श्याम गीतों में बसी है नज़रूल की मातृभक्ति और सांप्रदायिक सौहार्द्र

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 01-11-2024
Nazrul's devotion to his mother and communal harmony are reflected in Shyam songs
Nazrul's devotion to his mother and communal harmony are reflected in Shyam songs

 

गुलाम कादिर

काज़ी नज़रूल इस्लाम, जिन्हें बांग्ला साहित्य और संगीत में एक विद्रोही और रोमांटिक कवि के रूप में जाना जाता है, ने भारतीय उपमहाद्वीप में सांप्रदायिकता की सीमाओं को पार करते हुए ऐसा साहित्य रचा जो गंगा-यमुना संस्कृति का प्रतीक बन गया. वे अपनी श्यामा भक्ति और इस्लामी संगीत के लिए प्रसिद्ध हैं.

 बंगाल की संस्कृति में शक्ति, वैष्णव, और लोकायत जैसी विभिन्न धाराओं का संगम नज़रूल के साहित्य में देखा जा सकता है. उनके लेखन में रामप्रसाद सेन और कमलाकांत भट्टाचार्य जैसे शाक्त कवियों की धुन और भावना का संयोजन है.

नज़रूल का जीवन व्यक्तिगत संघर्षों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान से भरा हुआ था. अपने बेटे बुलबुल की असमय मृत्यु ने उनके जीवन में शून्यता ला दी, और इस दुःख को उन्होंने अपनी रचनाओं में व्यक्त किया. 'शून्य ए बुके पाखी मोर ऐ बैकी ऐ' जैसे गीत में उनके इस दुःख की झलक मिलती है, जिसमें वे मातृशक्ति में अपनी आशा और शांति की खोज करते हैं.

भक्ति और अद्वैत का संगम

नज़रूल का भक्ति संगीत हिंदू और मुस्लिम दोनों ही परंपराओं का प्रतिनिधित्व करता है. उन्होंने श्यामा गीत और इस्लामी गीतों की रचना की, जिसमें उन्होंने मातृशक्ति और आध्यात्मिक शक्ति का बखान किया. उनकी पुस्तक "गनेर माला" (1934) और "रक्तजाबा" (1966) में उनके प्रसिद्ध श्यामा गीत संकलित हैं.

नज़रूल का गीत "बोल रे जाबा बल" इस संग्रह का प्रारंभिक गीत है, जो "शिर ह्ये तुई बॉस दाखी मा" जैसे गीतों के साथ समाप्त होता है.योगी बरदाचरण मजूमदार के मार्गदर्शन में उन्हें अपने पुत्र की मृत्यु के बाद आध्यात्मिक शांति का अनुभव हुआ, और यहीं से उनके गीतों में मातृभक्ति और शांति का समावेश हुआ.

उनकी रचनाएँ बंगाल में मातृशक्ति के प्रति समर्पण और भक्ति का प्रतीक हैं. रामप्रसाद सेन और कमलाकांत भट्टाचार्य की तरह नज़रूल ने भी अपने गीतों में मातृभाव और प्रेम का संचार किया. उनके गीतों में यह भावना इतनी गहराई से निहित है कि उनके गीत रामप्रसाद के गीतों के समानांतर माने जाते हैं..

सांस्कृतिक विविधता का समन्वय

काज़ी नज़रूल इस्लाम का जीवन विविधताओं से भरा हुआ था. उनके ऊपर बांग्ला साहित्य के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं का भी गहरा प्रभाव पड़ा. लेटो की मंडली में रहकर उन्होंने संगीत में रुचि बढ़ाई और हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक मूल्यों को करीब से समझा.

यही कारण है कि उनके लिए श्यामा गीत और इस्लामी गीत लिखना स्वाभाविक था. उनके इस्लामी गीतों में "तोरा धे जा अमीना माए कोले", "उस रोजे के अंत में ईद मुबारक आई", और "मोहम्मद मोर नयनमनी" जैसे गीत भी शामिल हैं, जिनमें करुणा और भक्ति की झलक है..

नज़रूल का लेखन केवल संगीत तक सीमित नहीं था. उन्होंने सांस्कृतिक एकता और सांप्रदायिक सद्भावना को भी बढ़ावा दिया. उनका मानना था कि हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के धार्मिक, सांस्कृतिक तत्वों का सम्मान करना आवश्यक है. उन्होंने मुस्लिम कवियों को भक्ति गीत लिखने के लिए प्रेरित किया और इसी प्रकार हिंदू नामों से भक्ति गीत लिखने वाले मुस्लिम कवियों का समर्थन किया.

भक्ति संगीत में मुस्लिम कवियों का योगदान

बांग्ला साहित्य में मुस्लिम कवियों ने भी भक्ति गीतों का योगदान दिया है. जैसे मुहम्मद काशेम (के. मल्लिक) और दिलवर हुसैन ने हिंदू नामों से भक्ति गीत लिखे. चटगांव के विरिद खान ने शाक्त काव्य की रचनाएँ कीं और बाद में सैयद ज़फर खान और मिर्जा हुसैन अली जैसे कवियों ने भी शक्ति साधना और मातृभक्ति के गीत लिखे.

नज़रूल ने हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धार्मिक परंपराओं को एक समान आदर दिया. उन्होंने कहा कि "सभी नामों में मेरी मां हैं" और उन्होंने अपनी कविताओं में माँ काली को संबोधित करते हुए कहा, "मेरी काली बेटी गुस्से में है, उसके साथ दुर्व्यवहार किसने किया?" इस भक्ति के चलते नज़रूल ने कहा कि श्याम और श्यामा उनके लिए मन के दो तार हैं, जिनमें माँ की भावना है.

सांप्रदायिकता पर नज़रूल का दृष्टिकोण

वर्तमान समय में जब सांप्रदायिकता का असर समाज में बढ़ रहा है, नज़रूल की कविताएँ और भक्ति गीत सांप्रदायिक सद्भावना का संदेश देते हैं. उन्होंने सांप्रदायिक शैतानी प्रवृत्तियों के खिलाफ लिखा और अपनी कविताओं के माध्यम से एकता और प्रेम का संदेश फैलाया. उन्होंने कहा, "ओमा, तेरी दुनिया में इतनी रोशनी जल रही है, मैं अंधा क्यों हूँ और केवल काला ही क्यों देखता हूँ?"

नज़रूल का यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक है. उनकी कविताएँ हमें समाज की समस्याओं से ऊपर उठकर एकता और सद्भावना का संदेश देती हैं. उनके गीतों में जो भक्ति और प्रेम है, वह आज के समाज के लिए भी एक प्रेरणा स्रोत है.

काज़ी नज़रूल इस्लाम का साहित्य केवल उनके समय तक सीमित नहीं है..उन्होंने जिस भक्ति और प्रेम को अपने गीतों में व्यक्त किया, वह आज भी श्रोताओं के दिलों में गहरी छाप छोड़ता है.