क़ुरबान अली
भारत में हाल के दिनों में जो घटनाएं सामने आईं हैं उससे मन बहुत खिन्न है. पहले उत्तराखंड के हरिद्वार में पिछले वर्ष दिसंबर माह की 17 तारीख़ से लेकर 19 तारीख़ तक जो एक तथाकथित 'धर्म संसद' का आयोजन किया गया और जिसमें 'धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने, 2029 तक मुस्लिम प्रधानमंत्री न बनने देने, मुस्लिम आबादी न बढ़ने देने का आह्वान करने जैसी बातें की गईं.
वहां मौजूद लोगों के 'विवादित भाषणों' के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए जिससे समाज का माहौल विषाक्त हुआ और घृणा बढ़ी. फिर महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन किया गया और बाक़ी रही कसर नए साल की शुरुआत में उन घिनौने ऐप के वायरल होने से पूरी हो गई जिसमें मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें उनकी नीलामी के इश्तहारों के साथ दिखाई गई.
यहां यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ज़हरीला माहौल बनाने या कुत्सित मानसिकता वाले अपराधियों के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाएगी. उन्हें गिरफ्तार भी किया जाएगा या नहीं और अगर गिरफ्तार भी कर लिए गए तो क्या उनके किए की सजा भी उनको मिलेगी या वह भी बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने वाले अपराधियों की तरह 'बाइज़्ज़त बरी' कर दिए जाएंगे?
दिलचस्प है कि हरिद्वार में ज़हरीले भाषण देने वाले तथाकथित संत और एक ऐप के ज़रिए मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें और उनकी नीलामी के इश्तहार बनाने वाले दीदा-दिलेरी के साथ ये कह रहे हैं कि उन्होंने कुछ भी ग़लत नहीं किया और इसके लिए वह कोई भी सजा भुगतने के लिए तैयार हैं. यह वही हठधर्मिता है जो महात्मा गांधी की हत्या करने के बाद उनका हत्यारा नाथूराम गोडसे करता है कि उसने कुछ भी ग़लत नहीं किया बल्कि एक सही काम को अंजाम दिया है.
बाबरी मस्जिद गिरा दिए जाने के बाद जब तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को अपने दायित्व का निर्वाह न करने के इल्ज़ाम में सुप्रीम कोर्ट ने महज़ एक दिन की सजा सुनाई तो वह मुल्ज़िम तिहाड़ जेल से विजयी मुद्रा में निकलते हुए कहता है कि रामलला और रामजन्भूमि के लिए वह एक बार नहीं सौ बार भी जेल जाने को तैयार है.
यही हाल बाबरी मस्जिद विध्वंस के उन दोषियों का भी रहा जो संविधान की क़सम खाकर केंद्र सरकार में वरिष्ठ पदों पर रहने के बावजूद यह नहीं मानते थे कि उन्होंने कोई ग़ैर क़ानूनी और असंवैधानिक काम किया.
स्वतंत्र भारत में महात्मा गांधी की हत्या और बाबरी मस्जिद का दिन-दहाड़े ढहाया जाना दो ऐसी घटनाएं हैं जिनसे पूरी दुनिया में भारत की साख गिरी. जिस अहिंसा के पुजारी को पूरी दुनिया शांति के दूत के रूप में जानती है और जिसकी प्रतिमाएं डेढ़ सौ से ज़्यादा देशों में लगी हैं और दुनिया का शायद कोई ऐसा बड़ा शहर होगा जहां बापू के नाम की सड़क न हो, अब उनके हत्यारे का भारत में ही महिमामंडन किया जा रहा है वह शर्मनाक है.
इस पर भी ग़ौर किया जाना चाहिए कि पिछले एक माह में जो घटनाएं हुई हैं क्या उनके बाद हम अपने को सभ्य समाज कहलाए जाने के लायक बचे भी है या नहीं? हम यह कहकर दुनिया की नज़रों में अपना सर ऊंचा नहीं कर सकते कि ये मुट्ठी भर लोग हैं और इनके ऐसा कर लेने से इस विशाल देश पर कोई असर नहीं पड़ेगा जो हज़ारों साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति का देश है और जिसका लोहा पूरी दुनिया अब तक मानती आई है.
दरअसल यह हिन्दुस्तानियत बनाम 'हिंदुत्व' की लड़ाई है और इसमें यह तय होना है कि इसमें पांच हज़ार साल पुरानी हिन्दुस्तानियत जीतेगी या महज़ सौ वर्ष पुरानी 'हिंदुत्व' की तुच्छ राजनीतिक विचारधारा.
पिछले सात वर्षों से जो लोग केंद्र और कई राज्यों में सत्ता में हैं उन्होंने कभी भी इस देश के संविधान को उसकी मूल भावना को, 'सेक्युलरिज़्म' और 'समाजवाद' को और 'सामाजिक न्याय' के सिद्धांत को नहीं माना.
केंद्र सरकार के कई मंत्री और बीजेपी के नेतृत्व वाले राज्यों के कई मुख्यमंत्री अक्सर यह कहते हुए सुने जाते हैं कि 'सेक्युलरिज़्म' और 'समाजवाद' शब्द तो मूल संविधान का हिस्सा ही नहीं थे और इन शब्दों को बाद में संविधान में संशोधन करके जोड़ दिया गया और अगर उनका बस चले तो वे संविधान से इन शब्दों को निकाल दें. वे तो 'आपसी बंधुत्व' और भाईचारे के उस शब्द को भी याद करना नहीं चाहते जिसका उल्लेख संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से किया गया है.
इसलिए सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर और गोडसे की हिंदुत्ववादी विचारधारा में यक़ीन रखने वाले लोग इस महान देश को पाकिस्तान, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं जिसका अंत आत्मविध्वंस की ओर ले जाता है और दूसरी ओर भारत के सनातन धर्म की वह गौरवशाली परंपरा है जिसने दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों को आत्मसात किया और जिसका सही चित्रण स्वामी विवेकानंद ने शिकागो विश्व धर्म संसद में क़रीब सवा सौ साल पहले किया था.
यह महान देश ऋषि-मुनियों, शंकराचार्यों, गौतम बुद्ध, महावीर जैन,ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी, अमीर खुसरो, कबीर, गुरु नानक, तिरुवल्लुर, बसवन्ना, विवेकानंद, रवीन्द्र नाथ टैगोर और महात्मा गांधी के रास्ते पर चलकर ही एक और मज़बूत रह सकता है. अगर दूसरा रास्ता अपनाया गया तो वह देश के सामाजिक ताने-बाने को तोड़कर गृहयुद्ध की ओर ले जायेगा और उसके नतीजे भयावह होंगे.
(क़ुरबान अली वरिष्ठ पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी और आवाज- द वॉयस की उनके साथ सहमति आवश्यक नहीं है)