भारत का उदय-03: हिंद-प्रशांत और ‘एक्ट-ईस्ट पॉलिसी’ का केंद्र-बिंदु आसियान

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 04-09-2023
 ASEAN at the center of Indo-Pacific and ‘Act-East Policy’
ASEAN at the center of Indo-Pacific and ‘Act-East Policy’

 

parmodप्रमोद जोशी

हाल के वर्षों में भारतीय विदेश-नीति में सबसे ज्यादा ‘हिंद-प्रशांत’ शब्द का इस्तेमाल हुआ है. इसकी वजह को समझने की कोशिश करनी चाहिए. हिंद-प्रशांत विशाल भौगोलिक-क्षेत्र है, जिसका कुछ हिस्सा भारत के पश्चिम में है, पर ज्यादातर हिस्सा पूर्व में है. पूर्व में भारत की दिलचस्पी के दो कारण हैं. एक, कारोबार और दूसरा चीनी-विस्तार को रोकना.

भारत का आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट है. और अब हम अलग-अलग देशों के साथ आर्थिक सहयोग के समझौते भी कर रहे हैं. पर यह हमेशा याद रखना चाहिए कि आर्थिक शक्ति की रक्षा के लिए सामरिक शक्ति की ज़रूरत होती है.

भारत को किसी देश के खिलाफ यह शक्ति नहीं चाहिए. हमारे जीवन में दूसरे शत्रु भी हैं. सागर मार्गों पर डाकू विचरण करते हैं. आतंकवादी भी हैं. इसके अलावा कई तरह के आर्थिक माफिया और अपराधी हैं. इन्हीं बातों के संदर्भ में भारत को अपने राष्ट्रीय-हितों की रक्षा करने के लिए तैयार रहना है.

सांस्कृतिक-संबंध

भौगोलिक-दृष्टि से हिंद-प्रशांत का मतलब है एक तरफ दक्षिण अफ्रीका के आशा अंतरीप से शुरू करके अफ्रीका के पश्चिमी तट और अरब सागर से जुड़े इलाकों को शामिल करते हुए संपूर्ण हिंद महासागर का इलाका और दूसरी तरफ दोनों अमेरिकी भूखंडों के पश्चिमी तट को छूने वाले प्रशांत महासागर का क्षेत्र. इन दोनों के बीच में पड़ता है दक्षिण पूर्व एशिया या आसियान-क्षेत्र.

आसियान भारत का चौथा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. इस इलाके के साथ हमारे हजारों साल पुराने सांस्कृतिक-संबंध हैं. हजारों साल पहले से हमारे पोत इस इलाके में जाते रहे हैं. इस इलाके में भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा भी हजारों साल पुरानी है.  

दुनिया के पहले दो विश्वयुद्धों का रणक्षेत्र अटलांटिक महासागर था, पर बदलती दुनिया में यह सबसे सरगर्म या ‘हॉट’ और आकार में बहुत बड़ा इलाका है. कारोबार और भू-राजनीति के लिहाज से दुनिया का सबसे व्यस्त क्षेत्र. इस इलाके में भारत की भूमिका बढ़ती जा रही है. यही वजह है कि भारत की ‘लुक-ईस्ट पॉलिसी’ देखते ही देखते ‘एक्ट-ईस्ट’ में बदल गई है.

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संपर्क बनाने में देरी

लंबे अरसे तक भारत पूर्व एशिया के देशों से कटा रहा. आसियान को बने 56  साल हो गए हैं. भारत के पास इसमें शामिल होने का अवसर था. वह शीतयुद्ध का दौर था और आसियान अमेरिकी गुट से जुड़ा संगठन माना गया और हमने उसकी अनदेखी कर दी.

1991-92 केवल आर्थिक बदलाव के वर्ष ही नहीं थे, विदेश-नीति में भी बदलाव आया. इसकी एक वजह सोवियत संघ का विघटन था. पीवी नरसिंहराव के समय में भारत की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ की बुनियाद पड़ी और सन 1992 में भारत आसियान का डायलॉग पार्टनर बना.

इस घटना के तीन साल पहले 1989 में जब एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग संगठन (एपेक) बनाया जा रहा था, तब उसमें भारत को सदस्य बनाने की बात सोची भी नहीं गई. पर 1996में इंडोनेशिया ने भारत को एआरएफ (आसियान रीजनल फोरम) का सदस्य बनाने में मदद की थी.

1998 में भारत के नाभिकीय-विस्फोट से कुछ समय के लिए स्थितियाँ बिगड़ीं, पर इक्कीसवीं सदी की शुरूआत के साथ बुनियादी बदलाव हो गया. 

वैचारिक-बदलाव

यह वह दौर था जब अमेरिकी विदेश नीति में भारत और पाकिस्तान को एक साथ देखने की व्यवस्था खत्म हो रही थी. इन बातों को याद रखने की ज़रूरत इसलिए है कि अब जब भारत अपने आर्थिक और सामरिक हितों के मद्देनज़र वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सोच रहा है तो उसका आगा-पीछा देखने की ज़रूरत भी पैदा होगी.

दिसंबर 1995 में आसियान के साथ भारत की पूर्ण संवाद साझेदारी और 2002में शिखर-स्तरीय साझेदारी की शुरुआत हुई. दिसंबर 2012में भारत ने जब आसियान के साथ सहयोग के बीस साल पूरे होने पर समारोह मनाया तब तक हम ईस्ट एशिया समिट में शामिल हो चुके थे और हर साल आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में भी शामिल होने लगे.

इसका 25वां सम्मेलन जनवरी 2018 में आयोजित किया गया था. उस वर्ष आसियान के दस सदस्य देशों के प्रमुख गणतंत्र दिवस समारोह में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हुए थे.

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हिंद-प्रशांत संकल्पना

इक्कीसवीं के शुरुआती वर्षों से ही हिंद-प्रशांत की संकल्पना सामने आ गई थी. उसके पहले तक अमेरिका की विदेश-नीति में उसके लिए शब्द होता था ‘एशिया-पैसिफिक.’ 2019में चीनी विरोध के बावजूद आसियान ने हिंद-प्रशांत पर अपने दृष्टिकोण ‘आसियान आउटलुक ऑन इंडो-पैसिफिक (एओआईपी)’ की घोषणा की.

हिंद-प्रशांत की संकल्पना दीर्घकालीन और सामरिक है, जबकि एओआईपी कार्यात्मक है. यह दृष्टिकोण इस क्षेत्र के समुद्री इलाके में सुरक्षित, संरक्षित और स्थिर व्यवस्था चाहता है. इसमें समुद्री सुरक्षा, समुद्री संसाधनों की स्थिरता और आपदा रोकथाम और प्रबंधन को बढ़ाने के लिए इच्छुक देशों के बीच भागीदारी का सुझाव है.

चीन का डर

चीन के साथ अपने संबंधों को लेकर आसियान देश हमेशा आशंकित रहे हैं. चीन ने नाइन-डैश लाइन के तहत आसियान देशों के द्वीपों और समुद्र पर दावा किया है. चीन की ताकत को देखते हुए आसियान को पहले डर सताता था, पर 2018में उसकी यह चिंता दूर हो गई, क्योंकि भारत भी खुलकर उसके साथ आ गया था.

सच यह है कि हमारे पड़ोस के देशों का दक्षिण एशिया सहयोग संगठन सफल (सार्क) नहीं हैं, पर आसियान है. सिंगापुर, वियतनाम, फिलीपींस और इंडोनेशिया इस इलाके में हमारे महत्वपूर्ण मित्र देश के रूप में उभरे हैं. सन 2005 में मलेशिया की पहल से शुरू हुआ ईस्ट एशिया समिट इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत भी इसका सदस्य है.

जापान के साथ हमारे सामरिक रिश्ते भी बन रहे हैं, जो पूर्वी एशिया का महत्वपूर्ण देश है. सवाल उठ रहा है कि क्या भारत चीन को घेरने की अमेरिकी नीति का हिस्सा बनने जा रहा है? इन्हीं संदर्भों में आर्थिक सहयोग और विकास के मुकाबले ज्यादा ध्यान सामरिक और भू-राजनैतिक प्रश्नों को दिया जा रहा है.

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आसियान सम्मेलन

संभावना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के जी-20शिखर सम्मेलन से पहले जकार्ता में हो रहे आसियान शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे. संभवतः वे 6को जाकर 7को भारत वापस आ जाएंगे. 9-10 के जी-20 शिखर सम्मेलन की व्यस्तता के बावजूद यदि वे वहाँ जा रहे हैं, तो इसका एक मतलब यह भी है कि वे अपनी ‘एक्ट-ईस्ट’ पालिसी में आसियान की भूमिका को केंद्रीय मानते हैं. 

भारत-आसियान मुक्त-व्यापार समझौते की समीक्षा अब अंतिम चरण में है. इन सब बातों को देखते हुए यह सम्मेलन महत्वपूर्ण है. सम्मेलन के कार्यक्रमों में, खासतौर से आसियान-भारत शिखर सम्मेलन के समय में भी कुछ बदलाव किया गया है, ताकि पीएम मोदी की भागीदारी संभव हो.

यदि वे गए, तो प्रधानमंत्री मोदी की एक साल के भीतर यह दूसरी इंडोनेशिया यात्रा होगी. जी-20 के सम्मेलनों में पिछले और भावी अध्यक्षों की भी भूमिका भी होती है. इस लिहाज से इंडोनेशिया महत्वपूर्ण है. आसियान और जी-20दोनों में. 

भारत-चीन

ईस्ट एशिया समिट में आसियान के दस सदस्य देश और आठ डायलॉग पार्टनर भाग लेते हैं. इस सम्मेलन में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के आने की संभावना भी है. संभव है कि सम्मेलन के हाशिए पर दोनों की भेंट हो, पर जोहानेसबर्ग के अनुभव के बाद लगता नहीं कि भारत-चीन रिश्तों को लेकर कोई बड़ी गतिविधि वहाँ हो.

पहले खबरें थीं कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन भी ईस्ट एशिया समिट में आएंगे, पर वे नहीं आ रहे हैं, उनकी जगह उपराष्ट्रपति कमला हैरिस आएंगी. पर बाइडेन दिल्ली के जी-20सम्मेलन में आएंगे. दिल्ली और जकार्ता के दोनों सम्मेलनों में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के शामिल होने को लेकर संदेह तो हैं ही, अब सुनाई पड़ रहा है कि शी चिनफिंग भी अनुपस्थित हो सकते हैं. 

पिछले साल प्रधानमंत्री आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में हिस्सा नहीं ले पाए थे. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कंबोडिया में भारत-आसियान शिखर सम्मेलन और संबंधित शिखर बैठकों में देश का प्रतिनिधित्व किया.

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आसियान का महत्व

पिछले वर्ष की बैठक में भारत और आसियान ने समग्र नीतिगत साझेदारी की घोषणा की थी. संयुक्त घोषणा पत्र में युनाइटेड नेशंस कनवेंशन ऑन द लॉ ऑफ सी (यूएनक्लोस) का सभी देशों से पालन करने की अपील की गई थी. यह बात चीन की तरफ इशारा करके कही गई है. दक्षिण चीन सागर में चीन, यूएनक्लोस को स्वीकार नहीं कर रहा है.

दक्षिण-पूर्व एशिया का सबसे प्रभावशाली समूह है आसियान. इसके दस सदस्य देश हैं-ब्रूनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम. आठ डायलॉग पार्टनर हैं-ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, न्यूज़ीलैंड, दक्षिण कोरिया, रूस और अमेरिका.

सामरिक-दृष्टि

कारोबार और भू-राजनीति के लिहाज से आसियान महत्वपूर्ण है और भारत की 'एक्ट ईस्ट पॉलिसी' का महत्वपूर्ण पड़ाव है. मलक्का की खाड़ी के मुहाने पर भारतीय नौसेना इस स्थिति में है कि वह समुद्री यातायात पर निगाह रख सके. भारतीय नौसेना के पी-8आई टोही विमान अब दक्षिण चीन सागर पर नियमित उड़ानें भरते हैं और हमारे युद्ध पोतों की पहुँच सुदूर पूर्व तक हो गई है.

हाल में वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया और इंडोनेशिया के साथ भारत के सामरिक-रिश्ते भी बने हैं. भारत ने फिलीपींस को ब्रह्मोस मिसाइलें और वियतनाम को युद्धपोत दिए हैं. ऐसा माना जा रहा है कि भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के सुरक्षा-समूह में भविष्य में आसियान देशों की भागीदारी भी संभव है.

इस साल मई में भारत और आसियान का पहला समुद्री युद्धाभ्यास संपन्न हुआ. पूर्वोत्तर में उग्रवाद का सामना करने, आतंकवाद का मुकाबला करने, कर चोरी आदि जैसे मामलों के लिए आसियान देशों के साथ सहयोग आवश्यक है.

भारत इस क्षेत्र में एक ऐसे सुरक्षा एवं सामरिक-साझेदार के रूप में पहचान बना रहा है, जिस पर भरोसा किया जा सकता है. भारत ने हाल में वियतनाम को मिसाइल वाहक युद्धपोत कृपाण उपहार के तौर पर दिया है.

पनडुब्बियों और लड़ाकू विमानों का संचालन करने वाले वियतनामी सैन्य अधिकारियों के प्रशिक्षण देने और सायबर सुरक्षा और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध जैसे क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा देने पर भी विचार किया है.

अटकलें हैं कि जनवरी 2022 में फिलीपींस के साथ हुए समझौते की तरह जल्द ही वियतनाम के साथ भी ब्रह्मोस समझौता किया जा सकता है. इंडोनेशिया के साथ भारत की रक्षा साझेदारी भी बढ़ रही है, जहां किलो-श्रेणी की भारतीय पनडुब्बी फ़रवरी 2023 में पहली बार इंडोनेशिया पहुंची.

आसियान-भारत सहयोग कोष, आसियान-भारत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकास कोष और आसियान-भारत ग्रीन फंड जैसे विभिन्न तंत्रों के माध्यम से आसियान देशों को भारत वित्तीय सहायता प्रदान करता है.

भारत, भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग और कलादान मल्टीमोडल परियोजना जैसी कई कनेक्टिविटी परियोजनाओं पर काम चल रहा है. भारत, आसियान के साथ एक समुद्री परिवहन समझौता स्थापित करने का भी प्रयास कर रहा है और नई दिल्ली-हनोई के बीच एक रेलवे लिंक स्थापित करने की भी योजना भारत बना रहा है.

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )

अगले अंक में पढ़ें इस श्रृंखला का चौथा लेख:‘एक्ट-वैस्ट’ अर्थात पश्चिम एशिया में बढ़ते कदम


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