कश्मीरियों ने 'इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत' को किया चरितार्थ

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 27-04-2025
Kashmiris have realized 'humanity, democracy and Kashmiriyat'
Kashmiris have realized 'humanity, democracy and Kashmiriyat'

 

डॉ. निसार सिद्दीक़ी

'इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत' इस लेख की शुरूआत इन तीन शब्दों से ही करते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर समस्या का हल सुझाते हुए तीन शब्दों के सिद्धांत इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत दिया था. जब पहलगाम में आतंकी हमला हो रहा था, तो ये तीन शब्द सिर्फ़ ‘जुमला’ ही नहीं रहे, बल्कि हमने इसको चरितार्थ होते भी देखा.

मासूम पर्यटकों (जिसमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे) पर जब आतंकी हमला हुआ, तब सबसे पहले इंसानियत देखने को मिली. बैसरन घाटी जब आतंकियों के गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज रही थी, तब मसीहा बनकर लोगों को बचाने के लिए आगे आए सैयद आदिल हुसैन शाह, नज़ाकत अहमद शाह, आदिल मलिक, रूबीना, मुमताज़, खच्चर वाले और कैब वाले सामने आए, जिनकी हिम्मत, बहादुरी और ज़िंदादिली की कहानियों से अख़बार भरे पड़े हैं.

नज़ाकत अहमद शाह ने हमले के दौरान 11लोगों की जान बचाई. नज़ाकत को भाई कहते हुए अरविंद अग्रवाल ने कहा कि नज़ाकत ने अपनी जान दांव पर लगाकर उनकी और उनके परिवार की जान बचाई, जिसका एहसान वह कभी नहीं चुका पाएंगे. एक अन्य पर्यटक कुलदीप स्थापक ने कहा, ‘मेरे भाई, आपने जिस जज़्बे और बहादुरी से हमें वहां से निकाला, वो मंजर अभी भी मेरे ज़हन में है.’

इंसानियत की मिसाल कायम करने वाला दूसरा नाम आदिल मलिक का है. हमले के बाद आदिल मलिक ने कई सैलानियों को अपने घर में ठहराया और जो सैलानी वापस आना चाहते हैं, उन्हें घर भेज रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक आदिल अब तक 100 से ज्यादा सैलानियों को वापस भेज चुके हैं और 150 से ज्यादा सैलानी अभी भी उनसे संपर्क में हैं.

अब गुज्जर-बकरवाल समुदाय की रुबीना और मुमताज़ के बारे में सुनिए. आतंकी हमले के दौरान मची भगदड़ के बीच इन दोनों बहनों ने वहां से भागने की बजाय पर्यटकों की मदद का रास्ता चुना. एक पैर फ्रैक्चर होने के बाद भी मुमताज़ और उसकी बहन ने मिलकर तमिलनाडु से आए एक परिवार और अन्य पर्यटकों की मदद की.

हमारी बात सैयद आदिल हुसैन का ज़िक्र किए बग़ैर अधूरी रह जाएगी. जब आतंकी पर्यटकों पर हमला कर रहे थे, तब आदिल हुसैन ने आतंकियों से हथियार छीनने की कोशिश की, लेकिन इस दौरान आतंकियों ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी. सैयद आदिल की क़ुर्बानियों के बारे में सोचिए कि उनके पास वहां से भाग जाने का विकल्प मौज़ूद था, लेकिन उस शख़्स ने मासूम लोगों को बचाने के लिए आतंकियों से संघर्ष करना पसंद किया और अपनी जान क़ुर्बान कर दी.

इस आतंकी घटना के फ़ौरन बाद कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों में लोग सड़कों पर उतर आए. श्रीनगर, कठुआ, सोपोर और जम्मू सहित राज्य के कई इलाक़ों में प्रदर्शन हुए, जो यह दिखाता है कि कश्मीर अब आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं कर सकता है. यहां अब अलगाववाद और आतंकवाद की हिमायत नहीं होती, बल्कि इंसानियत को ज़िंदा रखने की बात की जा रही है, जो असल मायनों में कश्मीरियत ही है.

कश्मीर के अलावा पूरे देश में खासतौर पर मुस्लिमों का ज़िक्र करूंगा, जिन्होंने इस हमले के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया और आतंकवाद को जड़ से ख़त्म करने की मांग की. दिल्ली के शाहीनबाग़, जालंधर, लखनऊ, पटना सहित तमाम जगहों पर मुस्लिमों ने प्रदर्शन करते हुए पाकिस्तान और आतंक के आकाओं को सबक सिखाने की बात कही. लेकिन यहां दुख तब होता है कि जब आतंकियों के धर्म के बहाने मुस्लिमों को निशाना बनाना शुरु कर दिया जाता है.

सोशल मीडिया पर दक्षिणपंथी समूहों के यूजर्स द्वारा जिस तरीके से इस आतंकी घटना के बहाने मुस्लिम विरोधी नरेटिव गढ़ते हुए नफ़रत फैलाने की कोशिश की गई, क्या वह आतंकियों के मंसूबों को पूरा करने जैसा नहीं है? मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि क्या लोग यह समझ नहीं पा रहे थे, कि आखिर धर्म पूछकर, कलमा पढ़वाकर और पैंट उतरवाकर ही आतंकियों ने क्यों लोगों को मारा?

ऐसा इससे पहले किस आतंकी घटना में हुआ था कि इस तरह से लोगों को उनका धर्म पूछकर, कलमा पढ़वाकर मारा गया हो? क्या लोगों को आतंकियों के नापाक मंसूबे नहीं दिख रहे थे कि धर्म पूछकर हिन्दू पर्यटकों को मारने से भारत के अंदर सांप्रदायिक तनाव और विभाजन की स्थिति पैदा हो सकती है.

क्या लोगों को यह नहीं दिख रहा था कि आतंकियों ने कश्मीर में पर्यटकों पर हमले करके कश्मीरी मुस्लिमों के ही पेट पर लात मारी है, क्योंकि जिस तरह से कश्मीर में साल दर साल पर्यटकों की संख्या बढ़ रही थी, उसका सबसे ज्यादा फायदा कश्मीरी मुस्लिमों को ही रहा था. आंकड़ों के अनुसार साल 2020 में सिर्फ 34 लाख पर्यटक ही आए थे, लेकिन इसके बाद के वर्षों में पर्यटकों की संख्या तेज़ी से बढ़ी जो 2024 में बढ़कर 2.36 करोड़ हो गई थी.

कश्मीर में 2025 की शुरुआत भी पर्यटकों के लिहाज से अच्छी थी और श्रीनगर के ट्यूलिप गार्डन में सिर्फ 26 दिनों में 8.14 लाख पर्यटक आए थे. यहां एक बात गौर करने वाली है कि पहलगाम में आतंकी हमला ऐसे समय पर हुआ जब पर्यटकों के आने का मौसम था और सैलानियों की भीड़ लगातार बढ़ने वाली थी.

लेकिन इस आतंकी हमले का परिणाम यह रहा कि ज्यादातर लोगों ने अपनी यात्राएं रद्द कर दी. तो सोचने वाली बात है कि जब पर्यटक नहीं आएंगे तो इसका भुक्तभोगी कौन होगा? ज़ाहिर ही कश्मीरी मुस्लिम ही होंगे. इसलिए आतंकियों की यह नापाक हरकत ना सिर्फ़ कश्मीर के आर्थिक विकास को रोकने की प्रतीत होती है, बल्कि भारत के अंदर सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिश भी दिखती है.

हालांकि भारत की सरज़मी पर आतंकियों के मंसूबे कभी भी कामयाब नहीं हो पाए हैं और ना ही भविष्य में कभी कामयाब हो पाएंगे, क्योंकि देश के अमन पसंद हिन्दू-मुस्लिम ने हर मुश्किल दौर में भारतीयता को ज़िंदा रखा है और यह दिखाने में कामयाब रहे कि जब-जब देश पर कोई ख़तरा मंडराता है, हम जाति और मज़हब से ऊपर उठकर कर भारतीयता को प्रमुखता देते हैं.

(डॉ. निसार सिद्दीक़ी एक रिसर्चर और पत्रकार हैं)