नफरत के दौर में मुहब्बत का शायर

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 19-02-2024
Poet of love in times of hatred
Poet of love in times of hatred

 

harjinderहरजिंदर
 
ट्विटर  को जुमलों का संसार कहा जाता है. पिछले हफ्ते इसी ट्विटर पर एक जुमले ने ध्यान खींचा- मुहब्बत के अलावा दुनिया की हर चीज को जला दो. यह बात 14 फरवरी की है. उस दिन दुनिया भर में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है. इसे प्यार के इजहार का दिन कहा जाता है.

कारोबारी दुनिया ने इसे जो रूप दे दिया है उसकी वजह से इसकी आलोचनाएं भी बहुत होती हैं. लेकिन यह ऐसा दिन तो है ही जब मुहब्बत चर्चा में रहती है.
 
खैर शुरूआत में हमने जिस जुमले की बात की, उसके बारे में और पड़ताल की तो पता पड़ा कि यह बात इंसानियत और मुहब्बत के सबसे बड़े कवि रूमी ले कही थी.
 
फिर यह भी पता पड़ा कि यह ऐसा दिन है जब रूमी की रुबाइयों का जिक्र सबसे ज्यादा होता है. मुहब्बत का कोई दिन रूमी को याद किए बिना पूरा हो भी नहीं सकता.
 
यहां दिलचस्प बात यह है कि पिछले दिसंबर में ही रूमी के इंतकाल के 750 साल पूरे हुए थे. उस समय भी कईं जगह उन्हें याद किया गया था. लेकिन 14 फरवरी को उन्हें जितना याद किया गया वह अभूतपूर्व है और उसने दिसंबर के उस खास मौके को भी काफी पीछे छोड़ दिया.
 
कुछ भी हो रूमी को इस तरह से याद किया जाना हैरत में तो डालता ही है. यहां मामला सिर्फ वैलेंटाइन डे का ही नहीं है. इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक तक पहुंचते-पहंुचते हम एक ऐसे दौर में आ गए हैं जहां पूरी दुनिया में तरह-तरह की नफरत को न सिर्फ पाला पोसा जा रहा है बल्कि उसका राजनीतिक इस्तेमाल भी किया जा रहा है. ऐसे में अगर दुनिया को रूमी की याद आ रही है यह एक उम्मीद भी बंधाता है.
 
वैसे जलालुद्दीन मोहम्मद रूमी का जन्म भी जुल्म और नफरत के एक ऐसे ही दौर में हुआ था. यह वह समय था जब चंगेज खान की मंगोल फौज ने मध्य एशिया से लेकर यूरोप तक के सारे इलाके को तहस-नहस कर दिया था.
 
तभी आज के अफगानिस्तान के बल्ख में एक बालक का जन्म हुआ जिसे बाद में रूमी नाम से जाना गया. उस दौर की उथल-पुथल में यह परिवार बल्ख से निकल कर लंबे समय तक उन इलाकों में कईं जगह रहा जहां आज ईरान, इराक और तुर्की हैं.
 
रूमी उस सूफी परंपरा का हिस्सा थे जो भारत में काफी पहले ही पहंुच चुकी थी. फारसी में लिखा गया रूमी का साहित्य भारत के लिए कोई नई चीज नहीं था.
 
लेकिन बाकी दुनिया खासकर पश्चिम के देश रूमी से लंबे समय तक अनजान रहे। इसके बाद रूमी के पश्चिमी दुनिया में पहंुचने का रास्ता भी भारत से ही निकला.
 
यह बात 18वीं सदी के आखिरी दौर की है जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर कब्जा करने के बाद बाकी हिंदुस्तान पर अपना शासन फैलाना शुरू कर दिया था.
 
उस दौर में कोलकाता में एक सुप्रीम कोर्ट बनाया गया था.इस सुप्रीम कोर्ट में एक अंग्रेज जज नियुक्त हुए- सर विलियम जोंस. विलियम जोंस को कईं भाषाओं का ज्ञान था और भारत आकर उन्होंने दो और नई भाषाएं सीखी- संस्कृत और फारसी.
 
संस्कृत इसलिए कि वह भारत की प्राचीन भाषा थी और फारसी इसलिए कि तब तक भारत की अदालतों में सारा कामकाज इसी भाषा में होता था.ये सर विलियम जोंस ही थे जिन्होंने सबसे पहले यह बताया कि भारत और यूरोप की भाषाओं में एक रिश्ता है। इंडो यूरोपियन लैंग्वेज की अवधारणा उन्होंने ही दी.
 
फारसी सीखने के बाद विलियम जोंस ने इस भाषा का साहित्य पढ़ना शुरू किया तो उनकी मुलाकात रूमी के लेखन से हुई. रूमी उन्हें इतना पसंद आए कि उन्होंने रूमी की किताबों का अंग्रेजी में अनुवाद कर डाला.
 
तब पहली बार पश्चिम ने रूमी के बारे में जाना। इसे बाद तो रूमी के कईं अनुवाद हुए और वे लगातार लोकप्रिय होते गए.कुछ साल पहले बीबीसी ने एक रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया में सबसे ज्यादा किताबें जिस कवि की बिकती हैं वे रूमी ही हैं.
 
यह बताता है कि आज की दुनिया में नफरत जितनी भी बढ़ रही हो वह मुहब्बत भी लोगों को अपनी ओर खींच रही है जिसकी बात रूमी किया करते थे.
 
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )