मंत्रिमंडल और संसद के गणित में अल्पसंख्यक

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 16-06-2024
Minorities in the Mathematics of Cabinet and Parliament
Minorities in the Mathematics of Cabinet and Parliament

 

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हरजिंदर

केंद्रीय मंत्रीपरिषद अपने गठन के बाद लंबे समय तक चर्चा में रहती है. इसमें किसे कितनी नुमाइंदगी मिली, इसके विश्लेषण की एक लंबी परंपरा है. कितनी महिलाएं, कितने अल्पसंख्यक, कितने दलित, कितने पिछड़े, कितने आदिवासी, इस सब का हिसाब-किताब पूरे विस्तार से किया जाता है.

अगर हम अल्पसंख्यकों को छोड़ दें तो नरेंद्र मोदी के इस तीसरे मंत्रिमंडल में बाकी सारा संतुलन अच्छी तरह से साधा गया है. कुछ नारीवादियों की यह आपत्ति जरूर सुनाई दी है कि अगर महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण को लागू करने में अभी वक्त लगेगा तो कम से कम मंत्रिमंडल में तो इतनी महिलाओं को शामिल किया ही जा सकता था.

इसे छोड़ दें तो सारी आपत्तियां अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व को लेकर हैं.आजादी के बाद इस देश में पहली बार ऐसे मंत्रिमंडल ने शपथ ली है, जिसमें कोई मुस्लिम सदस्य नहीं . पिछली बार यानी 2019 में जब मोदी सरकार ने शपथ ली थी तो उसमें मुख्तार अब्बास नकवी अकेले मुस्लिम सदस्य थे.

2022 में नकवी की राज्यसभा की सदस्यता खत्म हो गई . पार्टी ने उन्हें फिर से टिकट नहीं दिया . उनका मंत्रिपद भी इसी के साथ चला गया. यानी केंद्रीय मंत्रिमंडल में किसी मुस्लिम मंत्री का न होना इस बार की कोई नई चीज नहीं है. पिछले दो साल से उसकी यही स्थिति थी.

मंत्रिमंडल में किसी किसी समुदाय या वर्ग के चेहरे को रखने की कोई अनिवार्यता नहीं होती, लेकिन सभी को नुमाइंदगी देने की एक परंपरा रही है. हालांकि अक्सर इसका कोई बड़ा अर्थ नहीं होता.

केंद्रीय मंत्रिमंडल में किसी खास समुदाय के होने का अर्थ यह नहीं होता कि इससे उस समुदाय का भला ही होने लगेगा, इसलिए इसे अक्सर टोकनिज़्म भी कहा जाता है.
लेकिन इससे एक फर्क तो पड़ता है कि समुदाय को लगता है कि उसे महत्व दिया जा रहा है.

अप्रत्यक्ष रूप से सही उसे फैसलों में शामिल किया जा रहा है. इसे विभिन्न समुदायों का विश्वास जीतने की एक कोशिश माना जाता है. अब जब बाकी सभी समुदायों के समीकरण साधते हैं और एक समुदाय को इससे पूरी तरह बाहर कर देते हैं तो इसका कुछ असर बाहर रहने वाले समुदाय के जनमानस पर तो पड़ता ही है.

इस मंत्रिमंडल के गठन में नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस की एक दिक्कत भी शामिल है. इस बार लोकसभा चुनाव में इस गंठजोड़ की तरफ से एक भी अल्पसंख्यक चुनाव नहीं जीता. न सिख, न ईसाई और न मुस्लिम. अपवाद सिर्फ केंद्रीय मंत्री किरण रिजूजू हैं जो बौद्ध हैं. भाजपा के टिकट पर फिर चुनाव जीत गए हैं.

हालांकि चुनाव न जीतने के बावजूद ईसाई और सिख प्रतिनिधि को मंत्रिमंडल में जगह मिल गई. हरदीप सिंह पुरी राज्यसभा सदस्य के तौर पर मंत्रिमंडल में वापस आ गए, जबकि लुधियाना से चुनाव हारने वाले भाजपा उम्मीदवार रवनीत सिंह बिट्टू को भी राज्यमंत्री के तौर पर शपथ दिलाई गई. जाहिर है कि उन्हें भी राज्यसभा में भेजने का रास्ता खोजा जाएगा.

जिस समय हम यह चर्चा कर रहे हैं सेंटर फाॅर पाॅलिसी रिसर्च के फेलो गिलीज़ वर्नियर ने एक दिलचस्प विश्लेषण किया है. हम एनडीए एलायंस में एक भी अल्पसंख्यक लोकसभा सदस्य न होने की बात कर रहे हैं तो वर्नियर ने इंडिया एलायंस का गणित खंगाला है.

उन्होंने बताया है कि इस एलायंस के नवनिर्वाचित लोकसभा सदस्यों में 7.9 फीसदी मुस्लिम हैं, पांच फीसदी सिख हैं और 3.5 फीसदी ईसाई हैं. बेशक इसका भी कोई बहुत बड़ा अर्थ नहीं है, लेकिन यह देश के राजनीतिक जनमानस का एक पहलू तो है ही.

  (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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