हरजिंदर
व्हाट्सएप पर एक मैसेज पिछले कईं साल से चल रहा है. जो कहता है कि अब सब्जियां भी हिंदू मुसलमान हो गईं. फल भी हिंदू मुसलमान हो गए. फूल भी... वगैरह-वगैरह. आज जो हालात हैं उन पर यह एक तंज है जो अब लगातार सच होता जा रहा है. और बात अब फल, फूल, सब्जी, कपड़ों तक ही सीमित नहीं रही.
बजट के बारे में हम यह मानते रहे हैं कि वह आज के आर्थिक हालात और आने वाले एक साल के लिए सरकार की नीतियों का दस्तावेज होता है. लेकिन अब बजट को उसके इस अर्थशास्त्र से आगे जाकर देखा जाने लगा है.
अब उसमें राजनीति का नहीं सांप्रादायिकता का एंगल ढूंढा जाता है. यह पहली बार हुआ है कि किसी बजट को मुस्लिम बजट कहा जा रहा है तो किसी को सनातन बजट. नफरत की राजनीति ने बजट की आलोचना में अपने लिए एक नया मोर्चा ढूंढ लिया है.
पिछले हफ्ते जब कर्नाटक में राज्य का सालाना बजट पेश किया गया तो अल्पसंख्यकों के लिए किए जाने वाले प्रावधान में थोड़ी सी बढ़ोतरी की गई. इसमे कोई नई बात नहीं है.
आजकल ऐसा अक्सर होता है. कुछ सरकारें अपनी नीतियों के हिसाब से अल्पसंख्यकों के लिए किए जाने वाले प्रावधान थोड़े से बढ़ा देती हैं तो कुछ उसमें कटौती कर देती हैं.
इन दोनों के ही लिए आलोचना भी हो सकती है. जरूरत के हिसाब से उसे बढ़ाने या घटाने की तारीफ की जा सकती है. बजट विश्लेषण की यह पंरपरा पुरानी है.
लेकिन नई चीज यह हुई कि कर्नाटक के इस बजट की विपक्ष ने आलोचना करने के बजाए उसे मुस्लिम बजट कहना शुरू कर दिया.
हद तो तब हो गई जब एक नेता ने इसे ‘हलाल बजट‘ तक कह दिया. शायद बिना यह जाने कि हलाल शब्द का अर्थ क्या होता है.अगर वे जानते होते तो शायद इस शब्द का इस्तेमाल कम से कम बजट की आलोचना में तो न ही करते.
मुमकिन है कि जब वे इस शब्द का इस्तेमाल कर रहे होंगे तो उनके दिमाग में वह बहस रही होगी जो इस समय देश में ‘हलाल‘ और ‘झटका‘ मीट को लेकर चल रही है. वैसे वह बहस जितनी बेवजह है उतनी ही बजट की इस तरह की आलोचना है.
इसी तरह से एक दूसरा मामला है उत्तर प्रदेश के बजट का. तीन हफ्ते पहले जब यह बजट पेश हुआ था तो इसमें मंदिरों के विकास और किसानों की परेशानी का कारण बन रहे छुट्टा गोवंश के लिए कुछ बड़े प्रावधान किए गए थे. इस बजट की ठीक उसकी उलटी आलोचना हुई जैसी आलोचना कर्नाटक के बजट की हुई थी.
बजट एक जटिल दस्तावेज होता है जो किसी देश, किसी राज्य और उसकी आबादी का भविष्य तय करता है. इसमें कईं तरह की बारीकियां होती हैं और उनका क्या असर होगा यह बात बजट पर होने वाली राजनीतिक बहसों से ही लोग तक पहंुच सकती है.
लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी बहसें अब बंद हो गई हैं. बजट को भी हमने हिंदू और मुसलमान वाले विभाजन में कैद कर दिया है. विस्तृत परिप्रेक्ष्य में बजट से लोगों को क्या फायदा मिल सकता है और उन्हें क्या नुकसान हो सकता है यह बात अब लोगों तक पहंुच पाती ही नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)