हरजिंदर साहनी
कहते हैं पैसे का कोई मजहब नहीं होता, लेकिन बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना चाहती हैं कि इस्लामिक देशों की एक अलग करेंसी होनी चाहिए. यह बात उन्होंने पिछले हफ्ते डी-8 देशों के ढाका में हुए एक सम्मेलन के बाद कही.
डी-8 दुनिया के आठ बड़े इस्लामिक देशों का संगठन है जिसे 1996 में बांग्लादेश, मिस्र, इंडोनेशिया, ईरान, मलेशिया, नाईजीरिया, पाकिस्तान और तुर्की ने मिलकर बनाया था.
इसका मकसद था विश्व अर्थव्यवस्था में संगठित रूप से एक नई भूमिका निभाना. शुरू से ही साफ था कि यह एक ऐसा संगठन होगा जिसके सदस्य देशों में इस्लामी धर्मावलंबियों का बहुमत होगा.
इस मामले में यह 56 सदस्य देशों वाले आर्गेनाईजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन यानी ओआईसी से अलग है क्योंकि वहां कुछ सदस्य देश ऐसे भी हैं जहां मुसलमान बहुसंख्यक नहीं हैं. भारत भी ओआईसी का सदस्य बनने की कोशिश कर चुका है लेकिन यह पाकिस्तान के विरोध के कारण नहीं हो सका. हालांकि वह एक अलग कहानी है.
डी-8 को बनाने के पीछे सोच तकरीबन वैसी ही है जैसी ब्रिक्स को लेकर है. शायद यह पहली ऐसी आर्थिक लाॅबी है जिसकी सदस्यता का आधार मजहब है. आर्थिक संगठन अलग-अलग आधार पर बनते रहे हैं इसलिए मजहब के आधार पर ऐसा संगठन बनाने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है.
पिछले हफ्ते डी-8 देशों के उद्योग मंत्रियों का एक सम्मेलन ढाका में हुआ। सम्मेलन के बाद ये सभी मंत्री बांग्लादेश की प्रधानमंत्री के सरकारी निवास पर गए. इसी मुलाकात के दौरान शेख हसीना ने यह बात कही.
आमतौर पर करेंसी किसी देश की होती है. आधुनिक समय में यूरो पहली ऐसी करेंसी है जो किसी देश की नहीं बल्कि एक क्षेत्र की है जिसे यूरोजोन कहा जाता है.
पश्चिम यूरोप के देशों ने मिलकर जब यूरोपियन यूनियन बनाया था तभी सबकी एक साझा करेंसी की घोषणा हुई थी. हालांकि ब्रिटेन ने अपने आप को इससे अलग रखा था और वह पौंड स्टर्लिंग की अपनी करेंसी ही चलता रहा. किसी एक मजहब की एक करेंसी हो यह बात इससे पहले कभी चर्चा में नहीं रही.
शेख हसीना ने यूरो का उदाहरण देकर अपनी बात कही है इसलिए यहां यूरो की चर्चा भी बहुत जरूरी है. जिस समय यूरो लांच हुआ था तब दुनिया की सबसे आधुनिक और सबसे आदर्श करेंसी के रूप में पेश किया गया था. यहां तक कहा जा रहा था कि इससे हार्ड करेंसी के बाजार में डाॅलर का दबदबा कम हो सकता है.
पिछले ढाई दशक का अनुभव यह बताता है कि यूरो न तो मजबूत करेंसी बना रहा सका और न ही यह कोई आदर्श बना पाया ऐसा माना जाता है कि पुर्तगाल जैसे यूरोप के कुछ देशों की आर्थिक हालत इसी की वजह से खस्ता हुई. यह जरूर है कि इसका फायदा पहले से ही मजबूत जर्मनी जैसे देश को मिला.
जब आपकी अपनी करेंसी होती है तो आप अपनी माॅनीटरी और मैक्रोइकाॅनमिक नीतियों से उसके जरिये अर्थव्यवस्था का नियंत्रित कर सकते हैं. खासकर महंगाई पर काबू पाने के लिए तो इन्हीं नीतियों को इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन जब करेंसी साझा हो जाती है तो महंगाई को काबू करना मुमकिन नहीं होता. पश्चिम यूरोप के छोटे देशों के साथ यही हुआ.
क्या जब शेख हसीना साझा करेंसी की बात कर रही थीं तो उन्होंने इस पर विचार किया था?
अगर इस करेंसी की बात आगे बढ़ती है तो सबसे बड़ी दिक्कत तुर्की के सामने आएगी. पिछले काफी समय से तुर्की यह कोशिश कर रहा है कि उसे यूरोपियन यूनियन में शामिल कर लिया जाए. तब तुर्की कौन सी करेंसी अपनाना चाहेगा.