानों के बीच इस अंतर-समूह भेदभाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह हैं की ऐतिहासिक समय से ही जातीयता और जाति जैसे विभाजन मौजूद रहे हैं.
यह विभाजन आर्थिक स्तर पर और सामाजिक स्तर पर मुस्लिम समाज में देखने को मिल जाता हैं. यहाँ तक कि धार्मिक व सांस्कृतिक स्तर पर भी भेदभाव होता है. मुस्लिम समाज में कई व्यावसायिक समूह है, जिनमे हाशिये और पिछड़ेपन का अनुभव हुआ है. उनकी सामाजिक स्थिति देश के अनुसूचित जाति व जनजाति से बहुत अलग नहीं हैं.
मुस्लिम समाज के अंतर्गत स्तरीकरण पर सामाजिक अध्ययन भारत में मुस्लिमो के मध्य जाति या बिरादरी की जटिलताओ को समझने का प्रयास किया जा सकता हैं. भारतीय मुस्लिमो में भी हिन्दू जातीय व्यवस्था लक्षण जैसे कि सामाजिक समूहों की सोपानीकृत व्यवस्था, जाति के अंदर ही विवाह और वंशानुक्रमिक व्यवसाय आदि वृहद स्तर पर पाए गये हैं.
इस प्रकार विभिन्न सामाजिक विभेदों के आधार पर भारतीय मुसलमानों में भी विविधता देखने को मिल जाती हैं. जिन हिन्दुओं ने धर्मान्तरण कर इस्लाम कबूल किया उन्हें मुसलमानों के बराबर का दर्जा नहीं दिया गया, विदेशी मूल के मुसलमानों ने ऊँचे सरकारी ओहदों पर एकाधिकार जमा लिया.
शासन के शीर्ष में भारतीय मुसलमानों के लिए कोई स्थान नहीं था. मुस्लिम शासक-श्रेणी अपने ऊँचे सामाजिक रुतबे के प्रति सचेत था। वह किसी निम्न जातीय धर्मान्तरित मुसलमान को अपने बराबर मानने को तैयार ही नहीं था.
वास्तव में मुस्लिम शासक-श्रेणी ने दो स्तम्भों पर अपनी सत्ता स्थापित कर रखी थी और वे दो स्तम्भ थे, धार्मिक श्रेष्ठता तथा विदेशी होने का भाव. भारत के मुस्लिम सम्प्रदाय को समूहों में बाँटा जा सकता था-एक तो वो जो आप्रवासी के रूप में मध्य एशिया, ईरान, अफगानिस्तान तथा अरब देशों से आकर यहाँ बस गए और दुसरे वे स्थानीय लोग जो इस्लाम में धर्मान्तरित होकर मुस्लिम सम्प्रदाय का हिस्सा बन गए. मुसलमानों में जाति प्रथा मध्यकाल में क्रमिक रूप से विकसित हुई. प्रारंभ में यह विभाजन मुख्य रूप से वर्ग आधारित था, इसी समय अभिजात वर्ग का उदय हुआ जिसे अशराफ़ कहा गया.
अशराफ़ और अजलाफ़ विभाजन और पसमांदा मुसलमान
आम तौर पर माना जाता है कि भारत में मुसलमान दो समुदायों में विभाजित है. इन दो समुदायों को अशराफ़ और अजलाफ़ के नाम से जाना जाता है. अशराफ़ के भीतर सैयद, शेख़, मुगल और पठानों को शामिल किया जाता है जो यह दावा करते हैं कि वे भारत में आरम्भिक दौर में आने वाले मुसलमानों और शरुआत में ऊँची जाति के धर्म परिवर्तन करने वाले लोगों के वंशज हैं.
अजलाफ़ लोग निम्न हिन्दुओं जातियों से धर्म परिवर्तन करने वाले लोग हैं. इनमें बुनकर, नाई दर्जी आदि जैसी जातियों के मुसलमान आते हैं. भारतीय समाज के तर्ज पर यह जातिगत पहचान जन्म पर आधारित थी. इसके साथ ही, 1901 की जनगणना में तीसरी श्रेणी जिसे अरज़ाल कहा जाता हैं, भी रिकॉर्ड की गई। इसमें बहुत नीची जातियाँ जैसे कि हलालखोर, नट, धोबी आदि आती है.
यदि जनसंख्या के लिहाज़ से देखा जाए तो पिछड़े और दलित मुसलमान, भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी का लगभग 85 प्रतिशत का गठन करते है. अशराफ़, अजलाफ़, अरजाल शब्द अरबी भाषा के हैं. बहरहाल अशराफ़ और अजलाफ़ विभाजन से इंकार नहीं किया जा सकता है.
इस प्रकार मुस्लिम समाज अपनी सैद्धांतिक समानता के बावजूद मूलतः श्रेणीबद्ध समाज रहा है. स्थानीय संस्कृति में निहित होने के कारण अशराफ़ मुसलमान अजलाफ़ को मुसलमान नहीं मानते थे. उन्हें मुसलमान इसलिए भी नहीं माना जाता था क्योंकि उन्होंने अपनी स्थानीय धार्मिक संस्कृति प्रथाओं को पूरी तरह से नहीं छोड़ा था.
जो मुसलमान समूह ‘ओबीसी’ की श्रेणी में शामिल हैं वे बुनियादी रूप से मुसलमान जनसंख्या के गैर-अशराफ़ तबके से ही आते हैं. इस बारे में भी काफ़ी वाद-विवाद होता रहा है कि क्या इन श्रेणियों को विश्लेषण के लिए सार्थक श्रेणियाँ माना जा सकता है.
हालाँकि 2006 में सच्चर आयोग ने आधिकारिक रूप से इन श्रेणियों को स्वीकार किया. ये मध्य और निम्न हिन्दू जातियों से परिवर्तित हैं और अपने पारम्परिक व्यवसायों से पहचाने जाते हैं. अजलाफ़ मुस्लिम समूहों के बीच व्यापक स्तर पर गरीबी, बेरोजगारी और शैक्षणिक पिछड़ापन मौजूद हैं, जो उसके ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक वजहों से उत्पन्न हुई हैं.
आम तौर पर ऐसा विश्वास किया जाता हैं कि इन समुदायों ने हिन्दू ‘अछूतों’ में से धर्म परिवर्तन किया है. जैसा कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी उजागर करती हैं कि अजलाफ़ समूहों में धर्म परिवर्तन से इनकी सामाजिक या आर्थिक स्थिति में कोई फर्क नहीं आया, उनके पारम्परिक व्यवसायों से जुड़े कलंक की वजह से इन्हें सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता हैं.
भारत में मुसलमानों के पिछड़ेपन को लेकर देश में एक बहस बना हुआ हैं. सवाल यह है कि मौजूदा पिछड़ापन मुसलमानों के किस तबके से संबंधित हैं ? मसलन क्या यह पिछड़ापन पुरे मुस्लिम समुदाय के साथ जुड़ा हुआ है ? या फिर किसी खास तबकों के बीच मौजूद है.
हकीकत तो यह है की कोई भी समुदाय पूरी तरह से पीछे या आगे नहीं हो सकता है. मुस्लिम समुदाय में भी ऐसा ही है, पसमांदा मुसलमान के संदर्भ में जो बहस मुस्लिम दलित या मुस्लिम पिछड़ा वर्ग को लेकर किया जा रहा है.
उसी जगह व्यापक गरीबी, बेरोजगारी, और शैक्षणिक पिछड़ापन देखने को मिल जाता है. यद्यपि यह माना जा सकता है कि ऊँची जाति में जन्म लेने के कारण अशराफ़ की आर्थिक स्थिति अजलाफ़ की तुलना में बेहतर होगी.
सच्चर कमिटी रिपोर्ट के मुताबिक़ 31 प्रतिशत मुसलमान ग़रीब है. पसमांदा मुसलमान सामाजिक दृष्टि से पिछड़े हैं, सांस्कृतिक दमन के शिकार है, और साथ ही आर्थिक रूप से हाशिए पर मौजूद है. मुस्लिम पिछड़ेपन को लेकर असगर अली इंजीनियर लिखते हैं कि सभी भारतीय मुस्लिम पीछे की ओर नहीं हैं,
समकालीन भारत में बहुत सारे मुसलमान हैं जो काफी धनी, शिक्षित, और समाज में उनकी स्थिति अच्छी बनी हुई हैं. वे क्षेत्रीय और केन्द्रीय राजनीतिक शक्ति सरंचना में काफी प्रभावशाली है। जैसा की अनवर आलम अपने लेख में वर्णन करते है कि मुस्लिम समुदाय के विभिन्न संसाधनो और संस्थाओं पर ऊँची जाति/वर्ग वाले मुसलमानों का अपनी संख्या से ज्यादा कब्ज़ा है.
इन प्रमुख संस्थाओं के अलावा अनेक दूसरी संस्थाओं में भी उच्च जाति मुसलमानों का ही हिस्सेदारी सबसे अधिक हैं, इनमें विभिन्न वक्फ़ बोर्ड, प्रमुख मदरसे, मस्जिदे, दरगाह, शैक्षणिक संस्थान, हज कमिटी, अल्पसंख्यक आयोग, उर्दू अकादमी आदि संस्थाएँ शामिल है.
साथ ही ऊँची जाति/वर्ग के भारतीय मुसलमानों ने राजनैतिक दृष्टिकोण से सांस्कृतिक-भावनात्मक मुद्दों को ही आगे बढ़ाया. इनमें प्रमुख हैं, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बाबरी मस्जिद, शरीयत और उर्दू का मसला, इत्यादि.
इस प्रकार मुसलमानों के वास्तविक मुद्दों को राष्ट्रीय एजेंडे पर कभी जगह ही नहीं मिली। मोईन शाकिर और अशरफ अली के पुस्तकों में तर्क मिलता है कि मुस्लिम समुदाय की राजनीति मुस्लिम अभिजात की राजनीति रही हैं. जिसे पुरे समुदाय के साथ नहीं समझा जा सकता है. अभिजात वर्ग की राजनीति का ही प्रतिनिधित्व किया, जिसमें मुस्लिम राजनीति का मुख्य जोर धार्मिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर ही रहता है.
यह समझना होगा कि मुस्लिम पिछड़ेपन का मुख्य कारण उनके सामाजिक-मूल में है. भारतीय उपमहादीप में इस्लाम धर्म का विस्तार मुख्यतः हिन्दू जाति व्यवस्था के कारण होता हैं. सामाजिक गरिमा और आध्यात्मिक समानता के खातिर ही भारतीय निचली जातियों का इस्लाम में रूपांतरण को देखा जा सकता है.
इन जातियों के बीच पेशे पर आधारित कई जातियां थी, जब इस्लाम में परिवर्तित हुए तो इन पेशे को उनके द्वारा नहीं छोड़ा गया था. इस प्रकार उनके लिए परिवर्तन सिर्फ धर्म था, उनकी सामाजिक स्थिति नहीं, मसलन की उनकी सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं देखा गया.
जैसा कि पहले से ज्ञात है की इस्लाम धर्म में अधिकांश रूपांतरण पिछड़े जातियों से थे।. जिन लोगो ने इस्लाम को अपनाया उन्होंने आर्थिक और सांस्कृतिक पिछड़ेपन विरासत के साथ ही इस्लाम को गले लगा लिया. पिछले दशक में मुस्लिम कुलीन जमात के सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व पर एकाधिकारवादी कब्जे को चुनौती देने वाले कुछ मुस्लिम पिछड़ा संगठन भी उभरे है,
जिसमें सबसे प्रमुख आंदोलन के रूप में पसमांदा मुसलमान महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. लिहाज़ा, जहाँ पहले पिछड़ेपन को पुरे मुस्लिम समुदाय के साथ जोड़कर अध्ययन किया जाता रहा है, वही वर्तमान में मुस्लिम दलित या पिछड़ी जाति ने इस पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है.
आर्थिक जीवन:
मुस्लिम समुदाय के भीतर व्यापक सामाजिक-आर्थिक विविधताएँ मौजूद है. सत्ता, संपत्ति व ज्ञान के ऊँचे पायदानों पर प्रतिष्ठित मुस्लिम तबकों (अशराफ़) को भी देखा जा सकता हैं. इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुसलमान आर्थिक रूप से कमजोर अल्पसंख्यक समुदाय हैं.
अधिकतर भारतीय मुसलमान (पसमांदा मुसलमान) आमतौर पर या तो छोटे-मोटे काम धंधे करके या असंगठित सेक्टरो में नौकरी करके अपनी रोजी-रोटी जीवन यापन कर रहे है. वे अधिकतर इमारत बनाने वाले मजदूर, रिक्शा-टैक्शी, दर्जी, बुनकर, या बहुत बेहतर हुआ तो मैकेनिक प्लम्बर, इलेक्ट्रीशियन या वेल्डर के तौर पर काम करते हैं.
भारतीय मुसलमानों की अधिकाँश आबादी स्वरोजगार में ही पाए जाते है. सार्वजनिक रोजगार के क्षेत्र में मुसलमानों की भागीदारी को लेकर अध्ययन किया जाता रहा है.इसमें दो महत्वपूर्ण पहलू है. जैसा कि विवरण रखा जाता है कि सार्वजनिक सेवाओं में मुस्लिम भागीदारी नाममात्र की पायी जाती हैं. जिन मुसलमानों की भागीदारी को देखा जाता है, उनका सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि क्या है,
मुसलमानों में किन तबकों का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक है. मसलन माना जाता है कि उच्च जाति/वर्ग के मुसलमानों की संख्या अधिक होती है, पिछड़े या पसमांदा मुसलमान हाशिए पर ही मौजूद रहते है. आजादी के शुरुआती दशकों में धार्मिक- समूहों को लेकर कोई आर्थिक-सामाजिक आँकड़ें ही उपलब्ध नहीं थे.
इस तरह के आँकड़ों की अनुपस्थिति में भारतीय मुसलमानों की आर्थिक स्थिति को लेकर कोई गहरा वैज्ञानिक विश्लेषण प्रश्नों से बाहर था. जैसे कि उनकी प्रति-व्यक्ति आय क्या है ? कृषि, उघोग, सेवा और तृतीयक क्षेत्र में इसकी आबादी का क्या प्रतिशत है.
आदि प्रश्नों का जवाब जानना मुश्किल था. 1980 के दशक में जाकर अल्पसंख्यको और अनुसूचित जातियों की आर्थिक दुर्दशा का अध्ययन करने और उनकी हालत सुधारने के उपाय सुझाने के लिए एक उच्चाधिकार पैनल ( डा. गोपाल सिंह की अध्यक्षता) की स्थापना की गयी.
हालाँकि यह आँकड़े सत्तर के दशक से संबंधित है. यह मुसलमानों की स्थिति के लिए निराशाजनक तस्वीर पेश करती है. अबुसलेह शरीफ़ और मेह्ताबुल आज़म ने अपनी किताब में बहुत ही विस्तृत ढंग से गोपाल सिंह रिपोर्ट पर प्रकाश डाला है, जो मुसलमानों की स्थिति को दर्शाती हैं.
1970 के दशक में, भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में मुस्लिम का प्रतिनिधित्व 3.22 प्रतिशत था. भारतीय पुलिस सेवाओं में 2.64 प्रतिशत और भारतीय वन सेवाओं में 3.14 प्रतिशत था. इन सभी सेवाओं में एक साथ मुसलमान की भागीदारी 3.04 प्रतिशत थी, जो मुस्लिम आबादी (11.20%) के हिस्से के मुकाबले काफी कम थी.
1980 में, रोजगार एक्सचेंज में सभी पंजीकरण के 6.77 प्रतिशत मुसलमान थे, जबकि प्लेसमेंट का हिस्सा 5.31 प्रतिशत था, मुस्लिम जनसख्याँ के लिहाज़ से यह भी बहुत कम था.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में मुस्लिम रोजगार का हिस्सा 2.18 प्रतिशत था. अधिकारी के कैडर में मुसलमानों का हिस्सा कुल 2.27 प्रतिशत था. लिपिक पदों में उन्होंने 2.12 प्रतिशत का गठन किया और अन्य अधीनस्थ कैडर में वे कुल 2.23 प्रतिशत थे.
केंद्र सरकार के कार्यालयों में, मुस्लिम रोजगार कुल 4.41 प्रतिशत था. जिनमें ‘ए’ ग्रुप में 1.61 प्रतिशत थे, तो ‘डी’ ग्रुप में 5.12 प्रतिशत थे.
सभी न्यायधीशों में सिर्फ 4.52 प्रतिशत मुसलमान पाए गये और आश्चर्य की बात नहीं कि उच्च न्यायलयों के कुछ राज्यों में कोई भी मुस्लिम न्यायधीश नहीं थे.
सर्वेक्षण किये गये राज्यों में सरकार के विभिन्न विभागों में नौकरी कर रहे मुसलमानों का कुल अनुपात 6.01 प्रतिशत था। प्रथम क्लास में 3.30 प्रतिशत था जबकि चतुर्थ क्लास में 6.35 प्रतिशत था।
निजी सेक्टरो में, यह पता चला कि मुस्लिम नौकरी दर 8.16 प्रतिशत थी। मजदूरों में मुसलमानों की दर 7.93 प्रतिशत थी.
इस प्रकार के अध्ययन बताते हैं कि मुसलमानों की आर्थिक गतिविधि की स्थिति बहुत ही खराब बनी हुई हैं. इस बात को ध्यान में रखते हुए कि मुसलमान विकास के विभिन्न संकेतकों पर पिछड़े हुए हैं. भारत सरकार ने 2005 एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था.
न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में बनाई गयी इस समिति ने भारत में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का जायज़ा लिया. रिपोर्ट में इस समुदाय के पिछड़ेपन का विस्तार से अध्ययन किया गया.
रिपोर्ट से पता चलता हैं कि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक संकेतकों के हिसाब से मुसलमानों की स्थिति खराब है. यहाँ पर भी उनके आबादी के लिहाज़ से उनका भागीदारी सार्वजनिक सेवाओं में कम है, जो निम्न आंकड़ो से प्रदर्शित होते हैं.
समिति को 88 लाख कर्मचारियों से संबंधित आंकड़ा, विभिन्न सरकारी विभागों, एजेंसियों और संस्थाओं से प्राप्त हुआ था. इनमें से केवल 4.4 लाख अथार्त पाँच फीसदी ही मुस्लिम हैं.सिविल सेवाओं के रोजगार में भी मुसलमानों की मौजूदगी केवल तीन प्रतिशत के पास ही पायी गयी.
भारतीय रेलवे करीब 14 लाख लोंगो को नौकरी देता हैं. इनमे से सिर्फ 64 हजार कर्मचारी मुस्लिम समुदाय से आते हैं, जो रेलवे की कुल नौकरी का महज़ 4.5 फीसदी हैं। इसमें भी रेलवे में नौकरी करने वाले लगभग सभी मुसलमान(98.7%) निचले स्तर पर तैनात हैं.बैंकों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व काफी कम 2.2 फीसदी हैं.
इस प्रकार विभिन्न विभागों के रोजगार में मुसलमानों की हिस्सेदारी सभी स्तरों पर सबसे कम है. भारतीय मुसलमानों में गरीबी और बेरोजगारी व्यापक रूप में मौजूद रहा है. ऐसा नहीं है कि यह समस्या सिर्फ मुसलमान समाज से जुड़ा हुआ है, बल्कि अन्य धार्मिक समूहों में भी गरीबी और बेरोजगारी को समस्या को देखा गया है.
मगर एक तथ्य ये है कि मुसलमानों में गरीबी और बेरोजगारी का प्रतिशत अन्य धार्मिक समूहों से थोड़ा अधिक है. सच्चर समिति ने भी बताया था कि मुसलमान की आर्थिक स्थिति सही नहीं है. आर्थिक गतिविधयों में उनकी स्थिति बहुत खराब बनी हुई है.
अधिकांश मुसलमान स्व-रोजगार में लगे रहते है और कारीगर, बुनकर व मजदूर के रूप में अपना रोजी-रोटी का बंदोबस्त करते हैं. रोजगारी में हिस्सेदारी के मामले में, विशेषकर सरकारी नौकरियों में, मुसलमानों की स्थिति अच्छी नहीं है। निम्नलिखित सारणी इस बिंदु को स्पष्ट करने में सहायक है.
सच्चर समिति ने मुसलमानों के शिक्षा संबंधित यह आंकड़े जनगणना 2001 के आधार पर और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान के 55वें (1999-2000) और 61वें(2004-05) चक्र के आंकड़ो के आधार पर विश्लेषण किया हैं, जो कि निम्नलिखित मुस्लिम शैक्षणिक स्थिति को दर्शाते हैं.
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6-14 वर्ष के आयु-वर्ग के 25 प्रतिशत तक मुसलमान बच्चें या तो स्कूल नहीं गये, या बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी, जो की मुसलमानों में पढ़ाई छोड़ने को दर सबसे अधिक है.
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प्राथमिक, मध्य और उच्च माध्यमिक स्तर पर मुसलमानों में अन्य समाजिक धार्मिक समूहों की तुलना में पढ़ाई छोड़ने की दर सबसे अधिक हैं.
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स्नातक-पाठयक्रम में हर 25 में से सिर्फ 1 और मास्टर डिग्री में प्रति 50 छात्रो में सिर्फ एक मुस्लिम है.
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उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी करने की सम्भावना हिन्दू- सामान्य में सबसे अधिक और मुसलमानों में सबसे कम है.
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20 वर्ष और उससे अधिक ऊपर की आबादी में स्नातकों का हिस्सा अन्य सामाजिक आर्थिक समूहों की तुलना में काफी कम हैं.
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आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी उच्च शिक्षा के लाभों से वंचित है, और मुसलमान वंचित रह जाने वाले समुदायों की एक महत्वपूर्ण समूह हैं.
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इस प्रकार के विश्लेषण से पता चलता है की मुसलमानों में शिक्षा का निम्न-स्तर दयनीय हालत में मौजूद हैं, जो की एक गहन चिंतन का विषय बन चुका है.
2001 में मुसलमानों में साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम थी, मुसलमानों में पढ़ाई छोड़ने की दर भी अधिक है, जैसा की रिपोर्ट बताती है कि 6 से 14 वर्ष के आयु वर्ग के मुस्लिम बच्चों में से 25 फीसदी या तो कभी स्कूल नहीं गए या उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. उच्चतर शिक्षा में मुसलमानों की कम भागीदारी का एक महत्वपुर्ण कारण यह है कि उच्च माध्यमिक उपलब्ध दर में उनका स्तर काफी निम्न हैं.
इसलिए भारत में उच्च शिक्षा में मुसलमानों बीच नामांकन दर सबसे कम हैं, जैसा कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण(2009-10) के आंकड़ो पर आधारित रिपोर्ट में मुस्लिमों के बीच उच्च शिक्षा में धर्म-आधारित नामांकन के मामले में सबसे कम हैं.
मसलन भारत में 100 मुस्लिमों में से सिर्फ 11 मुस्लिम ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं. जबकि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के मामले में हिन्दू में ये आंकड़े 20 फीसदी और ईसाई में 31 फीसदी मौजूद है. अत: यह कहाँ जा सकता है कि उच्च शिक्षा में मुसलमानों की पहुँच भारत के अन्य सभी समुदायों की तुलना में काफी कम है.
दरअसल, यदि इन आँकड़ों पर विस्तृत रूप से अध्ययन किया जाए और यह देखा जाए कि उच्च शिक्षा या सार्वजनिक रोजगार में जिस पिछड़ेपन अवधारणा को रखा जा रहा है, क्या यह सही मायने में सही सभी भारतीय मुसलमानों की वास्तविकता है, अथार्त मुस्लिम पिछड़ापन विशेषकर पसमांदा मुसलमान के संदर्भ में समझा जा सकता है, क्योंकि सभी मुसलमान पिछड़े हुए नहीं है.
भारत का मुस्लिम सम्प्रदाय समता के आधार पर निर्मित नहीं था बल्कि दौलत और सामाजिक हैसियत के आधार पर विभिन्न वर्गों में बँटा था. समाज के उच्च वर्ग में वे अभिजात्य कुलीन लोग थे जो प्रशासन के ऊँचे पदों पर आसीन थे तथा जिनके पास ज़मीन-जायदाद और जागीरें थीं.
विभिन्न श्रेणियों के मुसलमान भले ही धर्म के नाम पर एक-दुसरे से जुड़ें हो परन्तु न तो सांस्कृतिक और न ही सामाजिक रूप से इनका एक-दुसरे से किसी प्रकार का कोई नाता था. कुलीनों तथा अन्य निम्न-वर्गों में गहरा सांस्कृतिक अंतर था.
पुरे ऐतिहासिक दौर में बोल-चाल, पोशाक, खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार में अंतर बना रहा तथा निम्न-वर्ग से हमेशा एक दुरी बनाकर रखी गई. दरअसल मुस्लिम सम्प्रदाय कभी एक इकाई के रूप में नहीं रहा बल्कि वह सामाजिक और आर्थिक आधार पर विभिन्न वर्गों और जातियों में बँटा था.
मुसलमानों में कई ऐसे तबके हैं, जिनके नाम और पेशे हिन्दू दलितों से मिलते जुलते हैं. मुसलमानों के इन तबकों की हालत हिन्दू दलितों से खराब है. इसका प्रमुख कारण हिन्दू दलितों की तरह मुसलमानों की इन तबकों को आरक्षण की सुविधा का न होना है.
इसी सिलसिले में विगत दशकों से आरम्भ हुआ दलित मुस्लिम आन्दोलन का असल उद्देश्य मुसलमानों के उन पिछड़े वर्गों को संवैधानिक तरीके से दलित की हैसियत दिलवाना है जो पेशे के ऐतबार से दलित हिन्दुओं में समानता रखते है.
निष्कर्ष:
मुस्लिम समाज में उसूल-अमल (सिद्धांत-व्यवहार) में फर्क की सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता है. यह फर्क लंबे समय से मुस्लिम समाज में रहा है। मुसलमानों के बीच गहरे आर्थिक-सामाजिक विभाजन है और मुसलमानों का एक बड़ा तबका समुदाय के अंदर और बाहर लोकतंत्र, सम्मान, सामाजिक न्याय और बराबरी की आवाज़ उठा रहा है.
ये आवाजें धर्म, जाति, लोकतंत्र के बारे में स्थापित मुस्लिम नेताओं के विचारों पर सवाल उठा रही है. साथ ही समुदाय के अंदर ‘उलेमा’ और ‘अशराफ़’ अभियानों को चुनौती देता है. उनकी मुख्य मांग हैं. राज्य और केंद्र के स्तर पर पिछड़े मुसलमानों को ओबीसी और दलितों की सूची में शामिल करवाना.
दरअसल, मुस्लिम समाज में दलितों और पिछड़े मुसलमानों को न सामाजिक बराबरी मिली है और न ही उनका सशक्तीकरण ही हो पाया है. शिक्षा के क्षेत्र में यह समुदाय बहुत पीछे है. भारतीय समाज का दलित मुसलमान एक ऐसा तबका है, जो संविधान, संसदीय लोकतंत्र और मुख्यधारा की राजनीति के विषयों में एक सिरे से गायब है.
साथ ही पसमांदा मुसलमानों के सवाल खुद मुस्लिम समाज के भीतर और समकालीन भारतीय समाज और परिदृश्य में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया से गहरे तौर पर जुड़े हुए है. निश्चित तौर पर इस विमर्श में सामाजिक न्याय के बृह्त्तर संघर्षों, आंदोलनों, राजनीति के साझेदारी की जरूरत है.
भारतीय मुसलमानों के नाम पर शासन करने वाले विचारों और संस्थाओं को पूरी तरह सामंती मूल्यों से मुक्त किया जाए, इसे वर्ग और जाति दोनों ही आधार पर समाज के हर समूह का प्रतिनिधित्व करने वाला बनाया जाना चाहिए.
( फ़ैज़ान अहमद शोधार्थी ,राजनीति विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय )