कश्मीर ने दी चिंता की नई लकीरें

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 15-07-2024
Kashmir gave new lines of worry
Kashmir gave new lines of worry

 

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नौ जुलाई को नरेंद्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का एक महीना पूरा हो गया. इस एक महीने में सबसे ज्यादा परेशान करने वाला जो मोर्चा रहा वह जम्मू-कश्मीर का. इस एक महीने में आतंकवाद एक बार फिर वापसी करता दिखाई दिया.

नौ जून को जब केंद्र सरकार का शपथ ग्रहण समारोह हो रहा था उसी दिन आतंकवादियों ने शिवखोड़ी से वैष्णु देवी जा रहे तीर्थयात्रियों की बस पर गोलीबारी की. इस हमले में बस के ड्राईवर समेत नौ लोगों की जान चली गई.

इसके बाद सुरक्षा बलों पर लगातार कईं हमले हुए. आठ जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अपनी रूस यात्रा के लिए रवाना हो रहे थे तो उस दिन आतंकवादियों ने कठुआ में सुरक्षा बलों पर हमला बोला.  

कुछ ही दिन पहले जब कश्मीर घाटी में चुनाव के दौरान  लोग बड़ी संख्या में वोट डालने के लिए निकले थे तो कईं रिकार्ड टूटते दिखाई दिए. इसके कईं कारण गिनाए गए थे. एक तो आतंकवादी संगठनों ने इस बार वोट डालने वालों के लिए कोई धमकी नहीं जारी की थी.

लोग बेखौफ थे. उन्हें लग रहा था कि वोट ही वह हथियार है जिससे  कोई बदलाव ला सकते हैं.कश्मीर घाटी का यह इतिहास रहा है कि जब भी लोग वहां खुलकर मतदान की कोशिश करते हैं आंतकवादी संगठन अपनी सक्रियता बढ़ा देते हैं. वोट डालने वालों को सजा देने से लेकर अन्य तरह की हत्याओं का सिलसिला बढ़ जाता है. तो क्या इस बार भी वही हो रहा है ?

तीर्थयात्रियों की बस पर हमले को छोड़ दें तो ऐसे ज्यादातर आतंकवादी हमले सुरक्षा बलों पर ही हो रहे हैं. अभी तक ऐसी भी खबरें नहीं आई हैं कि आतंकवादियों ने मतदान करने वाले किसी को सबक सिखाने के लिए कोई वारदात की है.

इस बार के आतंकवादी हमलों में एक और ट्रेंड यह दिख रहा है कि ऐसे ज्यादातर हमले कश्मीर घाटी के बाहर, जम्मू और उसके आस-पास के क्षेत्र में हो रहे हैं. जिन दिनों कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था, उन दिनों भी इस जगह आतंकवादी संगठनों की सक्रियता बहुत ज्यादा नहीं थी.

जिससे यह संदेह बनता है कि ये हमले सांप्रदायिक उन्माद भड़काने के लिए हो रहे हैं. अगर हम कठुआ को ही लें तो वहां की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी हिंदू है. बाकी आबादी में सिख व मुस्लिम हैं.

कश्मीर से जुड़े मसलों को पिछले कुछ दशक से जिस तरह से सांप्रदायिक बनाने की कोशिश चलती रही है, पिछले एक महीने का घटनाक्रम भी उसी ओर जाता दिख रहा है.कुछ विश्लेषकों ने कहा है कि इस बार के आतंकवादी हमलों का मकसद बहुसंख्यकों में असुरक्षा का भाव पैदा करना है.

इस बात में कितना दम है यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह साफ है कि आतंकी संगठनों ने अपनी रणनीति बदली है. यह भी साफ नहीं है कि इससे आतंकी संगठनों या उनके सूत्रधारों को क्या हासिल होगा.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अगले कुछ ही महीनों में जम्मू कश्मीर में चुनाव होने हैं. इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि इन हमलों का मकसद चुनाव से पहले माहौल को खराब करना भी हो सकता है. आतंकी संगठन चुनाव से पहले इस तरह की वारदात करते रहे हैं.

हालांकि वे ये भी जानते होंगे कि सिर्फ ऐसी वारदात को बढ़ाकर वे चुनाव को नहीं रोक सकते. अभी तक तो वे कभी भी ऐसा करने में कामयाब नहीं रहे.बहरहाल, आतंक की इन बढ़ती घटनाओं ने नई सरकार की चिंताएं बढ़ा दी हैं. कश्मीर में सफल चुनाव की कामयाबी के साथ जो शुरुआत हुई थी एक महीने में उसे नई मुसीबतों से रूबरू होना पड़ रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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