नफरत के दौर में एक रियायत पर राजनीति

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 24-02-2025
Politics on concession in the era of hatred
Politics on concession in the era of hatred

 

harjinder- हरजिंदर

राजनीति अब किसी भी बात पर हो सकती है. यहां तक कि एक ही पार्टी दो अलग-अलग राज्यों में अलग तरह की राजनीति भी कर सकती है. दक्षिण और पश्चिम के राज्यों में रमज़ान को लेकर इन दिनों जिस तरह की राजनीति हो रही है वह यह बताने के लिए काफी है कि कैसे इन दिनों बेवजह विवाद बना देने और उन्हें तूल देने का सिलसिला निकल पड़ा है.

पिछले दिनों आंध्र प्रदेश की सरकार ने  रमज़ान को देखते हुए यह घोषणा कर दी कि इस पवित्र महीने में रोजा रखने वाले सरकारी कर्मचारी और सरकार के लिए काम करने वाले कर्मचारी एक घंटा पहले दफ्तर से जा सकेंगे.

यानी उनकी छुट्टी शाम पांच बजे के बजाए चार बजे ही कर दी जाएगी ताकि वे जाकर परंपरा के हिसाब से इफ्तार कर सकें. इसका असर पड़ोसी राज्य तेलंगाना पर भी पड़ा. वहां भी सरकार ने तय किया कि रोजदारों को इस दौरान एक घंटा पहले छुट्टी दे दी जाएगी.

तेलंगाना में इस छुट्टी की घोषणा होते ही हंगामा हो गया. भारतीय जनता पार्टी ने राज्य सरकार पर तुष्टिकरण जैसे ढेर सारे आरोप लगा डाले. दिलचस्प बात यह है कि ऐसा हंगामा उसने आंध्र प्रदेश में नहीं किया, जबकि आंध्र प्रदेश में यह पार्टी सत्ताधारी तेलुगू देशम सरकार का हिस्सा है.

इन दोनों के ही पड़ोसी राज्य कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है. वहां भी रोजेदारों के लिए इसी तरह की रियायत की मांग होने लगी. यह मांग कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने की.

मांग जिस तेजी से उठी थी उससे कहीं ज्यादा उसका विरोध भी होने लगा. कर्नाटक सरकार को समझ में आ गया कि इसके नतीजे गंभीर हो सकते हैं, इसलिए उसने इस ओर कदम ही नहीं बढ़ाया. यह घोषणा भी करनी पड़ी कि ऐसा कोई फैसला सरकार नहीं लेने जा रही है.

वहां से यह बात कर्नाटक के पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र पहंुची. राज्य के अल्पसंख्यक आयोग ने रोजदारों को इसी तरह की रियायत देने की अपील कर डाली. महाराष्ट्र में तो भारतीय जनता पार्टी की ही सरकार है, इसलिए अब सबकी नजरे इस पर हैं कि राज्य सरकार अपने अल्पसंख्यक आयोग की बात मानती है या नहीं.

यह राजनीति अपनी जगह है, पर एक सवाल यह जरूर है कि यह नया चलन क्यों शुरू किया जा रहा है? और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि पहले आमतौर पर क्या होता था?

बेशक, सरकारें जब इस तरह के कदम उठाती हैं तो अक्सर उनकी नजर वोटों पर ही होती है. लेकिन हम इसी आधार पर किसी नतीजे पर नहीं पहंुच सकते. ऐसे में असल सवाल यही रहता है कि जो कदम उठाया जा रहा है क्या वाकई वह किसी जरूरत को पूरा कर रहा है? या उसके बिना भी काम चल सकता था?

पहले ज्यादातर सरकारी और निजी दोनों ही तरह के कार्यालयों में स्थानीय स्तर पर लोगों को धार्मिक भावनाओं का ख्याल रखा जाता था. ऐसा सिर्फ रमज़ान में ही नहीं होता था.

करवा चैथ जैसे मौके पर महिलाओं को या तो आसानी से छुट्टी मिल जाती थी या फिर रक्षाबंधन के दिन यह मान कर चला जाता था लोग कार्यालय में थोड़ी देरी से आएंगे. इसलिए ऐसी समस्याओं ने कभी ज्यादा परेशान नहीं किया.

अब जबसे धार्मिक मसलों पर राजनीति शुरू हो गई है और नफरत फैलाई जाने लगी है ये चीजें थोड़ी कठिन होती जा रही हैं.दिक्कत सिर्फ एक है कि ऐसी रियायत के नाम पर नफरत की राजनीति को और बढ़ाया जा सकता है. यह होने भी लगा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

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