हाल ही में कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा दो दर्जन से अधिक निर्दोष पर्यटकों की हत्या ने पूरे देश को गहरे सदमे में डाल दिया. इस अमानवीय हमले की पृष्ठभूमि में कई निगाहें एक बार फिर पाकिस्तान की ओर उठ गई हैं, खासकर तब जब कुछ दिन पहले पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर ने भारत और हिंदुओं के खिलाफ़ सार्वजनिक रूप से जहर उगला था.
यह हमला 1990 के दशक की खौफनाक यादों को फिर से जगा गया, जब पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने कश्मीर की वादियों को खून से रंग दिया था.
पाकिस्तान का कश्मीर में आतंकवाद प्रायोजित करने का इतिहास
इस हिंसक मानसिकता की जड़ें आज़ादी के बाद 1947 में शुरू हुईं, जब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर कब्जे की मंशा से हमला किया. उस समय पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने सैन्य अधिकारियों को कश्मीर पर आक्रमण की योजना बनाने का आदेश दिया.
इस ऑपरेशन की जिम्मेदारी मेजर जनरल अकबर खान को दी गई, जिन्होंने 'कश्मीर के अंदर सशस्त्र विद्रोह' नाम से एक रणनीति तैयार की. इसमें स्थानीय कश्मीरियों को हथियार देकर भारत के खिलाफ़ एक विद्रोह छेड़ने की योजना थी, ताकि भारतीय सेना के पहुंचने से पहले ही इलाके पर नियंत्रण कर लिया जाए.
हालांकि इस योजना को तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान ने पूरी तरह से नहीं अपनाया और उन्होंने सरदार शौकत हयात खान के नेतृत्व में एक वैकल्पिक रणनीति पर काम किया.
पाकिस्तान की सेना के दो शीर्ष अधिकारी, ज़मान कियानी और खुर्शीद अनवर, इस ऑपरेशन के सेनापति बनाए गए. खुद अकबर खान ने 'जनरल तारिक' के कोड नाम से इस ऑपरेशन में सक्रिय भूमिका निभाई और कश्मीर के कई हिस्सों पर कब्ज़ा किया, जो अब पाकिस्तान के कब्ज़े वाला कश्मीर कहलाता है.असंतोष और साजिश: पिंडी षड्यंत्र केस
1948 के युद्ध में भारत को रणनीतिक बढ़त मिली, जिससे अकबर खान जैसे अधिकारियों के मन में हार का गहरा मलाल रह गया। इसी मानसिकता से प्रेरित होकर उन्होंने 1951 में एक सैन्य तख्तापलट की योजना बनाई.
इसमें उर्दू के प्रसिद्ध कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और कुछ कम्युनिस्ट नेता भी शामिल थे. इस षड्यंत्र को 'पिंडी षड्यंत्र केस' के नाम से जाना गया, जिसमें अकबर खान को देशद्रोह का दोषी ठहराया गया. हालांकि, पाकिस्तान की आम जनता और सेना के कई वर्गों ने उन्हें कश्मीर की ‘आज़ादी’ के नायक के रूप में देखा.
“बर्तन उबालते रहो”: कश्मीर में अस्थिरता की नीति
अकबर खान ने एक रणनीतिक दस्तावेज़ तैयार किया था जिसे "बर्तन उबालते रहो" कहा गया। इसका उद्देश्य कश्मीर में स्थायी अस्थिरता बनाए रखना था. उनका मानना था कि संयुक्त राष्ट्र की भूमिका तब तक सक्रिय नहीं होगी जब तक कि क्षेत्रीय शांति को सीधा खतरा न हो. इसलिए उन्होंने सीमा पार से गुरिल्ला हमलों, पुलों को उड़ाने, और युद्धविराम रेखा की आड़ में छोटे-छोटे छापामार दस्तों को भेजने की योजना पेश की.
अकबर के अनुसार, केवल 500 प्रशिक्षित लोगों की छोटी टुकड़ी कश्मीर में व्यापक तबाही फैला सकती थी. इन दस्तों को स्थानीय वेशभूषा में, सीमित विस्फोटक सामग्री और सरल उपकरणों के साथ भेजा जाना था, ताकि वे पहचान से बचे रहें. इस पूरी योजना का उद्देश्य भारत को उकसाकर उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर आक्रामक दिखाना था और पाकिस्तान को ‘पीड़ित’ के रूप में पेश करना था.
आज भी जारी है वही सोच
यह रणनीति केवल कागज़ों तक सीमित नहीं रही। 1970 के दशक में बांग्लादेश में नरसंहार और फिर 1990 के दशक में कश्मीर में चरमपंथी हिंसा—इन सबमें पाकिस्तान की वही नीति झलकती है। आतंकवाद को 'आंतरिक विद्रोह' का जामा पहनाकर पाकिस्तान वर्षों से इसे परोक्ष रूप से पोषित करता रहा है.
पाकिस्तान की राजनीतिक और सैन्य सोच में आतंकवाद को एक रणनीतिक उपकरण के रूप में देखा जाता रहा है. सेना, बुद्धिजीवी, पत्रकार, और यहां तक कि वहां के कम्युनिस्ट वर्ग भी इस नीति के साथ खड़े रहे हैं. कश्मीर में शांति पाकिस्तान की भू-राजनीतिक योजनाओं के खिलाफ़ है, इसलिए वह किसी भी कीमत पर वहां अस्थिरता बनाए रखना चाहता है.
आज जब कश्मीर एक बार फिर आग की लपटों में घिरा हुआ है, यह आवश्यक है कि हम इसके पीछे की ऐतिहासिक जड़ों को समझें. पाकिस्तान का ‘गैर-राज्य तत्वों’ के सहारे छद्म युद्ध छेड़ने का रवैया नया नहीं है, बल्कि यह दशकों पुरानी एक सोची-समझी नीति का परिणाम है.
कश्मीर में आतंकवाद की आग सिर्फ सीमा पार से नहीं आती, बल्कि वह एक गहरी और लम्बे समय से पोषित मानसिकता से उपजी है—जिसका अंत तभी होगा जब दुनिया इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और नीयत को ठीक से समझेगी.