बजट के बाद अल्पसंख्यकों की नई चुनौतियां

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 03-02-2025
New challenges for minorities after the budget
New challenges for minorities after the budget

 

harjinder- हरजिंदर

अल्पसंख्यकों को लेकर बजट की सोच पिछले कुछ साल में बदली है. अब जब भी अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधानों की बात आती है तो कहा जाता है कि देश में जो आर्थिक योजनाएं बन रही हैं वे सबके लिए हैं, अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों दोनो के लिए. फिर अल्पसंख्यकों के लिए अलग से प्रावधान की जरूरत क्यों ?

पिछले 10 साल में बजट में अल्पसंख्यकों के लिए किए जाने वाले प्रावधानों में लगातार कटौती की गई है. 2023-24 कि बजट में अल्पसंख्यकों के लिए होने वाले प्रावधानों में 38 फीसदी की कटौती कर दी गई थी. उसके अगले साल चुनाव था, सो पूर्ण बजट नहीं पेश हुआ.

सरकार को एक फरवरी को सिर्फ वोट आॅन एकाउंट पेश करना पड़ा. इसमें प्रावधान बढ़ने या घटने की ज्यादा संभावना नहीं थी, इसलिए पिछले साल के ज्यादातर प्रावधान तकरीबन वैसे ही रहे. इसमें बस उतनी ही बढ़ोतरी हुई जितनी महंगाई को एडजस्ट करने के लिए होती है.

नरेंद्र मोदी सरकार ने तीसरी बार शपथ लेने के बाद जुलाई में जो पूर्ण बजट पेश किया, उसमें अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के बजट में 574 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी की गई. यह बढ़ोतरी उतनी नहीं थी, एक साल पहले हुई कटौती की भरपाई कर पाती.

इस बार के बजट में कुछ लोगों को बढ़ोतरी की उम्मीद रही होगी, लेकिन बहुत से मदों में कटौती ही हुई है. खासकर शिक्षा के मद में काफी कटौती हुई है. एक तो यह कि अब शिक्षा के जुड़े बहुत से मामलों अल्पसंख्यकों को दलित, आदिवासी, पिछड़ों के साथ जोड़कर देखा जाने लगा है. अल्पसंख्यकों के लिए वजीफे की जो योजनाएं थीं उनमें इस बार कटौती की गई है. कईं जगह मामूली और कई जगह काफी.

अल्पसंख्यकों के लिए प्री-मैट्रिक वजीफों में 40 फीसदी की कटौती की गई है. पिछले साल इसके लिए किया गया प्रावधान 326.16 करोड़ रुपये था जो इस घटाकर 195.70 करोड़ रुपये कर दिया गया है. पोस्ट मैट्रिक वजीफों में तो यह कटौती 63 फीसदी है. पिछले साल इसके लिए 1,145 करोड़ रुपये का प्रावधान था जो इस बजट में घटाकर 413.99 करोड़ रुपये कर दी गई.

इसी तरह यूजी, पीजी के लिए वजीफों में भी कटौती की गई है. मदरसों के लिए प्रावधान भी काफी घटा दिया गया है.बजट की इस नई सोच ने अल्पसंख्यकों की चुनौतियां काफी बढ़ा दी हैं. खासकर उन अल्पसंख्यक समुदायों की जिनका शिक्षा स्तर अभी बहुसंख्यकों के स्तर से बहुत नीचे है.

उनके लिए सरकारी संसाधन सूख जाने के बाद अब उन्हें खुद ही अपने भीतर से ऐसी व्यवस्थाएं बनानी होंगी जो उनके समुदाय को न सिर्फ शैक्षणिक रूप से आगे ले जाएं बल्कि तेजी से आगे ले जाएं. अगर वे ऐसा करने में कामयाब रहते हैं तो एक समुदाय के रूप में उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा. लेकिन इसे सोचना जितना आसान है करना उतना ही कठिन है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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