डॉ. फैयाज अहमद फैजी
इस्लाम के प्रवर्तक मुहम्मद (स.) की एक बहुत ही प्रसिद्ध हदीस (मुहम्मद के कथनों और क्रियाकलापों को सामूहिक रूप से हदीस कहते हैं) है ‘अल-अइम्मतू मेन अल-कुरैश’ अर्थात नेतृत्वकर्ता (सर्वोच्च नेतृत्व, इमाम, अमीर, खलीफा) केवल कुरैश जनजाति (सैयद, शेख) में से ही हैं.
इसी हदीस के अनुपालन में तुर्क जनजाति के उस्मानी खलीफाओं से पहले खिलाफत का पद संभालने वाले सभी खलीफा कुरैश जनजाति से संबंधित रहे हैं. आज भी लगभग सभी प्रकार के इस्लामी संस्थाओं और सूफीवाद के सभी केंद्रों में कुरैश (सैयद, शेख) की प्रभुसत्ता और नेतृत्व पाया जाता है.) कुरैश जनजाति की, जो उपजनजाति मुहम्मद (स.) के वंशावली से ज्यादा निकट होती थी, उसका खिलाफत के लिए दावा उतना ही मजबूत माना जाता था.
इसी आधार पर बनू-उमैय्या (कुरैश की एक उपजनजाति) से खिलाफत प्राप्त करने में बनू-अब्बास (कुरैश की एक उपजनजाति जो मुहम्मद (स.) के वंशावली से अधिक निकट है) सफल रहे. तुर्को का इस्लामी क्षेत्रों पर प्रभुत्व हो जाने के बाद भी खिलाफत उनके पूर्वर्ती शासक कुरैश की उप जनजाति बनू-अब्बास में ही बनी रही, भले ही यह सत्ता नाम मात्र की थी और असल सत्ता तुर्क जनजाति के उस्मानी सुल्तानों के पास थी.
फिर कुछ समय बाद खिलाफत के तीनों प्रतीकों अंगूठी, छड़ी और चोंगा (एक विशेष प्रकार का परिधान जो जैकेट की तरह कपड़े के ऊपर से डाल लिया जाता है.) को प्राप्त करके तुर्को ने इस्लामी सर्वोच्च सत्ता, खिलाफत भी प्राप्त कर ली.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की, जर्मनी के साथ था और ब्रिटैन के विरुद्ध. भारत में अशराफ मुसलमान तुर्की के पक्ष में खिलाफत अन्दोलन का सूत्रपात कर चुके थे, जिसको गांधी जी का खुला समर्थन प्राप्त था, जो अशराफ मुस्लिम तुष्टिकरण का शायद पहला स्पष्ट एवं खुला उदाहरण रहा हो. उस समय कांग्रेस के बड़े अशराफ नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद, गांधी जी के आह्वाहन के आड़ में खिलाफत आंदोलन के पक्ष में खुलकर सक्रिय थे, जबकि खिलाफत आंदोलन के समर्थन को लेकर कांग्रेस में दो मत थे.
चूंकि तुर्की उस समय इस्लामी सत्ता और खिलाफत (सर्वोच्च इस्लामी पद) का केंद्र था, जिसके कारण पूरी दुनिया के मुसलमानों का नैतिक और भावनात्मक समर्थन तुर्की को प्राप्त था. तुर्की की हैसियत को कम करने के लिए अंग्रेजों ने उनके खिलाफत के कानूनी वैधता पर उक्त हदीस के हवाले से प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हुए प्रचारित किया कि पूरी दुनिया के मुसलमानों का नेतृत्व करने का तुर्को को अधिकार ही नहीं, क्योंकि तुर्क लोग कुरैश जनजाति का होना तो बहुत दूर की बात है, अरबी तक नहीं हैं. भारत में चल रहे खिलाफत अंदोलन पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ने लगा, जिसका नेतृत्व अशराफ कर रहा था और इस आंदोलन से वो अंग्रेजों और हिन्दुओं पर लीड (बढ़त) लेना चाहता था.
मौलाना आजाद खिलाफत आंदोलन के पक्ष में इसका जवाब देते हुए सवा दो सौ से अधिक पन्ने की ‘मसला-ए-खिलाफत’ नामक एक किताब लिख डाली. उस किताब में मौलाना आजाद ने तुर्की खिलाफत के इस्लामी कानूनी वैधता को सत्यापित करके के लिए उक्त हदीस की जांच-पड़ताल की और विभिन्न प्रकार की हदीसों और इस्लामी उलेमा ( विद्वानों) द्वारा लिखित किताबों के उद्धरणों से यह साबित करने का प्रयास किया कि कुरैश जनजाति के अतिरिक्त अन्य जाति के लोग भी यदि सक्षम हैं, तो मुसलमानों का नेतृत्व कर सकते हैं.
लेकिन यहां यह बात विचारणीय है कि मौलाना आजाद ने उक्त हदीस को गलत नहीं कहा, बल्कि उसे मुहम्मद का सही और सच्चा कथन मानते हुए बताया कि यह भविष्यवाणी थी कि आने वाले समय में केवल कुरैश जनजाति (सैयद, शेख) के लोग ही खलीफा होंगे. जबकि आज भी अशराफ उलेमा में इस बात को लेकर विभेद है कुछ के निकट यह मुहम्मद (स.) का आदेश है और कुछ इसको मुहम्मद (स.) की भविष्यवाणी बताते हैं.
किसी व्यक्ति का मंतव्य उसके कार्यो से पता चलता है. मौलाना आजाद का यह स्टैंड अवसर विशेष के लिए था और यह केवल अशराफ के हितों की वकालत कर रहे खिलाफत आंदोलन को मजबूत करने तक ही सीमित था. मौलाना आजाद ने ना तो इससे पहले और ना ही इसके बाद कभी इस इस्लामी मसावात और कर्म प्रधानता के मुद्दे को उठाया, और ना ही उनके द्वारा इसको क्रियान्वित करने की कोशिश का कोई सबूत ही मिलता है, जबकि उक्त हदीस को आधार मानकर कर मुस्लिमों की सभी संस्थाओं में नेतृत्व पर अशराफ का वर्चस्व बना रहा और मुस्लिम समाज में जातिवाद ज्यों का त्यों बना रहा.
यद्धपि जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस- प्रथम पसमांदा आंदोलन) के प्रारंभिक दिनों में आसिम बिहारी के आमंत्रण पर मौलाना आजाद ने गांधी जी के साथ पसमांदा आंदोलन के समर्थन में भाषण दिया, लेकिन यह सिर्फ भाषण तक ही सीमित रहा.
कांस्टीट्यूएंट ड्राफ्ट असेंबली के दौरान जब मूलभूत अधिकार, अल्पसंख्यक, जनजातीय एवं बहिष्कृत क्षेत्र पर आधारित एडवाइजरी कमेटी की समस्याओं का शीघ्र और तार्किक हल के लिए अंबेडकर ने सरदार पटेल के नेतृत्व में एक सब कमेटी के गठन का प्रस्ताव रखा, जिसे मान लिया गया.
इसी संदर्भ में अम्बेडकर अपने भाषण में कहते हैं कि जब संविधान बन रहा था, तब मैं कांग्रेस की कठपुतली मौलाना आजाद से मिला था, जो कांग्रेस के हाथ की कठपुतली के सिवा कुछ भी नही है. अल्पसंख्यकों के राजनैतिक भविष्य की चर्चा के लिए तय मीटिंग से मात्र एक दिन पहले मैंने उनको मुस्लिमों से सम्बंधित मामलों के सभी मुद्दे और सम्भावनाओं के बारे में संक्षिप्त विवरण दिया.
लेकिन यह मौलाना अगले दिन बैठक में उपस्थित ही नहीं हुआ. परिणाम स्वरूप वहां मेरे सिवा कोई दूसरा व्यक्ति नही था जो प्रबलता से मुस्लिमों के अधिकारों की रक्षा करता. चूंकि मैं मुस्लिमों के निर्वाचन-क्षेत्र के आरक्षण के समर्थन में अकेला था. कांग्रेस की ओर से पण्डित नेहरू ने मेरे प्रस्ताव का विरोध किया और फलस्वरूप ऐ मेरे मुस्लिम भाइयों आप लोग निर्वाचन-क्षेत्र के आरक्षण रूपी बलशाली राजनैतिक अधिकार से वंचित कर दिए गए.
मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलाधिपति (चांसलर) और मौलाना आजाद के पोते (भतीजे का बेटा) फिरोज बख्त अहमद ने उर्दू में लिखित अपने लेख “मुसलमानों के मजीद पसमांदा होने का अंदेशा” {मुसलमानो के और अधिक पिछड़ने का डर} जो 26 जून 2005, दस्तावेज, राष्ट्रीय सहारा उर्दू में छपा था, में लिखते हैं-
“सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बतौर चेयरमैन अल्पसंख्यक सुरक्षा कमेटी जब ड्राफ्ट कांस्टीट्यूशनल कमेटी के लिए रिजर्वेशन के मामले को जेरे-बहस रखा, तो 7 मेम्बरों की कमेटी में से 5 ने इसके खिलाफ अपना वोट दिया, ये मेंबर थे - मौलाना अबुल कलाम आजाद, मौलाना हिफ्जुर्रहमान, बेगम एजाज रसूल, हुसैनभाई लालजी, तजम्मुल हुसैन.”
ज्ञात रहे कि उस समय तक 1935 के भारत सरकार एक्ट के अनुसार पसमांदा जातियों को आरक्षण का लाभ मिल रहा था, इस प्रकार पसमांदा आरक्षण के विरोध में वोट करके मौलाना आजाद ने अपने अशराफ चरित्र का परिचय दिया.
यही नहीं संविधान सभा में वयस्क मताधिकार (सभी वयस्क नागरिकों को वोट देने का अधिकार) विषय पर बहस के दौरान मौलाना अबुल कलाम आजाद ने व्यस्क मताधिकार को 15 वर्षों के लिए स्थगित करने की वकालत की थी. किंतु डॉ. राजेंद्र प्रसाद एवं नेहरू ने जोरदार ढंग से इसे अपनाने के लिए इसका समर्थन किया था. वयस्क मताधिकार का इंकार एक तरह से अलोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है.
1946 के चुनाव के बाद जब बिहार मंत्री परिषद का गठन होने लगा, तो मौलाना आजाद ने पसमांदा आंदोलन के निर्भीक जननेता अब्दुल कय्यूम अंसारी को मंत्री बनने का तीक्ष्ण विरोध करके मंत्री पद से वंचित कर दिया. ऐसे समय में सरदार पटेल पसमांदा हितैषी बनकर उभरते हैं और मौलाना आजाद के भारी विरोध के बावजूद गैर कांग्रेसी (ज्ञात रहे कि उस समय की प्रथम पसमांदा आंदोलन जामियतुल मोमिनीन {मोमिन कांफ्रेंस} ने मुस्लिम लीग के विरुद्ध जाकर सम्मानजनक सीटें हासिल की थीं) पसमांदा नेताओं के समर्थन में हस्तक्षेप करते हुए अब्दुल कय्यूम और नूर मुहम्मद को मंत्री पद से सुशोभित करवाया.
मौलाना आजाद का देश के बंटवारे के विरोध की नीति भी सिर्फ अशराफ मुस्लिमों के हितों की रक्षा के लिए ही था. अशराफ मुसलमान भारत छोड़ के नहीं जा रहा था, वो भारत को बांट रहा था. भारत में अशराफ हित सुरक्षित रहे, इसके लिए अशराफ का एक स्टैंड बटवारे के विरोध का भी था कि यदि बंटवारा हुआ, तो ठीक और नहीं हुआ तो फिर अशराफ का एक गुट नायक बनके उभरेगा. मौलाना आजाद की ये नीति थी कि जो अशराफ भारत में रह जाएंगे, उनका भविष्य सुरक्षित रहे.
इसीलिए जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर चढ़कर जो भाषण उन्होंने दिया था, जिसमें वो अशराफ का आह्वाहन करते हुए अशराफ प्रतीकों का उद्धरण करते हुए कहते हैं कि तुम ये लाल किला, ये ताज महल ये बुजुर्गों के कब्रें छोड़कर कहां जा रहे हो. जबकि बंटवारे के विरोध में आसिम बिहारी द्वारा दिए गया सफल भाषण में देसी प्रतीकों एवं मातृ भूमि से प्रेम को उभारते हुए मुसलमानों के बीच फैलाया गया खौफ को झूठा साबित करते हुए देश को एकजुट रखने पर उभरा गया था. लेकिन यह विडंबना ही है कि जहां मौलाना आजाद के भाषण की चर्चा होती है, वहीं आसिम बिहारी के भाषण की विरले ही कभी कोई चर्चा होती है.
दुर्भाग्य से देश का बंटवारा होता है और जहां बहुत से मुस्लिम लीगी रातों रात गांधी टोपी पहन कर देश भक्त हो गए, वहीं मौलाना आजाद के नेतृत्व में अशराफ का दूसरा गिरोह नायक बनकर अप्रत्यक्ष शासक के रूप में उभरता है. जबकि सच्चाई ये है कि उस समय के अन्य पसमांदा नेता और अन्य पसमांदा संगठन मौलाना आसिम बिहारी और उनके संगठन जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस) के नेतृत्व में अंतिम समय तक देश के बंटवारे के खिलाफ मजबूती से खड़े रहे.
( लेखक पेशे से चिकित्सक और पसमांदा एक्टिविस्ट हैं. यह उनके विचार हैं.)