हरजिंदर
यह ठीक है कि चुनाव की राजनीति घोषणापत्र से नहीं तय होती, लेकिन अगर आप किसी पार्टी की चुनावी रणनीति को समझना चाहते हैं तो आपको उसके घोषणापत्र में झांकना ही होगा. कुछ समय पहले हमने कांग्रेस के घोषणापत्र की बात की थी. यह समझने की कोशिश की थी कि अल्पसंख्यकों को लेकर उसकी सोच क्या है. इस बीच भारतीय जनता पार्टी का घोषणापत्र भी आ गया , इसलिए उसका विश्लेषण भी जरूरी है.
यह इसलिए भी जरूरी है कि अपनी एक चुनावी रैली में पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के घोषणापत्र पर यह छींटाकशी की थी कि उसमें मुस्लिम लीग की छवि दिखाई देती है. आमतौर पर इस तरह की चुनावी बातों को गंभीरता से नहीं लिया जाता, लेकिन इससे एक आधार तो बनता ही है जिस पर अब भाजपा के घोषणापत्र को तौला जा सकता है.
पिछले कुछ चुनावों से भाजपा अपने घोषणापत्र को संकल्प पत्र कहती रही है, लेकिन इस बार उसके घोषणापत्र का नाम है- मोदी की गारंटी. जाहिर है कि इस बार यह घोषणापत्र उन वादों के आस-पास केंद्रित हैं जो प्रधानमंत्री मोदी ने किए हैं या कर रहे हैं. फिर भी यह पार्टी का घोषणापत्र है. इसे उसके नीति निर्देशक तत्व की तरह ही देखना होगा.
भाजपा की घोषणापत्र की चर्चा से पहले एक बात का और ध्यान रखना होगा कि दो ढाई साल पहले भाजपा की राजनीति में एक शब्द कई बार सुनाई दिया था - मुस्लिम आउटरीच। भाजपा ने कई काम ऐसे किए थे जिनसे लगता था कि वह मुस्लिम समुदाय को अपने साथ जोड़ना चाहती है. इनमें पार्टी द्वारा किए गए सूफी सम्मेलनों का जिक्र सबसे ज्यादा जरूरी है.
इसके बाद प्रधानमंत्री ने और फिर पार्टी के बहुत से नेताओं ने पसमांदा समुदाय के उत्थान की कई बातें की थीं. एक समय तो यह भी अटकल लगाई जाने लगी थी कि पसमांदा समाज के लिए केंद्र सरकार की कुछ पहल भी सामने आ सकती हैं.
दूसरी तरफ विरोधी यह कह रहे थे कि भाजपा की मुस्लिम समुदाय से कोई हमदर्दी नहीं है. सूफी और पसमांदा जैसी बाते करके वह सिर्फ मुस्लिम समुदाय की राजनीतिक ताकत को भटकाना चाहती है.
बहरहाल, ये दो विरोधी नजरिये थे . उम्मीद थी कि घोषणापत्र से बहुत सी चीजें स्पष्ट होंगी.अब हम आते हैं 2024 के आम चुनाव के लिए मोदी की गारंटी शीर्षक वाले भाजपा के घोषणापत्र पर. इस पूरे घोषणापत्र में मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल सिर्फ एक जगह हुआ है.
जहां यह बताया गया है कि भाजपा के शासन ने देश की मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक की प्रथा से मुक्ति दिलाई. बेशक यह सरकार द्वारा उठाए गए बड़े कदमों में से एक है, लेकिन यह सरकार की एक उपलब्धि है. जबकि घोषणापत्र की चर्चा उसमें भविष्य के लिए दिए गए कार्यक्रमों को लेकर होती है. लेकिन उस मामले में यह घोषणापत्र मौन है.
इसी तरह मोदी की गारंटी के इस पूरे दस्तावेज में पसमांदा शब्द का जिक्र एक बार भी नहीं आया. इसके विपरीत अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल एक जगह हुआ है. लेकिन यह शब्द सिर्फ भाषाई अल्पसंख्यकों को लेकर हुआ है. अल्पसंख्यकों के उन दूसरे संदर्भों को लेकर नहीं जिन पर भारत की राजनीति चलती है.
यह भी सच है कि भाजपा का घोषणापत्र कांग्रेस और बाकी पार्टियों के बाद आया है जिसकी वजह से पार्टी को अपने आप को ठीक तरह से पोजीशन करने का मौका मिल गया. आमतौर पर अच्छा घोषणापत्र वही माना जाता है उसके विरोधी दल से पूरी तरह विपरीत हो. इसलिए अगर भाजपा ने अल्पसंख्यकों के मुद्दों को इसमें जगह देने से परहेज किया तो इसमें बहुत बड़ा आश्चर्य नहीं है. सिर्फ इस तर्क से ही एक बहुत महत्वपूर्ण मसले से परहेज करने की व्याख्या नहीं होती.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)