प्रधानमंत्री की हालिया रूस यात्रा: महत्त्व, परिणाम और संभावनाएं

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 11-07-2024
Prime Minister's recent visit to Russia: significance, outcome and prospects
Prime Minister's recent visit to Russia: significance, outcome and prospects

 

jk tripathiजितेंद्र कुमार त्रिपाठी

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भारत और रूस के मध्य होने वाली वार्षिक शीर्ष वार्ता के 22वे संस्करण में भाग लेने के लिए 8 -9जुलाई को मास्को की आधिकारिक यात्रा की. यद्यपि अपने पिछले दो कार्यकालों में प्रधानमंत्री  रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से आठ बार विभिन्न मंचों पर मिल चुके हैं. अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत प्रधानमंत्री ने रूस यात्रा से की है,जो यह दर्शाता है कि भारत के लिए रूस का क्या महत्त्व है.

यह वार्षिक शीर्ष वार्ता बारी-बारी से भारत और रूस में होती रही है, किन्तु यूक्रेन के साथ संघर्ष के चलते पुतिन की व्यस्तता और उन पर पश्चिमी देशों द्वारा प्रतिबन्ध लगाए जाने के कारण पुतिन के लिए रूस से निकलना लगभग असंभव हो गया था. अतः विगत दो वर्षों से यह वार्ता नहीं हो पाई.

इस वार्ता का प्रारूप यह है कि पहले दोनों देशों के शासनाध्यक्ष एकाकी वार्ता करते हैं जिसमें विचारों का व्यापक आदान-प्रदान होता है, मुख्य मुद्दों पर सहमति होती है और फिर प्रतिनिधि-मंडल के स्तर पर वार्ता होती है जिसकी अध्यक्षता दोनों नेता करते हैं.

इसी स्तर पर प्रस्तावित समझौतों पर आम सहमति बनती है. बाद में समझौतों या साझा बयानों /प्रेस विज्ञप्तियों के प्रारूपों में नेताओं की सहमति से छोटे मोटे सुधार करके हस्ताक्षर किए जाते हैं और दस्तावेज़ ज़ारी किया जाता है.इस बार की यात्रा विशेष थी.

8 जुलाई की शाम को मास्को पहुंचने के बाद पुतिन ने प्रधानमंत्री को मास्को के बाहर अपने व्यक्तिगत दाचा ( एक प्रकार  का फार्महाउस) में अनौपचारिक रात्रिभोज के लिए आमंत्रित किया,जहाँ दुभाषियों के अतिरिक्त और कोई भी उपस्थित नहीं था. ऐसा इसलिए किया गया ताकि दोनों नेता अगले दिन की वार्ता के पहले एक दूसरे से सहज हो जाएं.  वैसे भी मोदी और पुतिन के बीच व्यक्तिगत तौर पर सम्बन्ध बहुत प्रगाढ़ हैं.

इस वार्ता का महत्त्व इसके शुरू होने के पूर्व रूसी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के इस बयान से ही लगाया जा सकता है कि वार्ता के लिए विचाराधीन मुद्दों की "कोई सीमा नहीं है."जैसी कि उम्मीद की जा रही थी, वार्ता के दौरान चर्चा के विषय  बहुत व्यापक थे.

द्विपक्षीय सैन्य सहयोग, "मेड इन इंडिया" की नीति के तहत रूसी ए. के.  303  राइफल, टैंक, लड़ाकू विमान तथा अन्य साज़ो सामान के भारत में निर्माण, ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग में संवर्धन (जिसमें रूस से कच्चे तेल का आयात, तमिलनाडु में कुडकलम में परमाणु रिएक्टर की आपूर्ति शामिल है), कनेक्टिविटी (उत्तर- दक्षिण व्यापार गलियारा, व्लादिवोस्तोक- चेन्नई व्यापार मार्ग तथा भारत तथा रूस के अन्य शहरों को हवाई मार्ग से जोड़ने का प्रस्ताव सम्मिलित हैं), रूपया-रूबल व्यापार में वृद्धि, रूस को भारत को कच्चे तेल के निर्यात से मिले रूपयों का सम्यक निस्तारण, अंतरिक्ष में सहयोग, रूसी सेना में धोखे से भर्ती किए गए भारतीयों की घर वापसी, विज्ञान और तकनीकी क्षेत्रों में सहयोग में वृद्धि आदि द्विपक्षीय मामलों पर सार्थक वार्ता हुई (पुतिन ने मोदी जी को आश्वस्त किया कि रूसी सेना में धोखे से लाए गए भारतीयों की सकुशल घर वापसी सुनिश्चित की जाएगी).

साथ ही क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषयों जैसे यूक्रेन युद्ध, इजराइल -हमास संघर्ष, हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीन के अन्य क्षेत्रीय देशों के साथ बिगड़ते सम्बन्ध, स.रा. संघ में सुधार, ब्रिक्स और जी -20जैसे संगठनों की दिशा और इनमें दोनों देशों की भूमिका,भारत के चीन के साथ सम्बन्ध आदि विषयों पर गहन वार्ता हुई.

यहाँ यह पूछा जा सकता है कि आखिर ऐसी सुनियोजित वार्षिक शिखर वार्ताओं का महत्त्व क्या है और क्या विचाराधीन वार्ता का समय भी महत्वपूर्ण है? एक निश्चित अंतराल (वार्षिक या छमाही) पर आयोजित होने वाली ये शिखर वार्ताएं उभय पक्ष को आमने सामने बैठ कर विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर एक दूसरे के रुख को स्पष्टतः समझने, साझा रुख अपनाने और पिछली शिखर वार्ता में लिए गए निर्णयों का आकलन करने और उनके कार्यान्वयन में आने वाली बाधाओं से निपटने के उपाय खोजने में बहुत कारगर साबित होती हैं.

जिन मुद्दों/बाधाओं पर प्रशासक अपने सीमित अधिकार के कारण निर्णय लेने में प्रायः असफल होते हैं, उन्हें देश के शासनाध्यक्ष बैठ कर सुलझा लेते हैं. जहाँ तक विचाराधीन शिखर वार्ता के समय का प्रश्न है, इससे अच्छा कोई समय नहीं हो सकता था.

यदि यह वार्ता अभी नहीं होती तो इससे यह ग़लत सन्देश जा सकता था कि भारत की रूचि अब रूस के साथ सम्बन्ध बढ़ने में नहीं रही. दूसरे, विगत एक सप्ताह में विश्व -पटल पर ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जिनके परिप्रेक्ष्य में इस वार्ता का महत्त्व और भी बढ़ जाता है.

ईरान में नए उदारवादी राष्ट्रपति का चुनाव, शंघाई सहयोग संगठन का अस्ताना में हुआ शीर्ष सम्मेलन, वाशिंगटन में हुआ नाटो देशों का शीर्ष सम्मलेन -इन सभी का प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बन्ध विश्व के विभिन्न भागों में होने वाले संघर्षों/तनावों से है. ऐसे में भारत जैसी वर्तमान क्षेत्रीय और उदीयमान विश्व-शक्ति की रूस के साथ वार्ता पर पूरी दुनिया की नज़र है. 

भारत के रूस और पश्चिम के साथ समान रूप से अच्छे सम्बन्ध हैं और दोनों ही खेमों ने कई बार भारत से रूस -यूक्रेन युद्ध में और सक्रिय भूमिका निभाने की अपील की है. भारत द्वारा सं. रा. संघ और अन्य क्षेत्रीय मंचों पर अपनी रणनीतिक स्वायत्तता प्रदर्शित करने और युद्ध के सभी प्रारूपों का विरोध करने के कारण सभी की आशाएं मास्को शिखर-वार्ता पर हैं.

  इस यात्रा पर अपनी प्रारंभिक प्रतिक्रिया में अमेरिका ने कुछ चिंता ज़ाहिर करते हुए भारत को सलाह दी थी कि वह सं. रा.संघ के चार्टर के अनुरूप ही रूस से व्यवहार करे जिसे भारत ने निरस्त कर दिया. हालाँकि नाटो सम्मलेन में ज़ेलेन्स्की ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता द्वारा एक "हत्यारे' राष्ट्रपति को गले लगाने पर निराशा ज़ाहिर की, अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत की रूस नीति को मान्यता दी.

 यात्रा के दौरान संभवतः जानबूझ कर कोई रक्षा समझौता इसलिए नहीं किया गया कि तनाव के वर्तमान माहौल में भारत के खिलाफ कोई ग़लत सन्देश न जाए. शायद भारत को दिए जाने वाले कच्चे तेल की दरों में और कमी करने के लिए रूस को मना लिया गया है. मोदी जी ने फिर रूसी राष्ट्रपति को साफ़ शब्दों में युद्ध से विरत रहने की सलाह दी है और भरोसा दिलाया है कि इस दिशा में भारत से जो भी बन पड़ेगा, किया जाएगा.

कुछ कूटनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि, चूंकि रूस एक कमजोर पड़ती हुई शक्ति है, इस लिए हमें अब रूस का साथ छोड़ कर पूरी तरह पश्चिम के साथ हो जाना चाहिए. ऐसे लोगों को यह भी लगता है कि भारत जैसी शक्ति को चहारदीवारी पर बैठे रहने के (निष्पक्ष रहने के ) बजाए खुल कर पश्चिम का साथ देना चाहिए.

किन्तु वे भूल जाते हैं कि सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस अभी भी क्षेत्रफल तथा परमाण्विक शक्ति की दृष्टि से दुनियां का सबसे बड़ा देश  है. साथ ही, रूस सदैव हमारे साथ विभिन्न क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर खड़ा रहा है. रूस ने हमारी मदद तब की थी, जब किसी पश्चिमी देश ने नहीं की और अभी भी रूस हमारे लिए सैन्य सामग्री, तेल और उर्वरक का सबसे बड़ा स्रोत है.

ध्यान रहे कि भारत और रूस के मध्य एक स्पेशल ऐंड प्रिविलेज्ड स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप (विशिष्ट तथा प्रतिष्ठित रणनीतिक साझेदारी) है जो कि ऐसी साझदारियों में बहुत ऊंची मानी जाती है. हाँ, चीन के साथ रूस की बढ़ती दोस्ती जिसे चीन "सीमाहीन मित्रता" कहता है, हमारी चिंता का विषय बन सकती है.

लेकिन हाँ हमें  रूस को यह समझाना चाहिए कि हमें रूस-चीन की इस नई मित्रता से कोई हानि नहीं होनी चाहिए और हम इसमें सफल भी हो सकते हैं जैसे हमने अमेरिका को समझा दिया है कि भारत-रूस मित्रता का कोई विपरीत प्रभाव भारत-अमेरिका के संबंधों पर नहीं पड़ेगा.  वैसे भी रूस और चीन की यह नई दोस्ती एक "सुविधाजनित विवाह" से अधिक कुछ नहीं है जिस में यूक्रेन युद्ध के बाद शीघ्र ही तलाक की संभावनाएं ज़्यादा हैं.

लेखक  भूतपूर्व राजदूत हैं